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ફોન : ૦૨૭૮-૨૪૨૫૩૨૨
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YANNANÁNतत्त्ववेत्ता
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हित सत्क ज्ञान मंदि: पाणगव
100
श्री हित सत्क ज्ञान मंदिर घाणेराव का द्रश्य
पुखराज शर्मा
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8888888888888888888 श्री हितविजय जैन ग्रन्थमाला पुष्प नं. १९
॥ ॐ नमः सिद्धं ॥
तत्त्ववेत्ता
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-
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: लेखक शिक्षक पुखराज शर्मा
: संशोधक : मेवाडकेसरी श्रानाकाडातथिाद्धारक पूज्य गुरुदेव श्रीमद्विजय हिमाचलसूरीश्वरजी महाराज के शिष्यमुमुक्षु भव्यानन्दविजय "व्या. साहित्यरत्न"
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:प्रकाशक: श्री हित सत्क ज्ञानमंदिर
घाणेराव (मारवाड) वाया फालना वीर संवत २४८० प्रथमावृत्ति इस्वीसन् १९५४ विक्रम संवत् २०१० १००० हीरस्वर्ग सं. ३५८
मूल्य पठन-पाठन
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प्रकाशक तथा
प्राप्तिस्थान
: मुद्रक : आनंद प्रीन्टींग प्रेस
भावनगर.
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समर्पण
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गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदं । मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा ||
ह" तत्त्ववेत्ता ” नामक पुस्तिका मैं उन सद्गुरुदेव परमपूज्य प्रातःस्मरणीय पतितपावन तरणतारणहार मेवाडकेसरी श्री नाकोडा तीर्थोद्धारक श्रीमद्विजयहिमाचल
सूरीश्वरजी महाराज के चरणों में सादर समर्पण करता हूँ । जिन्हों ने कि मुझे अपने जीवन का
सदुपयोग करने का
सच्चा ज्ञान देकर कृतार्थ किया ।
आशा है कि गुरुदेव मेरी इस तुच्छ भेट को
स्वीकार कर मुझे अनुग्रहित करेगें ।
शिवगंज
११-३-५४
आपका चरणकिंकर
पुखराज शर्मा
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प्राक् कथन ___सर्व प्रथम मैं उस परमेश्वर परमात्मा को सादर नमस्कार करके अपने पूज्य आदरणीय गुरुदेव श्रीमद्विजयहिमाचलसूरीश्वरजी महाराज को सविधि वंदना करते हुए उनका आभार मानता हूं जिन्होंने मुझे इस कार्य के लिये उत्साहित किया।
पाठकमहोदय !
मैं न तो कोई लेखक हूं और न कोई इतिहासकार ही। पर गुरुकृपा से मैने जो कुछ मी लिख कर आप लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया है वह आपके समक्ष ही है। जब मैंने यह कार्य प्रारंभ किया उस समय प्रथम तो कुछ हिचका पर गुरुदेव के आशीर्वाद और उनके सुयोग्य शिष्य मुमुक्षु श्री भव्यानन्दविजयजी ने मुझे उत्साहित कर इस जीवनी को लिखने के लिये विवश किया। मैं भी उनका आग्रह कैसे टाल सकता था ?
इस कार्य में मैं प्रवर्तक श्री गुमानविजयजी महाराज तथा मुमुक्षु श्री भव्यानन्दविजयजी व्या. साहित्यरत्न का महान आभारी हूं जिन्होंने कि इस 'तत्त्ववेत्ता' सम्बन्धी सारा मेटर-साहित्य मुझे खोज खोज कर दिया । तथापि मानव त्रुटी का पात्र होता है । अतः इस पुस्तक में भी कई त्रुटियां का होना सम्भव है । आशा है पाठकगण इसे आदि से अन्त तक पढ़कर मुझे इसकी त्रुटियें दर्शाने का कष्ट करेंगे तो मैं उनका बडा कृतज्ञ होउंगा । और भविष्य में उन त्रुटियों को सुधारने का प्रयत्न कर फिर कुछ इसी प्रकार की सेवा करने का साहस कर सकुंगा ।
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ndar-Umara. Surat
**** Xx
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55
557
पंन्यासजी श्री हितविजयजी महाराज.
आ. श्री विजयहिमाचलसूरिजी .
प्र. श्री गुमानविजयजी.
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मैं पण्डित कृष्णदेव शास्त्री ( विहारी ) तथा वैद्य बालकदासजी संत देसुरीका भी आभारी हूं जिन्होंने कि मुझे इस कार्य में काफी मदद देकर इस कार्य को सम्पूर्ण कराया ।
अन्त में मैं अपनी त्रुटियों के लिये क्षमा-याचना करते हुए सर्व पाठकों से निवेदन करता हूं कि एक बार अवश्य ही इस तुच्छ सेवक कृत " तत्त्ववेत्ता " को पढकर अपने जीवन के काले मन को धोने के लिये इसका साबूनरूप में प्रयोग कर जीवन शुद्ध बनावें । जय भारत ! ! !
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शिवगंज ११-३-१९५४
आपका
पुखराज शर्मा
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दो चार शब्द
ऐसे तो अर्वाचीनों की जीवनी असंख्यात दृष्टिगोचर होती ही है, पर प्रस्तुत जीवनी का अध्ययन व मनन से जितना अगाध गूढतम विषयों का अनुभव होना सम्भव है, उतना शायद ही दूसरी जीवनी की पर्यालोचना से सम्भव हो । महामना पंन्यास श्री हितविजयजी महाराज साहब एक अलौकिक व्यक्तियों में से एक थे । आपके पवित्र विशाल हृदय में जितनी दयालुता, गम्भीरता, व उदारता थी । उसका अनेकों उल्लेख किया जाय तो भी अल्प ही मानना पडेगा । आपका अमूल्य समय ज्ञानाभ्यास के साथ योगाभ्यास में ही सार्थक हुआ है । आपने योगदर्शन आदि शास्त्रों का अध्ययन ही नहीं बल्कि तत्तद् विषयों का मननपूर्वक सच्चे परिणामों को पाकर महान् आदर्श पथ को दर्शाया है । आप की जैनागमरहस्यवेदिता तो ऐसी ही थी कि - आपश्री के करकमलों द्वारा दीक्षा पा परम विभूति के प्रसाद से सुप्रसिद्ध सागरानन्दसूरीश्वरजी महाराज जैनागमों का उद्धारपूर्वक पूज्यश्री का सार्वदिक आभारी रहे है । आपकी जीवन - घटना को पढ़
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-सुनकर सरल हृदय पिघल जाय तो आश्चर्य ही क्या ? पाषाणमय हृदय का भी पिघलकर मोम बनना अस्वाभाविक ही है । आपकी जीवनी कितनी अद्भूत घटना से संघटित है वह प्रस्तुत जीवनी का पठन-पाठन, श्रवण - मनन आदि द्वारा ही अवगत हो सकेगा । महामना पूज्यश्री की जीवनी के सम्बन्ध में बहुत छान बीनकर लेखक महानुभावने अपने सम्यक्त्व का परिचय दिया है । तदर्थ वह महान् प्रशस्य के साथ महा आदरणीय भी है । लेखक के परिचय में—शर्माजी श्रीमाली ब्राह्मण है । आप का अभ्यास हिन्दी साहित्य के साथ अंग्रेजी का भी है । आप बहुत वर्षों से अध्यापन कार्य के साथ गोमाता व जनता की सेवा में आन्तरिक हृदय से दक्ष रहा करते है । आप की लेखनशैली में प्रस्तुत लेख पूर्णतः परिचायक होगा । शर्माजी द्वारा लिखित " तत्त्ववेत्ता " को पढ कर मुझे अमन्दानन्द - संदोह में डूब कर कुछ लिखना ही पडा । पाठक गण ! • अवश्य पढ कर लाभ उठावें ।
पं. कृष्णदेव शास्त्री न्या. व्या० आचार्य ( विहारी )
आ
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द्रव्य सहायक भाईयों की शुभ नामावली
१०१) श्री देवकरण गोकलदासजी देसाई धोराजी (सौराष्ट्र) १०१) श्री कपूरचंद आईदानजी लुणीया तखतगढ (मारवाड)
(पेढी-झंझीरा-मरुर-जी. कुलाबा) ५१) श्री कपूरचंद भगवानजी महेता
जामकंडोरणा (सौराष्ट्र) ५१) त्रिभुवनदास भगवानजी महेता जामकंडोरणा ५१) स्वर्गस्थ जेठालाल पुरुषोत्तम तथा
लक्ष्मीचंद पुरुषोत्तम के स्मरणार्थेश्री ओधवजी पुरुषोत्तमजी महेता कालावाड( सौ.) (पेढी मम्बासा-केनिया पो. बो. १०२८)
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तत्त्ववेत्ता
रूपरेखा संसारचक्र अनादिकाल से ही चला आ रहा है । इस चक्र की तीक्ष्ण धारों के असंख्य मानव, पशु, पक्षी आदि ग्रास बन गये । जिनका कि आज इस संसार के समक्ष नामो निशान तक न रहा।
प्रत्येक प्राणी का जन्म मरण के हेतु ही होता है। पर जीवन उनका ही सार्थक है जिन्होंने कि अपने जीवन को
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तत्त्ववेत्ता देश, धर्म और समाज की बलीवेदी पर अपना कर्तव्य समझ कर हँसते-हँसते न्योछावर कर दिया। संसार उनका यशोगान आज तक मुक्त कंठ से करता आया है और भविष्य में भी करता रहेगा । उन उदार एवं पवित्र आत्माओं का नाम मात्र ही कालचक्र की धारों से बच पाया है और कोई भी नहीं।
भारत की पवित्र भूमि में महान् आत्माओं का आगमन हुआ, और उन्होंने भारतभूमि को सदा ही अपने किये हुए करतबों द्वारा पवित्र बनाई । इसी प्रकार भारत का राजस्थान प्रांत भी सदा ही वीरता, त्याग-तपस्या और उदारता में आगे रहता आया है । इस प्रान्त में अनेक भक्तों का जन्म हुआ
और प्रभुभक्ति में अपना जीवन व्यतीत कर अपने जीवन को सफल बनाया। ___ भारत का तो क्या बल्कि सम्भव है कि विश्व का प्रत्येक मनुष्य भक्त मीराबाई का नाम जानता ही होगा। जिसने अद्भुत भक्ति की धारा में बह कर अपने जीवन के कालेपन को धोकर उसे पवित्र बनाने का प्रयत्न कर मोक्षप्राप्ति का साधन बनाया । मीराबाई राजस्थान के मेडता नामक स्थान में जन्म पाकर उस छोटे से शहर को विश्वख्याति प्राप्त करा गई। धन्य है उस पवित्र आत्मा को तथा उस भूमि को कि
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रूपरेखा
जिसने ऐसे रत्नों को पैदा कर भारत का नाम उज्वल किया?
