Book Title: Tulsi Prajna 2005 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 21
________________ इसे व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो श्रावकाचार में काफी गिरावट आई है। जो पूर्वकाल में नहीं रही होगी। किन्तु यहाँ चिन्तनीय प्रश्न यह है कि वर्तमान श्रावकाचार को हम श्रावकाचार कहेंगे या नहीं? यदि हम वर्तमान श्रावकाचार को श्रावकाचार मानें तो शास्त्र विरुद्ध होने से उसे श्रावकाचार होने की कोटि में नहीं रख सकेंगे। यदि वह श्रावकाचार नहीं है तो फिर उससे जैन-धर्म की निन्दा अवश्य होती है। अतः सर्वप्रथम तो हमें यह निर्णय करना होगा कि वर्तमान में दिखाई देने वाला आचार आचार की कोटि में ही नहीं आता, अतः उसे गृहस्थों के लिए सही आचार क्या होना चाहिए? इसका सम्यक्ज्ञान प्रदान करना चाहिए। यह सत्य है कि सही अर्थ में धर्म करने वालों की संख्या हमेशा अल्प ही रहेगी। आठवीं शती के सुप्रसिद्ध समदर्शी आचार्य हरिभद्र ने संबोध प्रकरण में लिखा है कि वर्तमान में सुगुरु एवं श्रावक दुलर्भ है। किन्तु राग द्वेष युक्त गुरु नामधारी गुरुओं एवं श्रावकों की संख्या बहुत है अर्थात् आज से १२०० साल पूर्व भी सम्यक् रूप से श्रावक धर्म का आचरण करने वालों की संख्या तो अल्प ही थी। अत: संख्या के आधार पर आचार की समीक्षा करनी अनुचित ही होगी। हमारा लक्ष्य तो उत्तम श्रावक के लिए उत्तम स्वरूप, आचार कैसा होना चाहिए और उस स्थिति को प्राप्त करने हेतु कैसे, क्या करना चाहिए? यही सोचना है। इस विषय में चर्चा करने से पूर्व स्थानांग सूत्र में वर्जित श्रावकों के विभिन्न प्रकारों की चर्चा आवश्यक है। स्थानांग सूत्र में श्रावक-श्रमणोपासक के चार प्रकार का वर्णन प्राप्त होता है : १. माता-पिता समान - जिस प्रकार माता-पिता अपने सन्तान का वात्सल्य भाव से पालन पोषण करते हैं, उसी प्रकार साधु साध्वी के प्रति अत्यन्त वात्सल्य भाव रखने वाले केवल उपचार करने से नहीं किन्तु सच्चे मन से साधु की सेवा करने वाले को माता-पिता के समान श्रमणोपासक कहते हैं। २. भ्रातृ-समान - जिस प्रकार भाई अपने भाई की सदा रक्षा करता है तथापि प्रसंगोपात भाई के हित के लिए एक दो कटु वचन भी कहता है। ऐसा भाई सदृश श्रमणोपासक श्रावक साधु के हित के लिए कभी कटु वचन भी कहता है किन्तु मन में भाई की तरह स्नेह रखता है। ३.मित्र समान - जिस प्रकार मित्र में कुदरती स्नेह नहीं होता है किन्तु औपचारिक स्नेह होता है तथापि उसमें स्वार्थ की भावना नहीं होती है उसी तरह साधु के प्रति स्नेह की वृत्ति रखने वाले श्रावक को मित्र समान श्रावक कहते हैं। ४. सपत्नी समान - जिस तरह सपत्नी अपने प्रियतम की पत्नी के दोष देखने में ही अनुरक्त रहती है उसी तरह ईर्ष्यावश साधु के दोष को देखने की वृत्ति रखने वाले श्रावक को सपत्नी सदृश श्रावक माना गया है। 16 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 129 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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