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-- निरन्तर विषय भोगों की अभिलाषा के कारण अपने वास्तविक श्रेय से चिरकाल तक बेसुध हुए लोगों को जिन्होंने करुणावश निर्भय आत्मलोक का उपदेश दिया और जो स्वयं निरन्तर अनुभव होने वाले आत्मस्वरूप की प्राप्ति से सब प्रकार की तृष्णाओं से मुक्त थे, उन भगवान् ऋषभदेव को नमस्कार है ।
ऋषभदेव भगवान् का उल्लेख वेदों में भी है । वैदिक यन्त्रालय, अजमेर से प्रकाशित ॠग्वेद संहिता (वि. सं. २०१० ) में (पृष्ठ १४४ ) मं. १, सू. १९०, मंत्र १; (पृष्ठ १७५) २-३३ - १५; (पृष्ठ २६३ ) ५-२८-४; ( पृष्ठ ३३७) ६-१-८ ( पृष्ठ ३५३) ६-१९-११ तथा ( पृष्ठ ७७५ ) १०- १६६-१ आदि मन्त्रों में ऋषभदेव भगवान् के उल्लेख आये हैं । यजुर्वेद संहिता ( वैदिक यंत्रालय, वि . २००७) पृष्ठ ३१ में मन्त्र ३६, ३८ में तथा अथर्ववेद ( वैदिक यंत्रालय, वि. सं. २०१५ ) पृष्ठ ३५६ मंत्र ४२-४ में भी वृषभदेव भगवान् का उल्लेख है ।
इनके अतिरिक्त कूर्मपुराण अ० ४१ (पृष्ठ ६१ ) अग्निपुराण अ० १० ( पृष्ठ ६२), वायुपुराण पूर्वार्द्ध अ० ३३ ( पृष्ठ ५१ ) गरुड़पुराण अ० १ ( पृष्ठ १ ) ; मारकंडेय पुराण ( आर्यमहिला हितकारिणी, वाराणसी, खंड २, पृष्ठ २३०, पाजिटर - अनूदित पृष्ठ २७४ ); ब्रह्माण्ड पुराण पूर्वार्द्ध अध्याय १४ ( पृष्ठ २४ ); वाराहपुराण अ० ७४ ( पृष्ठ ४९), शिवपुराण तृतीय शतक रुद्र - अध्याय ४, पृष्ठ २४६, लिंग पुराण अ० ४७, ( पृष्ठ ६८ ) ; विष्णुपुराण अंश २, अ० १, (पृष्ठ ७७ ) ; स्कंदपुराण कौमार खंड अ० ३७ (पृष्ठ १४८) आदि स्थलों में भी ऋषभदेव भगवानु के उल्लेख आये हैं ।
पर, ब्राह्मण-साहित्य में जैन तीर्थंकरों के ऐसे आदर और अवतारसूचक उल्लेखों के बावजूद, ब्राह्मएा-धर्म ने जैन-धर्म की, बाद में न केवल पूरी उपेक्षा की ; बल्कि उसके प्रति अवाच्य वचन भी कहना प्रारंभ किया ।
इसका कारण यह था कि जैन-धर्म अपने विचारों पर स्थिर रहा और ब्राह्मणों को उसने किंचित् मात्र महत्ता नहीं दी । उनकी मान्यता सदा से
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