पाठक गण ! आज हम जिस महान् आत्मा का गुणानुवाद करने जा रहे है वे भी उन्हीं उदार आत्माओं में से एक थे । जिन्होंने कि अपना अमूल्य जीवन धर्म के नाम पर न्योछावरकर अपना नाम अमर कर गये । धन्य है उन उदार पवित्र आत्माओं को और धन्य है उनके माता-पिता को जिन्होंने कि अपने हृदय में मोह को तनिक भी स्थान न देकर पुत्र जैसे अनमोल रत्न को सच्चा रत्न बनने का सुअवसर दिया । जिससे वे अपनाही नहीं बल्कि संसार के किचड में फँसनेवाले अनेक प्राणियों के लिये भक्तिमार्ग द्वारा रास्ता साफ कर उन्हें पवित्र जीवन बनाने का सुन्दर पवित्र और सुदृढ रास्ता बता गये ।
परिचय और जन्म
: ३ :
परमपूज्य प्रातःस्मरणीय जगद्गुरुदेव शासनसम्राट् तपागच्छगगनदिवाकर श्रीमद्विजयहीरसूरीश्वरजी महाराज, जिन्होंने कि मुगलसम्राट् बादशाह अकबर जैसे एक कट्टर विधर्मी को सच्चे अहिंसा धर्म का उपदेश देकर उसे सुपथ का राही बनाया । जिसे आज भी इतिहास डंके की चोट पुकार पुकार कर कहता चला आरहा है । पूज्य पंन्यासजी श्री
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: ४ :
वववेत्ता
हितविजयजी जो कि चरित्रनायक आपके पट्टपरम्परा में १३ ( तेरह ) वें पट्टधर शिष्य थे । सच है रत्नों की खान से तो रत्न ही निकलते हैं ।
आपका जन्म मारवाड ( राजस्थान ) के सुप्रसिद्ध मेडता शहर में संवत् १८९९ के कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा जैसे पवित्र दिन में हुआ था। आप जाति के पुष्करणा त्राह्मण थे | आपके पिताका नाम अखेचंदजी (अक्षय चंद्र) और माता का नाम लक्ष्मीबाई था । आप दो भाई थे । जिनमें आप बडे थे । आपका नाम हीराचंद और छोटे भाई का नाम बालचंद था। आप वास्तव में आगे जाकर सच्चे हीरे के रूप में संसार के समक्ष चमके । नाव को खेनेवाला केवट स्वयं की रक्षा का ध्यान न रखकर नाव में बैठे हुए यात्रियों का अधिक ध्यान रखता है । इसी प्रकार हीराचंदजीने भी केवल अपने नामको ही सार्थक न बनाकर अपने पिता अखेचंदजी के नामको वास्तव में अक्षयचंद बना ही दिया । जो कि वहीं चंद्र अभी तक अपनी ज्योति संसार के समक्ष चमका रहा है।
आपका बाल्यकाल बडे लालनपालन से बीता । कुछ बडे होने के बाद आपकी प्राथमिक शिक्षा प्रारम्भ की गई । उस समय पाठशाला का उचित प्रबन्ध न होने से आपकी शिक्षा पोशाल (व्यक्तिगत पाठशाला) में ही हुई । पिता की
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परिचय और जन्म
स्थिति साधारण होने से आप विद्याभ्यास अधिक न कर सकें। अतः पोशाल की शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् आप अपने पिता के पास ही ज्योतिष, गणितशास्त्र, पूजा पाठ और कर्मकांड का अभ्यास करने लगे। साथ साथ पिताजी के निजी कार्य में भी हाथ बटाने लगे । जिस समय आपने पोशाल की विद्या समाप्त की, उस समय आपकी आयु केवल १० वर्ष की थी । १२ वर्ष की आयू में तो आप गृहस्थ धर्म के अच्छे जानकार हो गये
और अपने पिता के पूजा-पाठ के काम को पूर्ण संभाल लिया । ब्राह्मण होने के नाते आपके पिता की आजीविका का यही एक मात्र साधन था । पूजापाठ के साथ साथ ज्योतिषशास्त्र में भी कुशल हो गये। पुत्र को अल्पायू में ही इस प्रकार बढा-चढा देख श्री अखेचंदजी तथा लक्ष्मीबाई दोनों ही बडे प्रसन्न होते थे । घर के तो क्या गांववाले भी बालक की चातुरी पर मुग्ध थे । प्रत्येक व्यक्ति दांतो तले अंगूली दबाकर यही कहता था कि इस छोटी आयू में ही बालक कितना कुशल होगया ? रेत में से ही रत्न निकलते है । किसीने सच ही तो कहा है कि " पूतरा पग पालने दिसे" वास्तव में यही कहावत आगे जा चरितार्थ हुई।
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तत्त्ववेचा
गुरुदेव को भेट बाल्यावस्था में ही आप एक बार अपने पूज्य पिताश्री अखेचंदजी के साथ अपने नीजी कार्य के लिये उदयपुर गये । वहां जाने पर अखेचदजी को ज्ञात हुआ कि यहां पर पूज्य पंन्यासजी श्री चन्द्रविजयजी महाराज बिराज रहे है। श्री चंद्रविजयजी महाराज जन्म से अखेचंदजी की जाति के अर्थात् पुष्करणा ब्राह्मण थे । जोधपुर के निवासी और अखेचंदजी के गृहस्थ धर्म के नाते निकटस्थ सम्बन्धी भी थे । बचपन से ही दोनों में बड़ा प्रेम था, अतः आप को यह मालूम होते ही आप अपने पुत्र हीराचंद को सायले पंन्यासजी महाराज से मिलने गये । वहाँ पहुंचकर पिता पुत्रने श्री पंन्यासजी को बडी श्रद्धा से वंदना की । सुखसाता पूछने के पश्चात् अखेचंदजीने अपने पुत्र का पंन्यासजी महाराज को परिचय कराया । पंन्यासजी भी उन्हें देख बडे प्रसन्न हुए। साथ ही उन्हें जहाँ तक उदयपुर रहें वहाँ तक सदा ही व्याख्यान में आने का आदेश भी दिया।
__ अखेचंदजी पूज्य पंन्यासजी की आज्ञानुसार सदा ही व्याख्यान में जाने लगे । व्याख्यान सुनने का शौक हीराचंद को भी बढा । वह कभी भी व्याख्यान समय को न गुमाता । जब व्याख्यान चलता उस समय हीराचंद
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गुरुदेव को भेट
: ७:
व्याख्यान में दत्तचित्त हो जाता । यहां तक कि उसे व्याख्यान के समय अपने तन का भी ध्यान नहीं रहता।
चांद बादलो में भी अपना अस्तित्व दिखाये विना नहीं रहता । और हीरा धूल में भी चमके विना नहीं रह सकता । ठीक वैसे ही हीराचंद का प्रभाव वहाँ के जन समुदाय पर अच्छा पडा । पंन्यासजी महाराज हाराचंद की प्रवृत्ति को रोज व्याख्यान के समय देखा करते थे। उसकी धर्मप्रवृत्ति पर वे मुग्ध हो गये । अतः वह उनकी आंखो में समा ही गया। उन्हें यह निश्चय हो गया कि यह बालक भविष्य में एक हीरे की तरह अवश्य चमकेगा । अतः यथासम्भव इस हीरे को हाथ से खोना न चाहिये, यह बात पंन्यासजी के हृदय में पूर्णरूपेण समा गई।
एक दिन मौका देख कर मुनिराजने अखेचंदजी को अपने मन की बात कह ही दी। उन्होंने प्रेमपूर्वक उन से याचना की कि 'हीराचंद' को मुझे दे दो। मैं इसे संसार के समक्ष उदाहरणरूप में प्रस्तुत करुंगा । तुम भी ऐसे सुअवसर को न जाने दो और मेरी इस याचना पर विचार कर हीराचंद के भविष्य को उज्वल बनाने में पूरा सहयोग दो । आशा है आप मेरी याचना को अवश्य ही स्वीकार कर त्याग का एक अद्भूत उदाहरण उपस्थित करोगें।
