Book Title: Tulsi Prajna 2005 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 41
________________ १२. देश और काल के अनुसार वस्त्राभूषण धारण करना। १३. आय से अधिक व्यय न करना और अयोग्य क्षेत्र में व्यय न करना। आय के अनुसार वस्त्र पहनना। १४. धर्मश्रवण की इच्छा रखना, अवसर मिलने पर श्रवण करना, शास्त्रों का अध्ययन करना, उन्हें स्मृति में रखना, जिज्ञासा से प्रेरित होकर शास्त्र-चर्चा करना विरुद्ध अर्थ से बचना, वस्तुस्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना, तत्त्वज्ञ बनना, बुद्धि के आठ गुणों को प्राप्त करना। १५. धर्म श्रवण करके जीवन को उत्तरोत्तर उच्च और पवित्र बनाना। यह एक शुभ संकेत ही है। १६. अजीर्ण होने पर भोजन न करना। यह स्वास्थ्य रक्षा का मूल मन्त्र है। १७. समय पर प्रमाणोपेत भोजन करना, स्वाद के वशीभूत हो अधिक न खाना। १८. धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ का इस प्रकार सेवन करना कि जिससे किसी में बाधा उत्पन्न न हो। धनोपार्जन के बिना गृहस्थाश्रम चल नहीं सकता और गृहस्थ काम-पुरुषार्थ का सर्वथा त्यागी नहीं हो सकता, तथापि धर्म को बाधा पहुँचा कर अर्थ-काम का सेवन न करना चाहिए। १९. अतिथि साधु और दीन जनों को यथायोग्य दान देना। २०. आग्रहशील न होना। २१. सौजन्य, औदार्य, दाक्षिण्य आदि गुणों को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होना। २२. अयोग्य देश और अयोग्य काल में गमन न करना। २३. देश, काल, वातावरण और स्वकीय सामर्थ्य का विचार करके ही कोई कार्य प्रारम्भ करना। २४. आचारवृद्ध और ज्ञानवृद्ध पुरुषों को अपने घर आमंत्रित करना, आदर पूर्वक बिठलाना, सम्मानित करना और उनकी यथोचित सेवा करना। २५. माता पिता, पत्नी, पुत्र आदि आश्रितों का यथायोग्य भरण-पोषण करना, उनके विकास में सहायक बनना। २६. दीर्घदर्शी होना। किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने के पूर्व ही उसके गुणावगुण पर विचार कर लेना। २७. विवेकशील होना। जिसमें हित-अहित, कृत्य-अकृत्य का विवेक नहीं होता, उस पशु के समान पुरुष को अन्त में पश्चात्ताप करना पड़ता है। २८. गृहस्थ को कृतज्ञ होना चाहिए। उपकारी के उपकार को विस्मरण कर देना उचित नहीं है। २९. अहंकार से बचकर विनम्र होना। ३०. लज्जाशील होना। ३१. करुणाशील होना । ३२. सौम्य होना। ३३. यथाशक्ति परोपकार करना। ३४. काम, क्रोध, मोह, मद और मात्सर्य, इन आन्तरिक रिपुओं से बचने का प्रयत्न करना और ३५. इन्द्रियों को उ खल न होने देना। इन्द्रियविजेता ही धर्म की पात्रता प्राप्त करता है। आचार्य नेमिचन्द्र ने प्रवचनोद्धार में भिन्न रूप से श्रावक के २१ गुणों का उल्लेख किया है और यह माना है कि इन २१ गुणों को धारण करने वाला व्यक्ति ही अणुव्रतों की साधना का पात्र होता है। आचार्य द्वारा निर्देशित श्रावक के २१ गुण निम्न हैं : 36 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 129 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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