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इस पर अन्य बौद्ध दार्शनिक कहते हैं - हमें यह मान्य है कि कार्य अपने से उत्पन्न नहीं होता क्योंकि वैसी उत्पत्ति व्यर्थ है । कार्य संयुक्त रूप से स्व एवं पर से भी उत्पन्न नहीं होता कारण स्व से उत्पत्ति निरर्थक है जैसा कि हम मान चुके हैं । निर्हेतुक उत्पत्ति भी हमें मान्य नहीं है । ये सब प्रतिषेध हमें स्वीकार्य हैं । किंतु स्व से भिन्न पर पदार्थ से उत्पत्ति मानने में कोई भी बाधा नहीं है ।
इसके उत्तर में नागार्जुन चार प्रकार के प्रत्ययों का उल्लेख करते हैं, जो विरोधी पक्ष को मान्य हैं । वे चार प्रत्यय हैं
( 2 ) हेतु प्रत्यय, आलम्बन - प्रत्यय, अनन्तर- प्रत्यय एवं अधिपति प्रत्यय |
(3) इन प्रत्ययों से भी कार्य की उत्पत्ति सिद्ध नहीं की जा सकती, क्योंकि कार्यरूपी भावों का स्वभाव इन प्रत्ययों में अविद्यमान है । प्रत्यय यदि परभाव हैं तो परभाव-विरोधी स्वभाव स्वयं कार्यं ही हो सकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि कार्य पहले से ही विद्यमान है । ऐसी परिस्थिति में नये सिरे से कार्य की उत्पत्ति का प्रश्न ही नहीं उठता ।
इसके विरुद्ध विरोधी पक्ष कार्य की उत्पत्ति सिद्ध करने के लिए एक नया मार्ग अपनाते हैं । कार्य की उत्पत्ति प्रत्ययों से नहीं होती । वह कार्योत्पादक क्रिया से होती है । उदाहरणार्थ, चक्षुविज्ञान की उत्पत्ति उपर्युक्त हेतु, आलम्बन, आदि प्रत्ययों से सीधी नहीं होती । इन प्रत्ययों से तो चक्षुविज्ञान को उत्पन्न करने वाली क्रिया की निष्पत्ति होती है । वह क्रिया चक्षुविज्ञान को जन्म देती है । अतः उन प्रत्ययों से उत्पन्न जो किया है वही विज्ञान की जनिका है, प्रत्यय विज्ञान के जनक नहीं हैं, जैसा कि श्रोदन की निष्पत्ति पाक-क्रिया से होती है, न कि इंधन से ।
इसके उत्तर में नागार्जुन कहते हैं-
(4 a) क्रिया नामक कोई पदार्थ स्वीकार नहीं किया जा सकता । अत: उसे हेतु, आलम्बन आदि प्रत्ययों से प्रत्ययवती कैसे कहा जा सकता है ? विरोधी पक्ष ने जिस क्रिया को मान्यता दी है, वह कब उत्पन्न होती है ? वह यदि कभी उत्पन्न होती है तो चक्षुविज्ञान से पश्चात् पूर्वं या समकालीन होगी । चक्षुविज्ञान के पश्चात् उत्पन्न होना व्यर्थ है, कारण, उसका कार्य (चक्षुविज्ञान ) पहले से ही उत्पन्न हो चुका है। कार्य के उत्पन्न होने के पहले भी उसका उत्पन्न होना असंगत है, क्योंकि कार्य के बिना क्रिया का होना असम्भव है । कार्य की जायमान अवस्था में भी क्रिया का रहना सम्भव नहीं, कारण, जायमान नामक किसी अवस्था को हम स्वीकार नहीं करते । पदार्थ या तो जात होंगे या प्रजात । जायमान नामक तृतीय कोटि का स्वीकार करना युक्तिविरुद्ध है । इस प्रसंग में वृत्तिकार चन्द्रकीर्ति एक महत्त्वपूर्ण श्लोक उद्धृत करते हैं, जो निम्न प्रकार है
खं. ३ अं. २-३
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जायमानार्धं जातत्वाज्जायमानो न जायते। 1 अथ वा जायमानत्वं सर्वस्यैव प्रसज्यते ॥
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