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तत्त्ववेत्ता
__पूज्य पंन्यासजी महाराज के इस आदेश को सुनकर उन्हें एक महान् धक्कासा लगा । वे एक प्रस्तर मूर्ति की भांति मूक हो पंन्यासजी की सभी बातें चूपचाप सुनते रहे । उनके मुंह से ऊत्तर रूप "हाँ" या "ना" तक का निकलना असम्भव सा हो गया । पुत्र का प्रेम ही तो ठहरा । पुत्र जैसी अनमोल वस्तु क्या देने-लेने की है ? माता पुत्र के प्रेम में सनी है उसे क्या उत्तर दूंगा ? आदि अनेक विचारों में अखेचंदजी लीन हो गये।
अखेचंदजी की यह दशा देख पंन्यासजी महाराज से न रहा गया । अन्त में स्वयंने ही मौन भंग कर अखेचंदजी को उपदेश देना प्रारम्भ किया । आपने अनेक भाँति भाँति से वैराग्य, लोभ, मोह, माया आदि सम्बन्धी प्रवचन दिये, जिसका असर अखेचंदजी पर कुछ हुआ। इस सफलता को देख पंन्यासजी के हर्ष का ठीकाना न रहा । आपने अखेचंदजी को विश्वास दिलाया कि मैं हीराचंद को एक सच्चे हीरे के रूप में संसार के समक्ष रखूगा । जो अपना तो क्या अनेक जीवो के कल्याण के मार्ग का अगुआ होगा । तुम इस शुभ कार्य में बाधक न बनो, अन्यथा यह पञ्चभौतिक का शरीर यो हीराख में मिल मिट्टी बन जायगी। इस लिये उसके जीवन को सफल बनाने में सहयोग दो ।
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गुरुदेव को मेट
इस प्रकार पंन्यासजी महाराज के उपदेशों का असर अखेचंदजी पर गहरा पडा । आखिर वे भी तो मानव ही ठहरे न ? दूसरी और अपने आपसी-प्रेम के वशीभूत हो उनकी नेक सलाह का सत्कार करना ही पडा।
शुभ कार्य में हमेशां विलम्ब और बाधायें आया ही करती है पर चतुर नर अपनी चातुरी के द्वारा उनसे बच निकलते है । "मुबह का भूला-भटका शाम को घर आजाय तो भूला नही कहा जाता," अखेचंदजी प्रथम
तो बडे ही दुःखी हुए थे, पर अन्त में उन्होंने खूब सोच• समझकर पूज्य पंन्यासजी महाराज को भेट देने की स्वीकृति दे ही दी।
दूसरे दिन प्रातः व्याख्यान के समय पूज्य पंन्यासजी महाराजने श्री उदयपुर श्रीसंघ के समक्ष प्रकट रूप से पुनः हीराचंद की मांग की, और अखेचंदजीने बडी प्रसन्नतापूर्वक खडे होकर श्री संघ के समक्ष पूज्य पंन्यासजी श्री चन्द्रविजयजी को हीराचंद बहोरा दिया। इस शुभ कार्य का प्रभाव उदयपुर जैन संघ के ऊपर ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण जनता पर गहरा पडा । स्थान स्थान पर गुरुभाक्त और त्याग की मुक्त कंठ से प्रशंसा होने लगी। शहर के लोग अखेचंदजी जैसे गुरुभक्त और त्यागी के दर्शन की भीड
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: १० :
तत्ववेत्ता
बडा ही आदर
लगाने लगे। जहां भी वे जाते उनका सत्कार होने लगता । धन्य धन्य शब्द गूंजने लगते । जो वास्तव में उचित भी थे ।
माता की उदासीनता
कुछ दिन और ठहर कर अखेचंदजीने उदयपुर से बिदा ली | पंन्यासजी महाराज से मांगलिक सुन उन्होंने वहाँसे प्रस्थान किया । बडे आनंद और हर्ष के साथ आप मेडता आये । घर में प्रवेश करते ही घरवाली लक्ष्मीबाई अर्थात् हीराचंद की माताने हीराचंद को न देख पति से हीराचंद के लिये प्रश्न किया । उत्तर में अखेचंदने सारी कहानी कह सुनाई । स्त्रीजाति के स्वभाव के नाते उन्हें पुत्र का बिछुडना बहुत अखरा । कुछ रोई पीटी भी और उदासीन रहने लगी । अखेचंदजीने उसे तरह तरह से समझाई । अन्त में उसे भी शासनदेव की कृपा से सद्बुद्धि आई और अपने पति के द्वारा किये गये कार्य की स्वयं प्रशंसा करने लगी । धन्य है ऐसी सौभाग्यशाली माता को तथा पतिव्रता पत्नी को कि जिसने पति के द्वारा ऐसे कठिन कार्य किये जाने पर भी सहन कर एक सच्चा उदाहरण स्त्रीजाति के समक्ष रखा ।
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दीक्षा की तैय्यारी
: ११ : ___दीक्षा की तैय्यारी __ अखेचंदजी के प्रस्थान के कुछ समय बाद पूज्य पंन्यासजी महाराजने हीराचंदजी को दीक्षा देने का विचार श्रीसंघ के समक्ष प्रगट कीया। श्रीसंघने पंन्यासजी महाराज की आज्ञा शिरोधार्य की, और शुभ मुहूर्त निश्चित होने पर श्री संघने दीक्षा की शानदार तैय्यारी करना प्रारम्भ की। श्री संघने बडी ही श्रद्धा एवं भक्ति और उत्साह से इस शुभ उत्सव को सफल बनाने का भरचक प्रयत्न कीया । और अन्तमें उनका परिश्रम वास्तव में सफल रहा।
शुभ संवत् १९१३ के मार्गशीर्ष की पूर्णिमा जैसे पवित्र दिन के शुभ मुहूर्त में हीराचंद को उदयपुर के सुप्रसिद्ध चौगान के मंदिर के पासवाले सिद्धवट वृक्ष के नाचे उदयपुर के हजारों नगरनिवासीयों तथा श्रीसंघ के समक्ष पंन्यासजी श्री चन्द्रविजयजी महाराजने दीक्षा दी। दीक्षा का उत्सव प्रशंसनीय था । उस दिन से हीराचंद का नाम “हितविजय" नामक साधु के रूप में परिवर्तन होगया। और जनता उनके सामने नत मस्तक होने लगी। उसी दिन से वे गृहस्थियों के गुरु रूप में तथा धर्म के पथ-प्रदर्शक के रूप में गिने जाने लगे।
शनैः शनैः हितविजयजी महाराजने अपना अध्ययन और
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: १२ :
तत्ववेत्ता
भी बढ़ाया। साधु होने के पश्चात् आप थोडे ही समय में ज्ञान ध्यान क्रिया-काण्ड आदि में काफि उन्नत होगये । साथही साथ आपने गुरुभक्ति का अटल और कल्याणकारी मार्ग भी श्रद्धापूर्वक अपनाया। जिस से अल्प कालमें ही ऐसी भक्ति देख लोग दाँतो तले अंगूली दबाने लगे। __ कुछ समय पश्चात पंन्यासजी श्री चन्द्रविजयजी अपने सुयोग्य शिष्य हितविजयजी के साथ विहारी बनें । गाँव गाँव घूमते ग्रामिण जनता को धर्मदेशना देते प्रभुभक्ति का पाठ पढाते पढाते आप अमदावाद पहुंच गये। अमदावाद की जनताने आपका बड़ा स्वागत किया। साथ ही आपको अमदावाद के सुप्रसिद्ध वीरविजयजी के उपाश्रय में ठहराया गया। यहाँ भी नित्य धर्म-देशना प्रारम्भ हुई। व्याख्यान में हजारों की भीड होने लगी।
आगम अध्ययन
