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उपर्युक्त पांच निषेधों में कोई भी ऐसा नहीं है, जिसे अव्यावहारिक और वर्तमान सन्दर्भो में अप्रासंगिक कहा जा सके ।
७. उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत - व्यक्ति की भोग-वृत्ति पर अंकुश लगाना ही इस व्रत का मूल उद्देश्य है। इस व्रत के अन्तर्गत जीवन के उपयोग की प्रत्येक वस्तु की संख्या मात्रा आदि निर्धारित करनी होती है- जैसे वह कौन-सा मंजन करेगा, किस प्रकार के चावल, दाल, सब्जी, फल-मिष्ठान आदि का उपयोग करेगा, उनकी मात्रा क्या होगी, उसके वस्त्र, जूते, शय्या आदि किस प्रकार के और कितने होंगे? वस्तुतः इस बात के माध्यम से उसकी भोग वृत्ति को संयमित कर उसके जीवन को सात्विक व सादा बनाने का प्रयास किया गया है, जिसकी उपयोगिता को कोई भी विचारशील व्यक्ति अस्वीकार नहीं करेगा। आज जब मनुष्य उद्दाम भोग-वासना में आकण्ठ डूबता जा रहा है, इस व्रत का महत्त्व स्पष्ट है।
जैन आचार्यों ने उपभोग-परिभोग-परिमाणव्रत के माध्यम से यह भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि गृहस्थ उपासक को किन साधनों के द्वारा अपनी आजीविका का उपार्जन करना चाहिए और किन साधनों से आजीविका का उपार्जन करना नहीं चाहिए। गृहस्थ उपासक के लिए निम्नलिखित पन्द्रह प्रकार के व्यवसायों के द्वारा आजीविका अर्जित करना निषिद्ध माना गया है।
१. अंगारकर्म - जैन आचार्यों ने इसके अन्तर्गत आदमी को अग्नि प्रज्वलित करके किये जाने वाले सभी व्यवसायों को निषिद्ध बताया है। जैसे कुम्भकार, स्वर्णकार, लौहकार आदि के व्यवसाय किन्तु मेरी दृष्टि में इसका तात्पर्य जंगल में आग लगाकर कृषियोग्य भूमि तैयार करना है।
२. वनकर्म- जंगल कटवाने का व्यवसाय। ३. शटकर्म- बैलगाडी रथ आदि बनाकर बेचने का व्यवसाय । ४. भाटकर्म- बैल, अश्व आदि पशुओं को किराये पर चलाने का व्यवसाय । ५. स्फोटिकर्म - खान खोदने का व्यवसाय।
६. दन्तवाणिज्य - हाथी दान्त आदि हड्डी का व्यवसाय। उपलक्षणा से चमड़े तथा सींग आदि के व्यवसायी भी इसमें सम्मिलित हैं।
७. लाक्षा-वाणिज्य- लाख का व्यवसाय। ८. रस-वाणिज्य- मद्य, मांस, मधु आदि का व्यवसाय। ९. विष-वाणिज्य- विभिन्न प्रकार के विषों का व्यापार ।
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तुलसी प्रज्ञा अंक 129
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