Book Title: Titthayara Bhavna
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Unknown

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Page 12
________________ होदु ण होदु य बंधो अप्पविसोही दु जायदे णियमा। ताए खलु णिजरणं णिज्जरणं मोक्खहेदु त्ति॥३॥ तीर्थंकर नामक इस विधि का बन्ध यहाँ हो या ना हो हमको आतम शुद्धि करना इसी लक्ष्य को ठाना हो। कर्म निर्जरा भव्य जीव को इस विधि निश्चित होती है यही निर्जरा धीरे-धीरे बीज मोक्ष का बोती है॥३॥ अन्वयार्थ : [बंधो ] बंध [ होदु] होवे [ण य होदु] अथवा नहीं होवे [अप्प विसोही ] आत्म विशुद्धि [दु] तो [णियमा जायदे] नियम से होती है [ताए] विशुद्धि से निश्चित ही [खल णिज्जरणं] कर्म निर्जरा होती है [णिज्जरणं] निर्जरा [इति ] इस प्रकार [ मोक्ख हेदु] मोक्ष की हेतु है। भावार्थ- दर्शन विशुद्धि आदि भावनाओं से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध केवली, श्रुत-केवली के पादमूल में होता है। वर्तमान में केवली, श्रुत-केवली भगवन्तों का अभाव है। इसलिए तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध नहीं होगा। दूसरी ओर आचार्य समन्तभद्र स्वामी के विषय में दक्षिण में एक शिलालेख पर लिखा है कि उन्होंने तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया, इस तरह अन्य अभिप्राय से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध भी स्वीकारा जाता है। यदि बात सही मानें तो, यह भी सिद्ध होगा कि आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध केवली, श्रुत-केवली के पादमूल के बिना ही कर लिया। ऐसी स्थिति में तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध हो, या न हो, हमें इस लोभ में नहीं पड़ना है। हाँ इतना निश्चित है कि इन भावनाओं से आत्मा में विशुद्धि अवश्य बढ़ती है। आत्म विशुद्धि से ही कर्म निर्जरा होती है। निर्जरा ही मोक्ष का हेतु है। इसलिए मोक्ष की इच्छा करने वाले भव्य प्राणी को आत्म विशुद्धि के मार्ग पर निरन्तर बढ़ना चाहिए। जो कोई किसी लालच से भावना करता है उसकी चित्त शुद्धि नहीं होती है। निरपेक्ष होकर भावना करना, निरपेक्ष होकर भक्ति करना ही मोक्ष के लिए कार्यकारी है। यदि कोई मुनि किसी लौकिक इच्छा से या परलोक की इच्छा से संयम ग्रहण करता है तो उसकी भी चित्त शुद्धि नहीं होती है। चित्त शुद्धि से ही आत्म विशुद्धि होती है क्योंकि कथंचित् चित्त, आत्मा एकार्थक हैं। चित् यानि चेतना। उस चेतना की ही परिणति चित्त है। बिना चित्त शुद्धि के आत्मा में बंधे हुए कर्म की निर्जरा नहीं होती है। आचार्य कुन्दकुन्द देव आश्चर्य प्रकट करते हुए प्रवचनसार में कहते हैं कि अविसुद्धस्स य चित्ते कहं णु कम्मक्खयो विहिओ।' अर्थात् अविशुद्ध चित्त में कर्म का क्षय कैसे हो सकता है ? इसलिए बिना किसी अपेक्षा से आत्मा की विशुद्धि के लिए श्रमण या श्रावक इन भावनाओं को निरन्तर भाए।

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