बालमुनि गुरुभक्त श्री हितविजयजी को क्रिया-काण्ड में तथा गुरुभक्ति में लीन देख उनकी प्रशंसा होने लगी। उनके विद्याभ्यास की रुचि को देख श्री संघने पूज्य पंन्यासजी महाराज से प्रार्थना की कि आप हितविजयजी को धर्मकार्य में पारंगत के साथ आगम का अध्ययन
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आगम अध्ययन
करवा दीजिये । हम इनके वास्ते विद्याभ्यास सम्बन्धी प्रत्येक सुविधा कर देगें। अँधा क्या चाहता है ? केवल दो आँखें ! पंन्यासजी भी तो यही चाहते थे कि मेरा शिष्य खूब विद्या पढ़ें । और फिर संघ की ऐसी सहायता से तो सोने में सुगंधवाली बात हो गई । आपने शीघ्र ही विशेष रूप से हितविजयजी का विद्याभ्यास प्रारम्भ कर दिया ।
बालमुनि श्री हितविजयजी अपने गुरुदेवकी आज्ञानुसार बडी लग्न से आगम ग्रन्थों का अध्ययन करने लगे । उन्हें इस कार्य में बड़ा ही आनंद आने लगा । विद्यार्थी की बढ़ती हुई रूचि से शिक्षक को भी आनन्द अनुभव होने लगता है, अतः आपके शिक्षक रूप में पू. श्री जवेरसागरजी महाराज जो कि आप को आगम ग्रन्थ पढा रहे थे। उन्हें भी शिक्षार्थी की रुचि पर बडा आनन्द आया। हितविजयजी की तीव्र बुद्धि पर तो बडा ही आश्चर्य होता था, जो भी उन्हें पढाते दूसरे दिन तो वह पाठ तैयार ही मिलता । शायद ही ऐसा कभी अवसर मिला हो कि शिक्षार्थी ने अपना पाठ अपूर्ण छोडा हो। ____अब तो आपको दीक्षा लिए भी काफी समय हो गया। साधु के क्रियाकलाप में तो आप पूर्ण दक्ष हो गये । कभी कभी पूज्य पंन्यासजी महाराज श्री हितविजयजी महाराजः
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तत्त्ववेत्ता
को व्याख्यान आदि धर्मोपदेश देने का भी अवसर देते । उस समय श्रोताओं की अपार भीड लग जाती । आपकी व्याख्यान शैली तो एक अनोखे ढंग की थी । प्रत्येक श्रोता व्याख्यान में तल्लीन हो जाता और उसकी इच्छा यही रहती कि व्याख्यान का अन्त न हो तो अच्छा है । इस प्रकार की उन्नति देख पंन्यासजी महाराज भी बडे मन ही मन प्रसन्न होते और अपने शिष्य को और भी अधिक योग्य बनाने का निश्चय किया। इस प्रकार अमदावाद में ही आपका विद्याभ्यास लगातार सं. १९१४ से १९२४ दश वर्षे पर्यन्त चालु रहा।
योग और गुरुदेव का स्वर्ग आपकी इस अथाग परिश्रमता और योग्यता को देखकर उस समय स्थित साधु समुदाय ने श्री पंन्यासजी महाराज को यह सुझाव दिया की अब श्री हितविजयजी को बडे योग करवा के गणिपद से अलंकृत कर दीजिये। इस सुन्दर सुझाव का पंन्यासजी महाराजने भी हार्दिक स्वागत किया। ____शुभ दिन व उचित समय देखकर हितविजयजी को योग में प्रवेश करवा दिया। नित्य प्रति योग की क्रियायें होने के साथ साथ कठिन तपस्या भी होने लगी। पर इस
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योग और गुरुदेव का स्वर्ग कठिनाईयों का आप पर तनिक भी असर न हुआ । आप तो निर्भीक होकर अपने कर्त्तव्य में आरूढ रहें । __ शुभ कार्य में बाधायें विशेष कर आती ही है। इसी प्रकार इस योगाभ्यास के कठिन समय में श्री हितविजयजी म. को भी आफतों ने आधेरा । अभी तो योग प्रारम्भ किये पूरे महानिशिथ तक भी नहीं पहुंच पाये थे कि अचानक आपके गुरुदेव को बिमारीने घेर लिया।
एक और तो कठिन योग की क्रिया, दूसरी कठिन तपस्या, और इसके साथ साथ गुरुदेव की बिमारी काल की सेवा एक पूरे कसौटी रूप में परिणत हो गई । साधारण व्यक्ति तो क्या पर अच्छे अच्छे शक्तिशाली भी ऐसे विकट समय में अपने धैर्य को खो बैठते है । पर मुनिराज श्री हितविजयजी पर इसका तनीक भी असर नहीं पडा।
ज्या ज्या समय बढता गया त्या त्या पंन्यासजी महाराज अधिक बिमार होते गये । हितविजयजी के समक्ष भी इस बिमारी की समस्या अधिक बढती गई । अब तो वे भी अपने गुरुदेव की बिमारी के कारण चिंतित रहने लगे। आपने तो सेवा में किसी तरह कसर न होने दी, पर भावी को मिथ्या कौन कर सकता है ? होनहार होकर ही
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तत्त्ववेत्ता रहता है । चाहे तीर्थङ्कर हो या चक्रवर्ती। तो मानव का तो पूछना की क्या ? आखिर विक्रम संवत् १९२६ के पोष कृष्णा ९ को सुबह पडिलेहण आदि से निवृत्त होते ही नित्य स्मरण करते हुए ध्यानावस्था में ही सदा के लिये स्वर्ग सिधार गये ।
इस दुःख के विषय में क्या लिखा जाय ? गुरुदेव के विछुडते ही हितविजयजी एक अनाथ से हो गये। वे रोज ही अपने गुरुदेव के उपकारों का स्मरण करते करते बहुत दुःखी होते, यहां तक कि वे कभी कभी बहुत दुःखी होकर रोने भी लग जाते । आखिर ठहरे तो छद्मस्थन ? यह तो स्वाभाविक ही है । हितविजयजी को अब तो वही प्रसंग याद आने लगा । जब कि प्रभु वीर के बिछुडने (मोक्ष जाने) पर गौतमस्वामी रो रो कर वीर....वीर करते कहते थे कि प्रभु! आपका यह कैसा प्रेम ? जो मुझे यहाँ छोड चले गये । इसी प्रकार हितविजयजी भी अपने गुरु के लिये दुःखी होकर बिलखते थे। ___धीरे धीरे आपने अपना कार्यभार संभाला। योगोद्वहन तो चल ही रहे थे अतः शेष योग की क्रिया अमदावाद स्थित डेह लाके उपाश्रय में विराजमान पंन्यासजी श्री उम्मेदविजयजी म. के द्वारा पूरी की गई। आपने भी बडे ही प्रेमसे
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योग और गुरुदेव का स्वर्ग
: १७ : हितविजयजी को उनके गुरु की अनुपस्थिति में योग कराये। इस तरह आपने पंन्यासजी महाराजश्री उम्मेदविजयजी के पास रहकर शेष के योग समाप्त किये । अब आप योगकार्य से निवृत्त हो चूके थे अत: अब आपने धार्मिक ग्रन्थों का पुनः अवलोकन प्रारम्भ किया। ___ अमदावाद में विराजते आपको काफि वर्ष हो चूके थे, अतः अब आपकी इच्छा विहार की जागृत हुई । अन्य साधु समुदाय के साथ अमदावाद से प्रस्थान कर सर्व बहार के गांवों में उपरीयालाजी नामक तीर्थस्थान पर चातुर्मास किया। यहां श्रावकों के घर बहुत कम होने पर भी आपने तीर्थस्थान के निमित्त चातुर्मास किया। इस के पश्चात् विरमगाम, पाटडी, बजाणा, ध्रांगध्रा, हलवद, बाटाबन्दर, लालाभगत का सायला आदि ग्रामों में घूमते हुए धर्मप्रचार करते हुए और किसी किसी जगह चातुर्मास भी करके पुनः अमदाबाद पधारें । वहां पधारने पर श्री संघने आपका शानदार स्वागत किया, जिसमें श्रमण संघ भी सामिल था । और आप को उसी वीर के उपाश्रय में उतारे गये।
