Book Title: Tulsi Prajna 2005 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 6
________________ श्रावकाचार आचार, आहार और विचार का विवेक प्रो. प्रेम सुमन जैन जैन आचार के मूल में अहिंसा की उदात्त भावना रही है। अहिंसा के आधार पर ही जैन आचार विकसित हुआ है। आचारांग सूत्र में श्रमण भगवान महावीर की जो जीवन गाथा दी गई है, महावीर ने साधना काल में भयंकर कष्ट व उपसर्ग सहन किये, उन सभी कष्टों के सहन करने में भी अहिंसा की उदात्त भावना निहित रही है। भगवान महावीर की भाँति उग्र साधना करना सामान्य साधक के लिए कठिन ही नहीं, अपितु असंभव प्राय: है। अहिंसा का सम्यग् प्रकार से पालन करने के लिए आवश्यक है कि गृहस्थ आश्रम का त्याग किया जाये। गृहस्थ आश्रम में रहकर अहिंसा का पूर्ण पालन नहीं हो सकता। गृहस्थ आश्रम को छोड़कर श्रमण बनना ही पर्याप्त नहीं माना गया है किन्तु श्रमण जीवन ग्रहण करने के पश्चात् भी ऐसी आचार-संहिता निर्माण की गई जिससे उसके जीवन में अधिकाधिक अहिंसा का पालन हो सके। । भगवान महावीर ने श्रावक और श्रमण-मुनि के लिये आभ्यन्तर शुद्धि हेतु विभिन्न व्रतों के धारण का विधान किया है। इससे जीव क्रमिक साधना में रत होकर आत्म स्वातंत्र्य की उपलब्धि कर सकता है। जो व्यक्ति मुनि धर्म को अंगीकार करने में असमर्थ है वह श्रावक धर्म को ग्रहण कर सच्चा आत्म साधक गृहस्थ बन जाता है। महावीर ने कहा है कि श्रावक और श्रमण के सारे व्रत अहिंसा की साधना के लिए है। श्रावकाचार: श्रावक शब्द तीन वर्गों के संयोग से बना है और इन तीनों वर्गों के क्रमश: तीन अर्थ है - 1. श्रद्धालु, 2. विवेकी और 3. क्रियावान। जिसमें इन तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 122