Book Title: Tulsi Prajna 2005 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 53
________________ किमाह बंधणं वीरे, किं वा जाणं तिउट्टइ | चित्तमंतमचित्तं वा परिगिज्झ किसामवि । अणं वा अणुजाणाइ, एवं दुक्खा ण मुच्चइ ॥' सूत्रकृतांग सूत्र में प्रश्न किया गया - भगवान महावीर ने बंधन किसे कहा है तथा क्या जान कर बंधन को तोड़ा जा सकता है ? गणधर सुधर्मा ने उत्तर दिया - चेतन प्राणी या अचेतन पदार्थों के प्रति जिसका थोड़ा भी परिग्रह है अथवा उस परिग्रह का समर्थन है तो वह दुःख से मुक्त नहीं हो सकता । पूर्णतः दुःख मुक्ति के लिये परिग्रह ममत्व का त्याग अनिवार्य है । ममत्व का पूर्ण त्याग होने पर तो कोई वीतराग हो जाता है, फिर दुःख का कोई प्रश्न ही नहीं, किन्तु जैन साधु-साध्वी भी पंच महाव्रतधारी होने से बाह्य परिग्रह के पूर्ण त्यागी होते हैं । अब प्रश्न गृहस्थ का है । ग्रहस्थ को जीवन यापन करने के लिये वस्तुओं की आवश्यकता होती है, इसलिए उसे अन्न, वस्त्र एवं आवास जैसी मूलभूत आवश्यकताओं को जुटाने के लिए कोई न कोई कार्य अवश्य करना होता है । यह आवश्यकताएं सीमित मात्रा में साधु की भी हो सकती है, किन्तु वे उनकी गृहस्थ से भिक्षा मांग कर कर लेते हैं । यद्यपि आगम में मूर्च्छा या ममत्व को परिग्रह कहा है, किन्तु इसका आशय यह नहीं कि गृहस्थ बाह्य साधन सामग्री या धन सम्पदा कितनी भी रखे और मूर्च्छा से रहित रहे । बाह्य धन-सम्पदा या वस्तुओं का स्वामित्व रखते हुए कोई ममत्व या मूर्च्छा से रहित नहीं हो सकता । उस मूर्च्छा को नियन्त्रित करने के लिये ही श्रावकाचार में इच्छा परिमाण या परिग्रह परिमाण व्रत को स्थान दिया गया है। परिग्रह का परिमाण मनुष्य की इच्छाओं का सीमांकन कर देता है। आभ्यन्तर परिग्रह के 14 भेद हैं 1. मिथ्यात्व, 2. क्रोध, 3. मान, 4. माया, 5 लोभ, 6. हास्य, 7. रति, 8. अरति, 9. शोक, 10. भय, 11. जुगुप्सा, 12. स्त्रीवेद, 13. पुरुषवेद, 14. नपुंसक वेद । इस प्रकार आभ्यन्तर रूप से परिग्रह का विस्तार मिथात्व, चार कषाय एवं नौ कषाय तक व्याप्त है। ये सारे भेद मोह कर्म से सम्बन्धित हैं । बाह्य परिग्रह के मुख्यतः पांच प्रकार हैं- 1. हिरण्य - सुवर्ण, 2. क्षेत्र - वास्तु, 3. धन धान्य, 4. द्विपद - चतुष्पद, 5. कुप्य वस्तु । 48 - - श्रावक इन सब की मर्यादा करता है । जो श्रावक इन परिग्रहों का जितना परिमाण कर लेता है, फिर वह उसी के अन्तर्गत अपने जीवन का संचालन करता है । आगम में परिग्रह - परिमाण के साथ आजीविका के साधनों की पवित्रता पर भी ध्यान दिया गया है। तुलसी प्रज्ञा अंक 129 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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