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तत्ववेचा
रागी युवक ने आकर दीक्षा लेने की आकांक्षा प्रकट की । प्रथम तो आपने उसे बहुत समझाया, साधु जीवन की कठिनाईयों ने परिचय कराया । पर उसके दृढ होने से उसे अपने पास छ मास रखने के पश्चात् संवत् १९३० के वैशाख शुक्ला तृतीया अर्थात् अक्षयतृतीया के शुभ दिवस में दक्षिाप्रदान की । उस दिन आपने अपने नवदीक्षित शिष्य का नाम चतुरविजय रखा।
गणिपद और पंन्यासपद अब आपकी भावना अमदावाद से प्रस्थान करने की हुई। पर संघ को मालूम होते ही गुरुदेव को एक चातुर्मास और करने की प्रार्थना की। श्री संघ के अधिक आग्रह पर हितविजयजी महाराज को विवश होकर एक चातुर्मास और करना ही पडा । संवत् १९३१ के चातुर्मास का ठाठ पाठ तो गत चातुर्मासों से कई गुणा अधिक रहा । इस चातुर्मास में पूजा, प्रभावना, स्वामीवात्सल्य आदि का अनोखा आनन्द रहा । जनताने धर्मकरणी में भी खुब भाग लिया। शान्ति पूर्वक यह भी चातुर्मास सम्पूर्ण होगया ।
इस समय पूज्य पंन्यासजी श्री उम्मेदविजयजी अभी अमदावाद में ही बिराज रहे थे । और आप का भी यहीं
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