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व्यवस्था दी कि साधु न तो आधाकर्मी (मुनियों के लिए बना कर लाया गया आहार) ग्रहण कर सकते हैं और न राजपिंड ।
अब प्रश्न था कि उस भोजन-सामग्री का क्या हो ? इन्द्र ने भरत को परामर्श दिया कि यह भोजन विशेष गुण वाले पुरुषों को दे दो। भरत को ध्यान आया कि विरत और अविरत श्रावक इनके अधिकारी है। अतः भोजन उन्हें दे दिया गया । भरत ने श्रावकों को बुला कर कहा"आप लोग खेती आदि कुछ न करें, राजमहल में ही भोजन किया करें, स्वाध्याय किया करें और कहते रहें :
जितो भवान् वर्धते भयं तस्मान्माहन माहनेति ।
द्वार पर बैठकर खानेवालों की संख्या दिन-दिन बढ़ती गयी। रसोई के मुखिया ने आकर महाराज से विनती की कि आजकल भोजन करने वालों की संख्या दिन-दिन बढ़ती जा रही है। इसलिए जानना कठीन है कि कौन श्रावक है, कौन नहीं ? इस पर भरत महाराज ने कहा-"तुम भी 'श्राधक हो ! आज से तुम परीक्षा कर के भोजन दिया करो।" आज्ञा पाकर सरदार ने उनकी परीक्षा करनी और श्रावक-धर्म के सम्बन्ध में प्रश्न पूछने शुरू किये। जिनको उन्होंने ठीक समझा, उन्हें वे भरत के पास ले गये । भरत ने काकणी-रत्न से तीन रेखा का चिह्न कर दिया। ये सर्व श्रावक जो 'माहन' "माहन' का उच्चारण करते थे, बाद में ब्राह्मण के नाम से विख्यात हुए।
ओरियंटल इंस्टीट्यूट बड़ौदा से प्रकाशित त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र (भाग १, पृष्ठ ३४४ ) के अंग्रेजी अनुवाद में मिस हेलेन एम. जानसन ने काकिणी का अर्थ कौड़ी किया है। यह उनकी भूल है। काकिणी चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में एक है—कौड़ी नहीं है।
नवें तीर्थंकर का काल आते-आते इन ब्राह्मणों ने त्याग-धर्म को पूर्णतः परित्यक्त कर दिया और इसके बावजूद नवें और दसवें तीर्थंकरों के बीच के काल में इनकी पूजा होने लगी। इसे जैन-ग्रंथों में असंयति-पूजा नामक आश्चर्य माना जाता है।
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