आपने संवत् १९३० का चातुर्मास अमदाबाद में ही किया। इस साल आपके पास चन्दनमल नामक एक धर्मानु
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:१८ :
तत्ववेचा
रागी युवक ने आकर दीक्षा लेने की आकांक्षा प्रकट की । प्रथम तो आपने उसे बहुत समझाया, साधु जीवन की कठिनाईयों ने परिचय कराया । पर उसके दृढ होने से उसे अपने पास छ मास रखने के पश्चात् संवत् १९३० के वैशाख शुक्ला तृतीया अर्थात् अक्षयतृतीया के शुभ दिवस में दक्षिाप्रदान की । उस दिन आपने अपने नवदीक्षित शिष्य का नाम चतुरविजय रखा।
गणिपद और पंन्यासपद अब आपकी भावना अमदावाद से प्रस्थान करने की हुई। पर संघ को मालूम होते ही गुरुदेव को एक चातुर्मास और करने की प्रार्थना की। श्री संघ के अधिक आग्रह पर हितविजयजी महाराज को विवश होकर एक चातुर्मास और करना ही पडा । संवत् १९३१ के चातुर्मास का ठाठ पाठ तो गत चातुर्मासों से कई गुणा अधिक रहा । इस चातुर्मास में पूजा, प्रभावना, स्वामीवात्सल्य आदि का अनोखा आनन्द रहा । जनताने धर्मकरणी में भी खुब भाग लिया। शान्ति पूर्वक यह भी चातुर्मास सम्पूर्ण होगया ।
इस समय पूज्य पंन्यासजी श्री उम्मेदविजयजी अभी अमदावाद में ही बिराज रहे थे । और आप का भी यहीं
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गणिपद और पंन्यासपद
: १९ :
था | पंन्यासजी महाराज को वीर के उपाश्रय के मुख्य मुख्य श्रावकने आकर के कहा कि आप हितविजयजी को गणिपद से अलंकृत कर दीजिये | आप के हाथ की बात है । आप चाहे तो दे सकते है इस प्रार्थना को अवश्य स्वीकार कर मुहूर्त भी निकाल दीजीये | श्री संघ की साग्रह प्रार्थना को स्वीकार करके आपने आगामी वसंत पञ्चमी का शुभ मुहूर्त्त भी निकाल कर दे दिया | अब क्या था ? सारा संघ नाच उठा । वीर के उपाश्रय में अब तो बडी बडी तैयारियां होने लगी । रोज प्रभावना का कार्यक्रम चालू हो गया । आखिर वह शुभ दिन भी आ पहुंचा ।
संवत् १९३२ के माघ शुक्ला पञ्चमी के दिन सुबह ११ || बजे विजय मुहूर्त्त में श्री हितविजयजी महाराज को पंन्यासी उम्मेदविजयजी महाराजने अमदाबाद के श्री संघ के समक्ष गणिपद से विभूषित कर दिया। अब आप हितविजयजी गणि के नाम से सम्बोधित होने लगे । इसके -साथ आपका यश भी अब तो और भी अधिक फैलने लगा ।
अब आपने पंन्यासी उम्मेदविजयजी महाराज के साथ ही विहार करना प्रारम्भ किया । ग्रामों ग्राम विहार करते हुए भव्य जीवों को प्रतिबोध देते हुए विशेष रूपेण धर्म का प्रचार करते हुए आप उपरियालाजी पधारें ।
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: २० :
तत्ववेत्ता
यहाँ पर काफि समय स्थिरता कर देशना सुधा का जनता को पान कराकर पुनः विहार कर अनेक गाँवों में घूमते हुए पतितपावन पञ्चमकाल का शिवसोपान सिद्धक्षेत्रपालीताणा पहुंचे । पुण्य तिथि चैत्री पूर्णिमा को पंन्यासजी श्री उम्मेद विजयजी के साथ साथ ही श्री सिद्धगिरि - दादा की सानन्द यात्रा की । इस यात्रा से आपको बडा ही आनंद मिला । भला यहाँ आने पर आनन्द किसे नहीं होता ? जिस पुण्य क्षेत्र में हजारों ही नहीं बल्कि असंख्य महापुरुष यहाँ आकर शिवगति को पाये है। ऐसे दुरितनिवारण - पुण्य क्षेत्र में आने पर किसे आनन्द प्राप्त नहीं होता है ? शायद कोई ऐसा अभागा होगा जो कि इस आनन्द से वंचित रहा होगा ?
यहाँ तो काफि संख्या में साधुगण बिराजमान रहते है। संघ का तो पारावार ही नहीं । जैसे पूर्णिमा के रोज समुद्र का पानी उमड आता है ठीक वैसे ही इस तीर्थ पर मानव मेदिनी उमड आती है । जिसमें भी चैत्री पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा और अभी अक्षयतृतीया के मेले पर तो भीडभीड लग जाती है । इतनी धर्मशाला होने पर भी जगह की उस समय तंगी हो जाती है। आपने अपनी विद्वत्ता से यहाँ भी अपना प्रभाव जमाया। सभी साधुगणों से मिले ।
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गणिपद और पंन्यासपद
: २१ :
साथ श्री गंभीरविजयजी तथा लाभविजयजी को तो आपने काफि प्रभावित किये। जिसके फलस्वरूप उपरोक्त दोनों मुनिराजोंने आपको पंन्यासपद से सम्मानित करने का मन में दृढ निश्चय कर लिया। साथ ही इस सम्बन्धी सभी साधुवर्ग से वार्तालाप कर पंन्यासजी श्री उम्मेदविजयजी के पास जाकर सबने अपनी इच्छा प्रकट की । पंन्यासजी तो उन्हें जानते ही थे और कई दिनों से विचार भी कर रहे थे । aa और भी समर्थन मिलने पर अक्षयतृतीया के शुभ दिन को - जिस दिन सभी वरसतिप कर्त्ता तपस्वी गण पारणा करते है, निकल कर यह शुभ समाचार प्रसारित कर दिया ।
पन्यासजी महाराज की अध्यक्षता में तैयारियाँ होने लगी । सभी स्थानों पर हर्ष मनाया जाना नजर आने लगा । पूजा प्रभावना की धूम मचने लगी । समय समय का काम करता ही रहता है । आखिर संवत् १९३३ के वैशाख शुक्ला तृतीया के दिन श्री उम्मेदविजयजी महाराजने श्री हितवि जयजी को पंन्यास पद से अलंकृत कर उन्हें पंन्यास हितविजयजी के नाम से प्रसिद्ध किये । उस समय जनता की उपस्थिति बहुत सुन्दर थी, जिस में भी श्रमण समुदाय की संख्या काफी और दर्शनीय थी । जयध्वनि से मण्डप गूंज उठा । प्रभावना के साथ जनता स्वस्वस्थान चली गई ।
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: २२:
तत्त्ववेत्ता
___ उस समय पंन्यास पदवी की बहुत बड़ी महत्ता थी। इने गिने ही पंन्यास दृष्टिगोचर होते थे। वह भी बडे धुरन्धर और क्रियाकुशल थे । काम कर दिखाने की ताकात रखते थे । आज कल के जैसे पदवी के भूखे नहीं थे । केवल पदवीयों के पीछे पडे हुए अपने कर्तव्य को भी भूल बैठते है। और दोचार भक्तों द्वारा पदवी पाकर कृत्यकृत्य हो जाते है और जीवन की सफलता मान लेते है । दरअसल उन्हें पूछा जाय तो अपना नाम भी शुद्ध बोलना और लिखना नहीं जानते । यह है आजकल के पदवीधारी !
