Book Title: Tulsi Prajna 2005 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 30
________________ की बात है, हमें श्रावक-जीवन के सामान्य नियमों का भी बोध नहीं है। दूसरी ओर जिन सप्त व्यसनों से बचना श्रावक-जीवन की सर्वप्रथम भूमिका है और आध्यात्मिक साधना का प्रथम चरण है और जिनके आधार पर वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक सुखशान्ति निर्भर है, वे दुर्व्यसन तेजी से समाज में प्रविष्ट होते जा रहे हैं और वे जितने तेजी से व्याप्त होते जा रहे हैं, हमारे धर्म और संस्कृति के अस्तित्व के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है। जैन परिवारों में प्रविष्ट होता हुआ मद्यपान और सामिष आहार क्या हमारी सांस्कृतिक गरिमा के मूल पर ही प्रहार नहीं है? किसी भी धर्म या संस्कृति का टिकाव और विकास उसके ज्ञान और चरित्र के दो पक्षों पर निर्भर करता है, किन्तु आज का गृहस्थ वर्ग इन दोनों ही क्षेत्रों में तेजी से पतन की ओर बढ़ रहा है। आज स्थिति यह है कि धर्म केवल दिखावे में रह गया है। वह जीवन से समाप्त होता जा रहा है। किन्तु हमें यह याद रखना होगा कि धर्म यदि जीवन में नहीं बचेगा तो उसका बाह्य कलेवर बहुत अधिक दिनों तक कायम नहीं रह पायेगा। जिस प्रकार शरीर से चेतना निकल जाने के बाद शरीर सड़ांध मारने लगता है, वही स्थिति आज धर्म में हो रही है। कुछ व्यक्तिगत उदाहरणों को छोड़कर यदि सामान्य रूप से कहूँ तो आज चाहे वह मुनि वर्ग हो या गृहस्थ वर्ग, जीवन से धर्म की आत्मा निकल चुकी है। हमारे पास केवल धर्म का कलेवर शेष बचा है और हम उसे ढो रहे हैं। यह सत्य है कि विगत कुछ वर्षों में धर्म के नाम पर शोर-शराबा बढ़ा है। भीड़ अधिक इकट्ठी होने लगी है। मजमें जमने लगे हैं। किन्तु मुझे ऐसा लगने लगा है कि यह सब धर्म के कलेवर की अंत्येष्टि की तैयारी से अधिक कुछ नहीं है। ___ सम्भवतः अब हमें सावधान होना चाहिए, अन्यथा हम अपने अस्तित्व को खो चुके होंगे। जैसा कि मैंने पूर्व में कहा- इन सबके लिए अन्तिम रूप से कोई उत्तरदायी ठहराया जायेगा तो वह गृहस्थ वर्ग ही होगा। जैन-धर्म में गृहस्थ वर्ग की भूमिका दोहरी है। वह साधक भी है और साधकों का प्रहरी भी । आज हम श्रावक धर्म की प्रासंगिकता की चर्चा करना चाहते हैं तो हमें पहले उस यथार्थ की भूमिका को देख लेना होगा, जहाँ आज श्रावक वर्ग जी रहा है। श्रावक जीवन के जो आदर्श और नियम हमारे आचार्यों ने प्रस्तुत किए हैं, उनकी प्रासंगिकता तो आज भी उतनी ही है, जितनी उस समय थी। जबकि उनका निर्माण किया गया होगा। क्या सप्त दुर्व्यसनों के त्याग, मार्गानुसारी गुणों के पालन एवं श्रावक के अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रतों की उपयोगिता और प्रासंगिकता को कभी भी नकारा जा सकता है? वे तो मानव जीवन के शाश्वत मूल्य हैं। उनके अप्रासंगिक होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005 - 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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