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तत्त्ववेत्ता
__पूज्य पंन्यासजी महाराज के इस आदेश को सुनकर उन्हें एक महान् धक्कासा लगा । वे एक प्रस्तर मूर्ति की भांति मूक हो पंन्यासजी की सभी बातें चूपचाप सुनते रहे । उनके मुंह से ऊत्तर रूप "हाँ" या "ना" तक का निकलना असम्भव सा हो गया । पुत्र का प्रेम ही तो ठहरा । पुत्र जैसी अनमोल वस्तु क्या देने-लेने की है ? माता पुत्र के प्रेम में सनी है उसे क्या उत्तर दूंगा ? आदि अनेक विचारों में अखेचंदजी लीन हो गये।
अखेचंदजी की यह दशा देख पंन्यासजी महाराज से न रहा गया । अन्त में स्वयंने ही मौन भंग कर अखेचंदजी को उपदेश देना प्रारम्भ किया । आपने अनेक भाँति भाँति से वैराग्य, लोभ, मोह, माया आदि सम्बन्धी प्रवचन दिये, जिसका असर अखेचंदजी पर कुछ हुआ। इस सफलता को देख पंन्यासजी के हर्ष का ठीकाना न रहा । आपने अखेचंदजी को विश्वास दिलाया कि मैं हीराचंद को एक सच्चे हीरे के रूप में संसार के समक्ष रखूगा । जो अपना तो क्या अनेक जीवो के कल्याण के मार्ग का अगुआ होगा । तुम इस शुभ कार्य में बाधक न बनो, अन्यथा यह पञ्चभौतिक का शरीर यो हीराख में मिल मिट्टी बन जायगी। इस लिये उसके जीवन को सफल बनाने में सहयोग दो ।
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