Book Title: Tulsi Prajna 2005 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 36
________________ 1 २. मांसाहार — विश्व में यदि शाकाहार का पूर्ण समर्थक कोई धर्म है, तो वह मात्र जैन-धर्म है। जैन धर्म में गृहस्थोपासक के लिए मांसाहार सर्वथा त्याज्य माना गया है किन्तु आज समाज में मांसाहार के प्रति एक ललक बढ़ती जा रही है और अनेक जैन परिवारों में उसका प्रवेश हो गया है । अतः इसकी प्रासंगिकता पर चर्चा करना अति आवश्यक है। मांसाहार पर निषेध के पीछे मात्र हिंसा और अहिंसा का प्रश्न ही नहीं, अपितु अन्य दूसरे भी कारण हैं । यह सत्य है कि मांस का उत्पादन बिना हिंसा के सम्भव नहीं है और हिंसा क्रूरता के बिना सम्भव नहीं है। यह सही है कि मानवीय आहार के अन्य साधनों में भी किसी सीमा तक हिंसा जुड़ी हुई है किन्तु मांसाहार के निमित्त जो हिंसा या वध, कर्त्ता का अधिक क्रूर होना अनिवार्य है । क्रूरता के कारण दया, करुणा, आत्मीयता जैसे कोमल गुणों का ह्रास होता है और समाज में भय, आतंक एवं हिंसा का ताण्डव प्रारम्भ हो जाता है । यह अनुभूत सत्य है कि सभी देश एवं कौमें, जो मांसाहारी हैं और हिंसा जिनके धर्म का एक अंग मान लिया गया है, उनमें होने वाले हिंसक ताण्डव को देखकर आज भी दिल दहल उठता है। मुस्लिम राष्ट्रों में आज मनुष्य के जीवन का मूल्य गाजर और मूली से अधिक नहीं रह गया है । केवल व्यक्तिगत हितों के लिए ही धर्म और राजनीति के नाम पर वहाँ जो कुछ हो रहा है, वह हम सभी जानते हैं । यदि हम यह मानते हैं कि मानव जीवन से क्रूरता समाप्त हो और कोमल गुणों का विकास हो, तो हमें उन कारणों को भी दूर करना होगा, जिनसे जीवन में क्रूरता आती है। मांसाहार और क्रूरता पर्यायवाची है । यदि दया, करुणा, वात्सल्य का विकास करना है, तो मांसाहार का त्याग अपेक्षित है। दूसरे, मांसाहार की निरर्थकता को मानव शरीर की संरचना के आधार पर भी सिद्ध किया जा सकता है। मानव शरीर की संरचना उसे निरामिष प्राणी ही सिद्ध करती है । मांसाहार मानव स्वास्थ्य के लिए कितना हानिकारक है, यह बात अनेक वैज्ञानिक अनुसंधानों से प्रमाणित हो चुका है । इस लघु निबंध में उस सब की चर्चा कर पाना तो सम्भव नहीं है, किन्तु यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि मांसाहार शारीरिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है और मनुष्य स्वभावतः शाकाहारी प्राणी है I मांसाहार के समर्थन में सबसे बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि बढ़ती हुई मानवजाति की आबादी को देखते हुए भविष्य में मांसाहार के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प शेष नहीं रहेगा जिससे मानव जाति की क्षुधा को शान्त किया जा सके। उसके विपरीत कृषि के क्षेत्र में भी ऐसे अनेक वैज्ञानिक प्रयोग हुए हैं और हो रहे हैं जो स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित करते हैं कि मनुष्य को अभी शताब्दियों तक निरामिष भोजी बनाकर जिलाया जा सकता है। अनेक आर्थिक सर्वेक्षणों में यह भी प्रमाणित हो चुका है कि शाकाहार तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2005 Jain Education International For Private & Personal Use Only 31 www.jainelibrary.org

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