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श्रावक - आचार की प्रासंगिकता का प्रश्न
जैन-धर्म श्रमण-परम्परा का धर्म है । दूसरे शब्दों में वह निवृत्तिमार्गी या संन्यासमार्गी धर्म है । यह बात भी निस्संकोच रूप से स्वीकार की जा सकती है कि वैदिक - परम्परा के विपरीत इसमें संन्यास को ही जीवन का चरम आदर्श स्वीकार किया है, किन्तु इस आधार पर यह निष्कर्ष निकाल लेना कि जैनधर्म में गृहस्थ या उपासक वर्ग का महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं है, अनुचित ही होगा । चाहे जैनधर्म के प्रारम्भिक युग में संन्यास को अधिक महत्ता मिली हो, किन्तु आगे चलकर जैन-परम्परा में गृहस्थ धर्म को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो गया है। जैनधर्म में जो चतुर्विध संघ व्यवस्था हुई उसमें साधु-साध्वियों के साथ ही साथ श्रावकों एवं और श्राविकाओं को भी स्थान दिया गया । मात्र यही नहीं, श्रावक और श्राविकाओं को श्रमणों और श्रमणियों के माता-पिता के रूप में स्वीकार किया गया। दूसरे शब्दों में उन्हें साधु साध्वियों का संरक्षक मान लिया गया। वैदिक परम्परा में भी गृहस्थ आश्रम को सभी आश्रमों का मूल बताया गया था । प्रकारान्तर से इसे जैन परम्परा में गृहस्थ वर्ग को श्रमण वर्ग का संरक्षक एवं आधार स्वीकार कर लिया गया। जैन परम्परा में गृहस्थ उपासक न केवल इसलिए महत्त्वपूर्ण था कि वह श्रमणों के भोजन, स्थान आदि आवश्यकताओं की पूर्ति करता था अपितु उसे श्रमण साधकों के चारित्र का प्रहरी भी मान लिया गया। कुछ समय पूर्व तक श्रावक वर्ग की यह महत्ता अक्षुण्ण थी। उसे यह अधिकार प्राप्त था कि यदि कोई साधु या साध्वी श्रमण मर्यादाओं का सम्यक्रूपेण पालन नहीं करता है तो वह उनका वेश लेकर उन्हें श्रमण संघ से पृथक् कर दे। इसी प्रकार मुनि एवं आर्यिका वर्ग में प्रवेश के लिए भी श्रावक संघ की अनुमति आवश्यक थी ।
तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2005
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प्रो. सागरमल जैन
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