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अलग अखाड़ा जमा लेता है, जिसके परिणाम स्वरूप धार्मिक एवं साम्प्रदायिक संघर्ष होते हैं। सभी साम्प्रदायिक अभिनिवेशों के पीछे कुछ व्यक्तियों के अपने अहं के पोषण की भावना के अतिरिक्त अन्य कोई कारण नहीं है। कपट-वृत्तियाँ दोहरा जीवन का एक सबसे बड़ा अभिशाप है। झूठे अहं के पोषण के निमित्त अथवा अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को साधने के लिए छल-दम्भ सामाजिक जीवन में बढ़ रहे हैं, उनका मूलभूत कारण कपट वृत्ति माया ही है।
इस प्रकार अनियंत्रित लोभ संग्रह-वृत्ति का विकास करता है और उसके कारण शोषण पनपता है और परिणाम स्वरूप समाज में गरीब और अमीर की खाई बढ़ती जाती है। पूँजीपति और श्रमिकों के मध्य होने वाला वर्ग संघर्ष इसी लोभ वृत्ति या संग्रह वृत्ति का परिणाम है। आज जैन समाज में अपरिग्रह की अवधारणा का कोई अर्थ ही नहीं रह गया है। उसे केवल मुनियों के सन्दर्भ में ही समझा जाने लगा है। जैनधर्म में गृहस्थोपासक के लिए धनार्जन का निषेध नहीं किया गया, पर यह अवश्य कहा गया है कि व्यक्ति को एक सीमा से अधिक संचय नहीं करना चाहिए। उसकी संचय वृत्ति या लोभ पर नियंत्रण होना चाहिए। आज समाज में जो आर्थिक वैषम्य बढ़ता जा रहा है,उसके पीछे अनियंत्रित लोभ या संग्रह-वृत्ति ही मुख्य है। यदि धनार्जन के साथ ही व्यक्ति की अपने भोग की वृत्ति पर अकुंश होता है और संग्रह वृत्ति का परिसीमन होता है, तो वह अर्जित धन का प्रवाह लोक-मंगल के कार्यों में बहता है। जिससे सामाजिक सौहार्द और सहयोग बढ़ता है तथा धनवानों के प्रति अभावग्रस्तों के मन में सद्भाव उत्पन्न होता है। जैन धर्म के इतिहास में ऐसे अनेक श्रावक रत्नों के उदाहरण हैं, जिन्होंने अपनी समग्र सम्पत्ति को समाज हित में समर्पित कर दी, आज उसी आदर्श के पुनर्जागरण की आवश्यकता है।
संक्षेप में सामाजिक जीवन में जो भी विषमता और संघर्ष वर्तमान में है, उन सबके पीछे कहीं न कहीं अनियंत्रित आवेश, अहंकार, छल-दम्भ, कपट वृत्ति तथा संग्रह वृत्ति है। इन्हीं अनियंत्रित कषायों के कारण सामाजिक जीवन में विषमता और अशान्ति उत्पन्न होती है। आवेश या अनियंत्रित क्रोध के कारण पारस्परिक संघर्ष, आक्रमण, युद्ध एवं हत्याएं होती हैं। आवेशपूर्ण व्यवहार दूसरों के मन में अविश्वास उत्पन्न करता है और फलतः सामान्य जीवन में जो सौहार्द होना चाहिए, वह भंग हो जाता है। वर्ग या अहंकार की मनोवृत्ति के कारण ऊंच नीच का भेद भाव, पारस्परिक घृणा और विद्वेष पनपते हैं। सामाजिक जीवन में जो दरारें उत्पन्न होती हैं, उनका आधार अहंकार ही होता है। माया या कपट की मनोवृत्ति भी जीवन को छल दम्भ से युक्त बनाती है। इससे जीवन में दोहरापन
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005
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