Book Title: Tulsi Prajna 2005 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 19
________________ शपथ तो उसे हर समय निभानी ही होगी। आधुनिकता की किसी भी कालीन में उसके पांव कितने ही धंसे हों किन्तु उसे आत्मा के निर्मल स्वरूप को मलिन करने का अधिकार श्रावक नहीं दे सकता। व्यवस्थाओं, अधिकारों, सुविधाओं से उसका आकाश कितना ही भरा हुआ क्यों न हो, प्रार्थना उपासना के कुछ क्षण उसके अपने होने ही चाहिए। यदि ऐसा होता है तो श्रावक फिर जीवित हो उठेगा। श्रावक के जीवित होने का अर्थ है श्रमण धर्म का खिल उठना और श्रमण धर्म खिलने से देश विश्व बिना महके हुए नहीं रहेगा। आज श्रावक रूपी धर्मचक्र खूब गतिशील है किन्तु दुर्भाग्य यह है कि वह श्रमण-धर्म जैन धर्म रूपी गाड़ी में लगा हुआ नहीं है और कोई भी चक्र पहिया अकेला घूमता है तो कहीं पहुंचता नहीं है, केवल अपनी तह में स्याह खड्डा करता है। अत: प्रासंगिकता आज पहिए और गाड़ी को जोड़ने की है। उस विवेक की तलाश है जो नियंत्रण और गति, सिद्धांत और व्यवहार, तब और अब दोनों को जोड़ सके। श्रावकाचार के सभी स्तम्भ तब मंगलकारी बनेंगे विश्व कल्याण के लिए। सन्दर्भ ग्रन्थ : 1. समता : दर्शन और व्यवहार - आचार्यश्री नानेश, बीकानेर, 1985 2. जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, आचार्यश्री देवेन्द्र मुनि, उदयपुर, 1982 3. डॉ. एस. राधाकृष्णन-धर्म और समाज 4. भगवान महावीर आधुनिक सन्दर्भ में - डॉ. नरेन्द्र भानावत, बीकानेर, 1975 5. अहिंसा के अछूते पहलु, आचार्यश्री महाप्रज्ञ, लाडनूं, 1989 6. तीर्थंकर, श्रावकाचार विशेषांक, सम्पादक - डॉ. नेमीचन्द जैन, इन्दौर, 1985 7. एथिकल डाक्टराइन आफ जैनिज्म - डॉ. के.सी. सोगानी, सोलापुर 8. जैन एथिक्स, डॉ. दयानन्द भार्गव 29, विद्याविहार कॉलोनी उत्तरी सुन्दरवास उदयपुर - 313 001 14 - __ तुलसी प्रज्ञा अंक 129 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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