Book Title: Tulsi Prajna 2005 07 Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 8
________________ 8. आर्य समिति - जिनके सहवास से आत्म-गुणों का विकास हो, संयम की प्रवृत्ति जागृत हो और आत्म प्रतिष्ठा बढ़े, ऐसे सदाचारी व्यक्तियों की संगति आर्य समिति कहलाती है। १. विवेक- कर्त्तव्याकर्त्तव्य का तर्क-वितर्क पूर्वक निर्धारण करना विवेक है। . 10. उपकार स्मृति या कृतज्ञता - कृतज्ञता मनुष्य का एक आवश्यक गुण है। जो व्यक्ति अपने ऊपर किए गए दूसरों के उपकारों का स्मरण रखता है और उपकार के बदले में प्रत्युपकार करने की भावना रखता है, वह कृतज्ञ कहलाता है। कृतज्ञता जीवन विकास के लिए आवश्यक है। इस गुण के सद्भाव से धर्म-धारण की योग्यता उत्पन्न होती है। 11. जितेन्द्रियता - इन्द्रियों के विषयों को नियंत्रित करना तथा अनाचार और दुराचार रूप प्रवृत्ति को रोकना जितेन्द्रियता है। ___ 12. धर्मविधि श्रवण - अभ्युदय और निःश्रेयस का साधन धर्म है। युक्ति और आगम से सिद्ध धर्म की प्रतिष्ठा अथवा उसके स्वरूप का प्रतिदिन श्रवण धर्म विधि श्रवण है। 13. दयालुता - दुःखी प्राणियों के दुःखों को दूर करने की इच्छा दया कहलाती है जिसके हृदय में कोमलता, करुणा और आर्द्रता है, वही दयालु हो सकता है। 14. पापभित्ति- अनिष्ट फल प्रदान करने वाले हिंसा, झूठ , चोरी आदि पापों से भीत रहना अपने को धर्म धारण का अधिकारी बनाना है। इस प्रकार श्रावक उपर्युक्त चौदह गुणों द्वारा अपनी आत्मा को धर्मधारण के योग्य बनाता है, ऐसे श्रावक को पाक्षिक श्रावक कहते हैं । श्रावक के द्वादश व्रतों और एकादश प्रतिमाओं का पालन करना चर्या अथवा निष्ठा है। इस चर्या का आचरण करने वाला गृहस्थ नैष्ठिक श्रावक कहा जाता है। श्रावक के द्वादश व्रत ज्ञान, दर्शन और चारित्र की त्रिवेणी मुक्ति की ओर प्रवाहित होती है किन्तु मानव अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार उसकी गहराई में प्रवेश करता है और अपनी शक्ति के अनुसार चारित्र को ग्रहण करता है। श्रावक घर में रहकर पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए मुक्ति मार्ग की साधना करता है। तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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