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ये भावनाएं एक ऊर्जा देती हैं। मन को सकारात्मक विचारों से जोड़ती हैं। मन को शान्त एवं शक्तिमान् बनाती हैं। प्रत्येक आत्मा में बुरी आदतें स्वभावत: बनी हैं, उन आदतों को बदलना इन भावनाओं के चिन्तन एवं निरन्तर अभ्यास से सम्भव है । हे आत्मन् ! चित्त शुद्धि के बिना ही अनन्त बार मोक्ष पुरुषार्थ करने पर भी मोक्ष प्राप्त नहीं हुआ। हमारे विचारों, भावनाओं से ही हमारा चरित्र बनता है। जिसका चरित्र दृढ और स्वच्छ है निश्चित ही उसके विचार उच्च होते हैं और वही हमारी आदतों में दिखाई देते हैं। ठीक ही कहा है
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'Our thoughts lead to actions, actions lead to habits and habits form char
acter.'
अर्थात् हमारे विचार क्रिया में आते हैं । क्रियाएं आदत बन जाती हैं और आदतें ही चरित्र बनाती हैं।
आत्मविशुद्धि का मुख्य कारण कहते हैं
चउतीसातिसयाणं अट्ठ महापाडिहेर सहिदाणं । तित्थयराणं झाणं हेदू य अप्पविसोहीए ॥ ४॥
तीर्थंकर भगवान पुरुष के चौंतीस अतिशय होते हैं प्रातिहार्य आठों ही जिनके दर्शक के मन खोते हैं। तथा चतुष्टय आतम के जब विषय ध्यान के बनते हैं आत्म विशुद्धि के कारण ये दरशन शुद्धि करते हैं॥ ४॥
अन्वयार्थ : [ चउतीसातिसयाणं ] चौंतीस अतिशय [ अट्ठमहापाडिहेर सहिदाणं ] अष्ट महा प्रातिहार्य और अनन्त चतुष्टय से सहित [ तित्थयराणं ] तीर्थंकरों का [ झाणं ] ध्यान [ अप्पविसोहीए ] आत्म विशुद्धि में [ हेदू ] हेतु है ।
भावार्थ : चित्त की शुद्धि ध्यान से होती है और आत्मा की विशुद्धि भी ध्यान से होती है । वह ध्यान पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत के भेद से चार प्रकार का होता है । पिण्डस्थ और पदस्थ ध्यान मुख्यत: चित्त की एकाग्रता के लिए हैं। एकाग्र चित्त ही शुद्ध हो पाता है। इसलिए पिण्डस्थ और पदस्थ ध्यान से चित्त को पहले एकाग्र बनाने का अभ्यास करें। इसके बाद रूपस्थ ध्यान में आनन्द आता है। तीर्थंकर केवली के समवशरण में गन्धकुटी पर विराजमान उन अरिहन्तों का ध्यान आत्म विशुद्धि में मुख्य कारण है । अष्ट महाप्रातिहार्य और अनन्त चतुष्टय से सहित उन अरिहन्तों का ध्यान एकाग्रता से करें । विहार काल में उन अरिहन्तों के चौंतीस अतिशयों का चिन्तन भी आत्म विशुद्धि में कारण है । रूपस्थ ध्यान की यही उत्कृष्ट अवस्था है । अरिहन्त सर्वविशुद्ध देहधारी आत्मा हैं, उनसे अधिक विशुद्धि किसी भी आत्मा में नहीं होती है इसलिए ध्यान का विषय उन्हें ही बनाना चाहिए। उनका ध्यान तभी होगा जब उनका श्रद्धान होगा। इसलिए जिसे सम्यग्दर्शन प्राप्त है उसकी दर्शन विशुद्धि उनके ध्यान से और अधिक होती है। जिसे सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं है उसे उनके ध्यान से ही सम्यक्त्व की प्राप्ति होगी । जब ध्यान