Book Title: Tulsi Prajna 2005 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 31
________________ सम्यक् दर्शन : गृहस्थ धर्म का प्रवेश द्वार श्रावक धर्म की भूमिका प्राप्त करने के पूर्व सम्यग्दर्शन की प्राप्ति आवश्यक मानी गई है। जैन परम्परा में सम्यग्दर्शन के अर्थ में एक विकास देखा जाता है। सम्यग्दर्शन का प्राथमिक अर्थ आग्रह और व्यामोह से मुक्त यथार्थ दृष्टिकोण रहा है, वह यथार्थ वीतराग जीवन दृष्टि था। कालान्तर में वह जिन प्रणीत तत्त्वों के प्रति निश्चल श्रद्धा के रूप में प्रचलित हुआ। वर्तमान संदर्भो में सम्यग्दर्शन का अर्थ देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा है। सामान्यतया वीतरागी को देव, निर्ग्रन्थ मुनि को गुरु और अहिंसा को धर्म मानने को सम्यक् दर्शन कहा गया है। यह सत्य है कि साधना के क्षेत्र में बिना अटल श्रद्धा या निश्चल आस्था के आगे बढ़ना सम्भव नहीं है 'संशयात्मा विनश्यति' की उक्ति सत्य है। जब तक साधक में श्रद्धा का विकास नहीं होता, तब तक वह साधना के क्षेत्र में प्रगति नहीं कर सकता। न केवल धर्म के क्षेत्र में श्रद्धा की आवश्यकता है अपितु हमारे व्यावहारिक जीवन में भी आवश्यक है। वैज्ञानिक गवेषणा का प्रारम्भ बिना किसी परिकल्पना (Hypothesis) की स्वीकृति के नहीं होता है। गणित के अनेक सवालों को हल करने के लिये प्रारम्भ में हमें मान कर ही चलना होता है। कोई भी व्यवसायी बिना इस बात पर आस्था रखे कि ग्राहक आयेंगे और माल बिकेगा, अपने व्यवसाय का प्रारम्भ नहीं कर सकता। कोई भी पथिक अपने गन्तव्य को जाने वाले मार्ग के प्रति आस्थावान हुए बिना उस दिशा में कोई गति नहीं करता। लोक-जीवन और साधना सभी क्षेत्रों में आस्था और विश्वास अपेक्षित है, किन्तु हमें आस्था (श्रद्धा) और अन्धश्रद्धा में भेद करना होगा। जैन आचार्यों ने गृहस्थोपासक के लिए जिस सम्यक् श्रद्धा की आवश्यकता बताई, वह विवेक समन्वित श्रद्धा है। आचार्य समन्तभद्र ने अपने श्रावकाचार में धर्म के नाम पर प्रचलित लौकिक मूढताओं से बचने का स्पष्ट निर्देश किया है। किन्तु वर्तमान संदर्भो में हमारा सम्यक् दर्शन स्वयं इन मूढ़ताओं से आक्रान्त होता जा रहा है। आज सम्यक् दर्शन को, जो कि आन्तरिक आध्यात्मिक अनुभूति से फलित उपलब्धि है, लेन देन की वस्तु बना दिया गया है। आज हमारे तथाकथित गुरुओं के द्वारा सम्यक्त्व दिया और लिया जा रहा है। कहा जाता है कि अमुक गुरु का सम्यक्त्व वोसरा दो (छोड़ दो) और हमारा सम्यक्त्व ग्रहण कर लो। यह तो सत्य है कि गुरुजन साधक को देव, गुरु और धर्म का यथार्थ स्वरूप बता सकते हैं, किन्तु सम्यक्त्व भी कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे किसी को दिया और लिया जा सकता है। मेरी तुच्छ बुद्धि में यह बात समझ में नहीं आती कि सम्यक्त्व कोई बाहरी वस्तु है जिसे कोई दे या ले सकता है। सम्यक्त्व परिवर्तन के नाम पर आज जो साम्प्रदायिक घेराबंदी की जा रही है, वह मिथ्यात्व के पोषण के अतिरिक्त 26 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 129 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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