खैर ! ठीक है ! निर्नाथ जैन समाज में सब पदवीधारी बन जाय तो आशा है कि जल्दी उद्धार हो जायगा ? तीर्थयात्रा, विहार, चौमासा, शास्त्रार्थ,
__ प्रतिष्ठा, ज्ञानमंदिर दीक्षा आदि का विशेष विवरण पालांताणा में कुछ समय बिराजने के पश्चात् अब आपने विहार आरम्भ किया । अब आपके साथ सौभाग्य. विजयजी और प्रमोदविजयजी नामक दो साधु ओर विद्याभ्यास के निमित्त साथ हो गये । इस तरह अपने शिष्य चतुरविजय सहित ४ ठाणा से विहार करते करते सिहोर नामक नगर में पहुंचे । वहाँ एक धनुभाई नामक श्रावक
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विशेष विवरण
: २३ :
को दीक्षा दी । और उसका नाम धीरविजय रखा । अब आप पांच ठाणा हो गये ।
यहाँ कुछ समय ठहरने के बाद आपने पुनः भावनगर की तरफ विहार किया । भावनगर की तरफ प्रायः एक चातुर्मास पूर्ण करके आप गिरनार ( जूनागढ ) की तरफ पधारें ।
|
उस समय जूनागढ मूसलमानों के आधीन था, अतः यहाँ विधर्म की बोलबाला थी, हिंसा का जोर था । यहाँ ऐसे समय में साधुओं का जाना एक समस्यारूप था । ऐसे विकट समय में कोई ही साधु हिम्मत कर पहुँच पाता । आप तो निर्भीक होकर अपने शिष्यमण्डल को साथ ले वहाँ चले गये । लोगोंने प्रथम तो उन्हें समझाया, पर वे अडिग रहे । आपके ऐसे धर्मप्रेम को देख लोग आश्चर्य करते थे। इस अवसर का लाभ उठाकर कई श्रावक भी आपके साथ गिरनार की यात्रा निमित्त साथ हो गये । जूनागढ जाकर आपने सर्व प्रथम श्री गिरनार नेमिनाथदादा की यात्रा प्रारम्भ की। गिरनार जैसे र्तार्थाधिराज की तलेटी पर आप कुछ दिन बिराजमान रहें। रोज यात्रा करते हुए प्रत्येक देवमन्दिर को आपने बडी संलग्नता से देखा । मंदिरों की व्यवस्था की जाँच की और अपने ध्यान में आई हुई
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:२४:
तत्त्ववेत्ता खामियों को आपने अपने उपदेशों द्वारा निकालने का प्रयत्न किया। ___ यह तीर्थ अति प्राचीन है। यहां पर जैन धर्म के अलावा अन्य-धर्मावलम्बियों के भी देवस्थान विद्यमान है। आपने उन्हें भी विना किसी भेदभाव से देखा और वहां भी होनेवाले नियम विरुद्ध कार्यों को रुकवाने का प्रयत्न किया । इस कठिन एवं पावन तीथे पर आपने धर्म का खूब प्रचार किया । बाद में आप कुछ दिन जूनागढ में भी बिराजें।
जैसाकि पहले लिखा जा चूका है कि जूनागढ मूसलमानों के अधिकार में था, अतः वहां विधर्मियों का बहुत जोर था, हिंसा की बोलबाला था । सरे बजार मांस-मदिरा विकते थे। यह देख आप से न रहा गया। अतः इसके विरुद्ध आपने दो तीन वार सार्वजनिक धर्मोपदेश भी दिये । आपके भाषणों का कुछ असर तो पडा, पर वहाँ तो कई समय से ऐसा ही वातावरण था, अतः यहाँ स्थायी रहने की आवश्यक्ता हुई, पर समय का अभाव व वहां का जलवागू अनुकूल न होने से आपको शीघ्र ही विहार करना पड़ा।
ग्रामोंग्राम विहार कर आप पुनः गुजरात में पधारें। कुछ मास गुजरात का भ्रमण कर आपकी इच्छा मरुधर
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विशेष विवरण
जाने की हुई | अतः आपने मरुधर देश की ओर प्रस्थान किया । सर्व प्रथम आपने गुजरात प्रान्त से सिरोही राज्य के आबू नामक प्रसिद्ध तीर्थ की ओर पधारें । यहाँ के देवमंदिरों के दर्शन कर आप मरूधर प्रदेश की ओर आगे बढे ।
: २५ :
मारवाड में सर्व प्रथम आपका चातुर्मास सिरोही नगर में हुआ । सिरोही राज्य का प्रमुख नगर होने से बडा सुन्दर तथा विशाल नगर है । यहाँ श्रावकों के काफि तादाद में घर है । आपने यहाँ एक चातुर्मास किया । श्रावकोंने बडी श्रद्धा-भक्ति से आपकी सेवा तथा उपदेशों का अमूल्य लाभ प्राप्त किया ।
इस चातुर्मास के समाप्त होने पर आपने इसी प्रान्त की ओर विहार किया, जिसमें बरलूट, जावाल होते हुए मोटा गाँव में पहुंचे। यहाँ आप कुछ समय तक ठहरें । आपके आने के उपलक्ष में स्थानीय संघने उपधान का आयोजन किया। इस राज्य के प्रमुख प्रमुख नगर - जैसे पाडीव, कालन्द्री, शिवगंज आदि अनेक गामों के निवासी काफि संख्या में जन आये । और इस क्रिया-काण्ड तथा तपस्या में खूब भाग लिया । साथ आपको कालन्द्री शिवगंज, रोहिडा और पीण्डवारा के श्रावकोंने आग्रहपूर्ण विनती भी की ।
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:२६:
तत्त्ववेत्ता
कालन्द्री संघ का अधिक आग्रह होने से आपने आगामी चातुर्मास कालन्द्री में ही किया ।
इस चातुर्मास के पश्चात् आपने इस प्रान्त में क्रमशः पीन्डवारा, पोशालिया, पालडी आदि ग्रामों में चातुर्मास करते करते आप मुख्य मारवाड के गोडवाड प्रान्त में पधारें । यहाँ आपने जोरों से धर्मप्रचार प्रारम्भ किया । पर यहाँ तो कुछ और ही नवीनता मालूम हुई। न तो साधु लोगों का सन्मान नजर आया और न उनके साथ सद्व्यवहार ही । इसका कारण ज्ञात करने पर आपको मालूम हुआ कि यहां तो नाम मात्र के यति लोगों की बोलबाला है । " उन्होंने अपने वास्तविक यतिपन को खूटी पर टांग पर धर्म के नाम पर कई धर्तिग और मायाजाल फैला रखे है। भोली जनता इनके इन पाखण्डों के शिकार बन कर अपना सर्वस्व धर्म के ठेकेदारों के निमित्त लूटाना प्रारम्भ कर दिया है ।" यह सब कुछ आपसे सहन न हुआ।
अब आप गोडवाड के प्रमुखनगर बाली में आपने अपने आगामी चातुर्मास का बिना किसी बिनती के ही इन यतिलोगो से लोहा लेने के निमित्त करने का दृढ निश्चय कर लिया।
अब तो आपको साधु ही नहीं बल्कि 'पीलिया पीलिया' जैसे घृणित शब्दों से लोग पुकारने लगे। कारण कि यह
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विशेष विवरण
वह समय था जब कि यति लोगों के ढिलापन से उब कर समस्त साधु समुदायने इनका बहिष्कार कर अपना संबन्ध धनिष्ठ होते हुए भी विच्छेद कर दिया था । अतः साधुसमाजने यति लोगों के सफेद कपड़ों के विपरीत पीले कपडे धारण कर लिये थे । जिससे कि जनता को साधु और यति का पता चल जाय । पर यति लोगोंने इनसे चीटकर " पीलिया " शब्द से सम्बोधित करना आरम्भ कर दिया पर आप इससे घबराये नहीं ।
।
: २७ :
|
बाली के चातुर्मास में यति लोगोंने आपको दबाने के लिये नाना प्रकार से कष्ट दिये । पर क्या चिकने घडे पर छांट लगती है ? आपने इनका डट कर मुकाबला किया । कई शास्त्रार्थ हुए। और इन शास्त्रार्थों का असर अब जनता पर पढने लगा । आपका सन्मान भी होने लगा और कई ग्रामों से चातुर्मास के निमंत्रण तक भी आने लगे । पर बाली के श्रावक तो आपके पूर्ण भक्त हो चूके थे, अतः आपको दूसरा चातुर्मास भी यहीं पर
करना पडा ।
अब तो यति लोग भी धीरे धीरे शान्त होने लगे । अतः कई प्रमुख- समझदार यति तो आपके पास आने लगे | आपने भी विना किसी भेदभाव उनके साथ योग्य
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:२८:
