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भगवान महावीर का नाम था। यह नाम पड़ने का कारण जैन-ग्रंथों में यह बताया है कि जब से वह गर्भ में आये तब से धन की, बुद्धि की सब की वृद्धि होने लगी। इस कारण उनका नाम बर्द्धमान पड़ा ( देखिये, कल्पसूत्र सुबोधिका टीका-सहित, पत्र २०४)
पर शंकराचार्य ने विष्णुसहस्रनाम में जहाँ वर्द्धमान को विष्णु का एक नाम बताया गया है, वहाँ वर्द्धमान पर टीका करते लिखा है :
प्रपंच रूपेण वर्धते इति वर्धमानः -प्रपंचरूप से बढ़ाते हैं इसलिए वर्धमान हैं। -विष्णुसहस्र नाम (सटीक, गीता प्रेस, गोरखपुर ) पृष्ठ १२८ । ब्राह्मण-ग्रंथों में केवल ऐसी टीका की ही विकृति नहीं हुई। मूल-ग्रंथों में भी जैन-धर्म के सम्बन्ध में निन्दात्मक बातें जोड़ी गयीं। ऐसे प्रसंग विष्णुपुराण, मत्स्यपुराण, अग्निपुराण, वायुपुराण, शिवपुराण, पद्मपुराण, स्कंदपुराण, भागवत, और कूर्मपुराण में भरे पड़े हैं। ऐसे प्रसंगों का उल्लेख करते हुए पाजिटर ने अपनी पुस्तक 'ऐशेंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रैडिशन." में (पृष्ठ २६१) लिखा है :___ "जरासंध द' किग आव मगध.. इज स्टिमटाइज्ड ऐज ऐन असुर ऐंड द' बुद्धिस्ट ऐंड जैस आर ट्रीटेड ऐज असुराज ऐंड दैत्याज...
-मगध के महान् राजा जरासंध को असुर बताया गया है....और बौद्ध और जैन असुर और दैत्य के रूप में वर्णित हैं।
पर, इतने के बावजूद जैन-धर्म की सर्वथा उपेक्षा नहीं हो सकी। तैत्तिरीय आरण्यक के १०-वें प्रपाठक के अनुवाक ६३ में सायणाचार्य को भी लिखना पड़ा___ कंथा कौपीनोत्तरा संगादीनां त्यागिनो यथाजात रूपधरा निर्गन्थाः निष्परिग्रहाः॥ -अर्थात् शीत निवारण कंथा, कौपीन उत्तरासंगादिकों के त्यागी
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