Book Title: Tulsi Prajna 2005 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 42
________________ १. अक्षुद्रपन २. स्वस्थ ३. सौम्यता ४. लोकप्रियता ५. अक्रूरता ६. पापभीरूता ७. अशठता ८. सुदक्षता, दानशीलता ९. लज्जाशीलता १०. दयालुता ११. गुणानुरागता १२. प्रियसम्भाषण या सौम्यदृष्टि १३ माध्यस्थवृत्ति १४. दीर्घदृष्टि १५ सत्कथक एवं सुपक्षयुक्त, १६. नम्रता १७. विशेषज्ञता १८. वृद्धानुगामी १९. कृतज्ञ २०. परहितकारी (परोपकारी) और २१. लब्धलक्ष्य (जीवन के साध्य का ज्ञाता) ___पं. आशाधरजी ने अपने ग्रंथ सागर धर्मामृत में निम्न गुणों का निर्देश किया है१. न्यायपूर्वक धन का अर्जन करने वाला, २. गुणीजनों को मानने वाला ३. सत्य भाषी ४. धर्म, अर्थ और काम (त्रिवर्ग) का परस्पर विरोध रहित सेवन करने वाला ५. योग्य स्त्री ६. योग्य स्थान (मोहल्ला) ७. योग्य मकान से युक्त ८. लज्जाशील ९. योग्य आहार १०. योग्य आचरण ११. श्रेष्ठ पुरुषों की संगति १२. बुद्धिमान १३. कृतज्ञ १४. जितेन्द्रिय १५ धर्मोपदेश श्रवण करने वाला १६. दयालु १७. पापों से डरने वाला - ऐसा व्यक्ति सागर धर्म का आचरण करे । पं. आशाधर जी ने जिन गुणों का निर्देशन किया है उनमें से अधिकांश का निर्देशन दोनों पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा किया जा चुका है। उपर्युक्त विवेचना से जो बात स्पष्ट होती है वह यह कि जैन आचार दर्शन मनुष्य जीवन के व्यावहारिक पक्ष की उपेक्षा करके नहीं चलता। जैनाचार्यों ने जीवन के व्यावहारिक पक्ष को गहराई से परखा है और उसे इतना सुसंस्कृत बनाने का प्रयास किया है कि जिसके द्वारा व्यक्ति इस जगत् में भी सफल जीवन जी सकता है। यही नहीं, इन सद्गुणों में से अधिकांश का सम्बंध हमारे सामाजिक जीवन से है। वैयक्तिक जीवन में इनका विकास सामाजिक जीवन के मधुर सम्बंधों का सृजन करता है यह वैयक्तिक जीवन के लिए जितने उपयोगी हैं, उससे अधिक सामाजिक जीवन के लिए आवश्यक हैं। जैनाचार्यों के अनुसार ये आध्यात्मिक साधना के प्रवेश द्वार हैं । साधक इनका योग्य रीति से आचरण करने के बाद ही अणुव्रतों और महाव्रतों की साधना की दिशा में आगे बढ़ सकता है। श्रावक के बारह व्रतों की प्रासंगिकता जैनधर्म में श्रावक के निम्न बारह व्रत हैं - (१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) औचार्य, (४) स्वपत्नी-संतोष, (५) परिग्रहपरिमाण, (६) दिक् - परिमाण, (७) उपभोग-परिभोग-परिमाण, (८) अनर्थदण्ड विरमण, (९) सामायिक, (१०) देशावकाशिक, (११) प्रोषधोपवास, (१२) अतिथिसंविभाग। तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005 - - 37 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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