सत्त्ववेत्ता वर्ताव किया । और समय समय पर सत्य सिद्धान्त उन्हें समझायें, इस का सुमधुर फल निकला कि १-२ वर्ष में ही समस्त मारवाड के करीब करीब समी यतियों के साथ आपका काफि प्रेम हो गया । यति लोग अब तो आपको सम्मानित करने लगे। ___ बाली के उपरोक्त चातुर्मासों के पश्चात् आपने विहार कर गोडवाड की जनता को देशना-सुधा का पान कराया। इस समय के बीच में आप इस प्रान्त के-सादडी, घाणेराव
और देसुरी जैसे प्रमुख नगरों में लगातार चार चातुर्मास किये । इन वर्षों में तो गोडवाड का बच्चा बच्चा आपके नाम को जानने लग गया । जहाँ भी जाते आपका खूब सन्मान होता था।
धीरे धीरे धर्मप्रचार करते करते अब आपने उदयपुर (मेवाड) की ओर विहार किया। अब आप मेवाड के प्रांगण में पहुँच कर उदयपुर की तरफ जारहे थे कि मझेरा के कुछ श्रावकोंने आपका आना सुन आपको मझेरा आनेका आग्रह किया । कारण कि-वहाँ आपके दादा गुरुभ्राता श्री विवेकविजयजी (दुधाधारीजी) महाराज के सदुपदेशों से प्रभा. वित होकर कई तेरापंथी मंदिरमार्गो बन चूके थे । पर इस प्रांत में मूर्तिपूजक साधुओं का कई वर्षों से विचरणा नहीं
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विशेष विवरण
होने से पुनः तेरापंथीयों ने अपना कुचक्र चला रखा था। गाँवों के मंदिर में मूर्तियों का तोडना, उनमें अशुची फेंकना, कांटे डालना आदि अनेक गंदे कार्यों से मन्दिर की आशातना करवा रहे थे । अतः मझेरा निवासियों ने पूज्य पंन्यासजी महाराज का पधारना सुनकर उन्हें मंदिर की पुनः प्रतिष्ठा कराने के लिये आमंत्रित किया । पंन्यासजी महाराज ने श्रावकों की प्रार्थना को सहर्ष स्वीकार कर उसी समय उन्हीं श्रावकों के साथ हो गये ।
: २९ :
मझेरा पधारने पर आपको वहाँ का दुषित वातावरण ज्ञात हुआ | आपने एकवार मझेरा में तेरापंथी के पूज्य के साथ शास्त्रार्थ किया | देखने के लिये सारा गाँव उलट पडा । तेरापंथीयों ने कहा कि आप के प्रश्न का उत्तर कल दूंगा । इस पर सारी जनता कल की इन्तजारी में विखर गई । तेरापंथी साधु सुबह बिना किसी को पूछे ही विहार कर: भाग गये । सारी जनता में हाहाकार मच गया कि तेरापंथी हार कर के भाग गये । सब लोग तेरापंथी का तिरस्कार करते हुए पुनः अपने प्राचीन मार्ग पर स्थिर हो गये । इस प्रकार विरोधियों के साथ शास्त्रार्थ कर श्रावकों को पुनः मंदिरमार्गी बनाये | और मंदिर की पुनः प्रतिष्ठा करवा कर जिनभक्ति का आदर्श द्वार सदा के
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: ३० :
तत्ववेत्ता
लिये खोल सांसारिक जीवों के हितार्थ कल्याण का मार्ग निर्विघ्न कर दिया |
आपने अपने पूज्य श्री दादा गुरुजी के गुरुभ्राता उग्र तपस्वी श्री विवेकविजयजी (दुधाधारीजी) महाराज के सदुपदेशों का प्रचार किया । आप यहाँ उपरोक्त महाराज के ही उपाश्रय में बिराजे । यहां श्री विवेकविजयजी के पट्ट (गद्दी ) की पुनः सुव्यवस्था श्री संघ द्वारा करवाई। इस गद्दी का महान् प्रभाव है, जो तेरापंथी भी विवाह आदि मांगलिक काम के समय सर्व प्रथम यहाँ प्रणाम कर श्रीफल चढाते है ।
पूज्य विवेकविजयजी महाराज मुख्य रूप से मेवाड के राजनगर के कुलगुरु जाति महात्मा थे। आप जब विवाह करने जा रहे थे तब आपको किसीने इस के लिये कुछ भला-बुरा कहा | यह आप से सहन नहीं हुआ । और इसके फल स्वरूप उसी समय आपने संसार के मोह को त्याग कर दीक्षा ले ली। आपके दीक्षागुरु श्री विजयजी महाराज थे । दीक्षा काल से ही आपने अपना आहार केवल दूध ही रखा। इसी कारण से आपका नाम दुधाधारीजी के नाम से ही प्रसिद्ध हुआ । आपका बहुत काल इसी प्रान्त के साथीया नामक ग्राम के आसपास के ग्रामों में ही बीता । वहाँ भक्तोंने सभी प्रकार की व्यवस्था कर दी थी ।
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विशेष विवरण
: ३१ :
पंन्यासजी महाराज अब यहां से विहार कर संवत् १९४५ में अब अपनी दीक्षाकाल के ठीक ३२ वर्ष बाद उदयपुर पधारें । श्री संघने शानदार स्वागत किया । आप मालदासजी की सेरी में चाबाई की धर्मशाला में बिराजे | जो कि आपके दादा गुरुजी के उपदेशों द्वारा ही बनाई गई थी ।
I
यहाँ पर भी कुपंथियों का पहले बडा जोर था । यहां भी आपने विरोधियों का मुकाबला किया । कुपंथी लोगों का इतना बोलबाला था की साधुओं को कही उपाश्रय में आश्रय तक नहीं मिलता था, अतः आपके दादागुरुजी श्री हर्ष - विजयजी महाराजने चाबाई नामक श्राविका को अगुआ बनाकर श्री संघ में से चंदा मंडा कर यह धर्मशाला बनवाई |
•
पर यह धर्मशाला छोटी थी उसकी पूर्ति भी आपने ही की । आपके उपदेश से ही यह धर्मशाला अब विशाल रूप में मंदिरजी के साथ विद्यमान है । यह सब पूज्य पंन्यासजी महाराज की कृपा का सुमधुर फल है ।
संवत् १९४६ का चातुर्मास आपने इसी धर्मशाला में श्री संघ के अधिक आग्रह होने पर किया । इस चातुर्मास में बडी धूमधाम रही। आपकी विख्याति इतनी फैली की आपके सदुपदेश का पान करने के लिये उदयपुर के महाराणा साहब ने भी आपको अपने महल में आमंत्रित किया । आप
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:३२:
तत्त्ववेत्ता
भी बडे बडे कर्मचारियों के साथ वहां पधारें और राणाजी ने आपका स्वागत किया। पीछे यथायोग्य स्थान पर सब के बैठ जाने पर आपने मांगलिक रूप प्रवचन दिया। राणाजी आपके दर्शन एवं उपदेश से बड़े प्रसन्न हुए। ___ उदयपुर से श्री केसरियाजी केवल ४४ माईल दूर है। यहां से केसरिया जाने का बडा साधन है । अतः उदयपुर में केसरियाजी के यात्रियों का तांतांसा लगा रहता है । जो भी यात्री केसरियाजी की यात्रा जाता है वह उदयपुर अवश्य ही देखने का लाभ उठाता है। ___ इसी समय अमदावादवाले श्री हीरामल्ल नामक श्रावक आपके पास अमदावाद में चातुर्मास की विनती के लिये आया । हीरामल्ल ने आप को बहुत ही आग्रहपूर्वक विनती की। विवश हो गुरुदेव को उसकी स्वीकृति देनी पडी । गुरुदेव की स्वीकृति होने के बाद हीरामल्ल श्रीकेसरियाजी तथा पंचतीर्थी की यात्रा करता हुआ घर चला गया। ___ इस चातुर्मास में पूज्य पंन्यासजी महाराज की वैराग्यवाहिनी मधुर देशना से प्रभावित होकर दो श्रावक-जो कि खेमराज तथा किस्तुरचंद ने दीक्षा की भावना आपके पास प्रकट की। अतः पंन्यासजी महाराजने उनके माता
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विशेष विवरण
: ३३ :
पिता की स्वीकृति लेकर आयड नामक तीर्थस्थान पर श्री संघ के समक्ष दोनो भाविकों को दीक्षा प्रदान की । उनके नाम क्रमशः क्षमाविजय तथा कस्तूरविजय रखे गये ।
अब आपने मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी को अपने तीन शिष्यों के साथ तथा आपके गुरुभ्राता प्रेमविजयजी आदि ठा. ६ के साथ व मूलचंदजी महाराज के शिष्य श्री तिलकविजयजी आदि ठा. ४ के साथ केसरियाजी की ओर प्रयाण किया ।
यह तीर्थ बहुत प्राचीन हैं । यहाँ सब के सब दर्शनार्थ आते है। हजारों कोशों से यात्री आते ही रहते है । लोग धुलेवा तथा कालिया बाबा के नाम से सम्बोधन भी करते है । इस पावन तीर्थ की यात्रा करके अब सब मुनिमण्डल के साथ साथ खैवाडा, हिम्मतनगर आदि छोटे बडे अनेक ग्रामों में घूमते हुए म्हेसाना पहुँचे । यहाँ कुछ समय की स्थिरता के पश्चात् आसपास के ग्रामों में होते हुए ज्येष्ठ शुदी प्रतिपदा के बाद विहार लम्बाना पडा । कारण कि अमदावाद वालों की विनती के वशीभूत हो चातुर्मास करना था | अब आप केवल चार ठाणों से प्रयाण करते हुए अषाढ शुद्ध प्रतिपदा को शानदार स्वागत के साथ आपने
३
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: ३४ :
तत्ववेता
अमदाबाद में प्रवेश किया । जयध्वनि से नगर गूंज उठा ।
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यह चातुर्मास भी आपका श्रीवीर के उपाश्रय में ही हुआ । सेठ हीरामल्ल ने इस समय बड़ी भक्ति की । समय समय पर आपके कई वार सार्वजनिक व्याख्यान भी हुए जिस में हजारों की संख्या में श्रोताओं ने भाग लिया । श्री दोलाजी जवेरी के सुपुत्र श्री वाडीलालभाई तथा कार्यकर्ता मणीलालभाई आदि ने भी इस चातुर्मास के पर्यूषणों के दिनों में तथा ओलियों के दिनों में खुब दिलचस्पी पूर्वक भाग लिया । बडी धूमधाम के साथ चातुर्मास सम्पन्न हुआ । आसपास के कई ग्रामों के श्रावक आपके दर्शन तथा विनती करने आये । इसी प्रसंग पर लिम्बडीवाले शेठ गणीभाई, प्रेमाभाई, लल्लुभाई, जेसिंगभाई और प्रेमचंदभाई आदि भी अमदावाद आये । उन्होंने आगामी चातुर्मास लिम्बडी करने के लिये जोरदार - आग्रहभरी प्रार्थना की । पूज्य पंन्यासजी महाराज श्रावकों की भावनापूर्ण विनती को स्वीकार करते हुए समय पर विहारी बनें । उन्हीं श्रावकों के साथ ही लीम्बडी की ओर प्रयाण किया ।
संवत् १९४७ के महा वद १३ को लीम्बडी नगर में प्रवेश किया । यहाँ आपको गाँव के मुख्य उपाश्रय में टहराये गये | यहाँ आपने अपने आगमगुरु श्री झवेरसागरजी
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विशेष विवरण
:३५:
महाराज के शिष्य श्री आनन्दसागरजी; जो कि वर्तमान में आगमोद्धारक जैनाचार्य श्रीमद् सागरानन्दसूरीश्वरजी म. के नाम से प्रसिद्ध हुए; को योगोद्वहन कराकर १९४७ के ज्येष्ठ कृष्णा तीज के दिन श्री संघ के समक्ष बडी दीक्षा दी। साथ ही श्री मूलचंदजी (मुक्तिविजयजी) महाराज के शिष्य श्री कमलविजयजी को तथा आणंदविजयजी को गणी तथा पंन्यासपद से अलंकृत किये । इस सम्बन्धी एक लेख जो कि लिम्बडी के उपाश्रय के पाट पर लिखा आज भी विद्यमान है। यह व्याख्यान पाट भी उसी शुभ प्रसंग पर बनाया गया था। लेख गुजराती भाषा में है। यह बहुत पूराना होने से स्पष्टतया पढ़ा जाना कठिन सा है। तो भी हमने उसे पाठकों के समक्ष उपस्थित किया है। इसके साथ ही एक चित्र भी है जो कि किसी चित्रकार द्वारा बनाया गया है, वह भी जीर्ण होने से स्पष्ट नहीं प्रतीत होता है।
हमने उस चित्र का ब्लोक बनाने का प्रयत्न भी किया, पर चित्र जीर्ण होने से इस कार्य में असफल ही रहे । वास्ते पाठकों के समक्ष हम उसे लिपिबद्ध ही करते है । आशा है पाठकगण हमें उसके लिये क्षमा करेगें व साथ ही लेख की अपूर्णता के लिये उसे पूर्ण कर हमें इस सम्बन्धी बातें सूचित करेंगे । लेख बीच में न देकर के हम अन्तिम ही दे रहे है।
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:३६ :
तत्त्ववेत्ता लिम्बडी का चातुर्मास सानन्द समाप्त होने पर आप अपनी शिष्यमंडली के साथ विहार करते करते पुनः श्री सिद्धक्षेत्र-पालीताणा पहुंचे । यहाँ दादाजी की यात्रा करते हुए वैशाख की अक्षयतृतीया तक बिराजे । बाद में आपने पुनः प्रयाण शुरू किया।
संवत् १९४८ का चातुर्मास पालीताना से मारवाड लौटते समय अमदावाद में ही किया। इस चातुर्मास में आपके हृदयस्पर्शी सचोट देशना से प्रभावित होकर सेठ दोलामाई जवेरी के सुपुत्र वाडीलालभाईने श्री केसरियाजी तार्थ का श्रीसंघ आपकी अध्यक्षता में निकाला। जिसमें काफी साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविकाओंने भाग लिया। यह संघ १९४८ के चैत्र कृष्णाष्टमी के पहले ही पहुंच गया। दादा की यात्रा सानन्द की । अष्टमी के दिन यहाँ पर एक सार्वजनिक मेला भी लगता है जिसमें जैनों के अलावा भीलमेणे ग्रासिये आदि जंगली जाति भी सम्मीलित हो प्रभुपूजा का लाभ लेते है । संघ भी मेले के सुप्रसंग तक ठहर गया।
संघ में आये हुए सभी यात्रीगण पंन्यासजी महाराज के साथ साथ उदयपुर आये । यात्रियोंने उदयपुर के दर्शनीय स्थानों का अवलोकन कर अपने अपने स्थान को प्रस्थान कर दिया । पंन्यासजी महाराज को तो उदयपुर के श्रीसंघने
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विशेष विवरण
:३७:
आग्रहपूर्ण विनती कर के रोक दिये। ___ संवत १९४९ का चातुर्मास आपने यही चाबाई का नामवाली पूर्वपरिचित धर्मशाला में ही किया । चातुर्मास की समाप्ति के पश्चात् आपने पुष्करणा ब्राह्मण जाति के एक भाई को श्री संघ के समक्ष दीक्षा दी। उनका नाम गुलाबविजय रख अपने शिष्य के नाम से जाहिर किया। इस तरह अब आप पांच ठाणा से शोभित होने लगे।
यहाँ से आप विहार कर मावली होते हुए चितौडगढ़ पहुंचे। यहाँको यात्रा के बाद आप सिधे नाथद्वारा, काँकरोली, चारभुजा, साथिया आदि गाँवों में परिभ्रमण करते हुए देसुरी पधारें। यहाँ पर आपकी अगवानी करने को घाणेराव का श्री संघ आया, जिसमें 'हींगड' एवं 'खीचिया' आदि श्रावकों ने मुख्य भाग लिया। आप श्री संघ के आग्रह पर संघ के साथ ही विहार कर घागेराव पधारें। संघ ने शानदार उत्सव के साथ नगर में प्रवेश कराया । चातुर्मास की विनती की गई । संवत् १९५० का चातुर्मास घाणेराव में ही किया। यहाँ के भक्तों ने बडी भक्ति दर्शाई । चातुर्मास के बाद में सेवंत्री (मेवाड ) के निवासी वरदीचंदजी पोरवाड नामक एक भाई आपके पास दीक्षा लेने आये। उनके माता पिता की अनुमतिपूर्वक श्रीसंघ की उपस्थिति में दीक्षा
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: ३८ :
तत्त्ववेत्ता
देकर विनयविजय नाम रखा। जो कि पीछे से पंन्यास विनयविजयजी तपस्त्री के नाम से प्रसिद्ध हुए ।
घाणेराव श्री संघ का विशेष प्रेमभाव देखकर व पंच. तीर्थी जैसी पवित्र भूमि को देख आपने घाणेराव में ही ज्ञानमंदिर की स्थापना करने का निश्चय किया । अतः शुभ संवत् १९५१ में आपने यहाँ ज्ञानमंदिर की स्थापना कर दी । अमदावाद तथा उदयपुर स्थित सभी ज्ञान के ग्रन्थों को आपने यही मंगवा लिया। प्रथम भी यहां दादागुरु का ज्ञानसंग्रह था ही। इस ज्ञानमंदिर में सेंकडो वर्षों के प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों का संग्रह किया गया, जो आज भी विद्यमान है। इस के उपरान्त इस ज्ञानमंदिर में तरह तरह के विषयों के ग्रन्थ है, जैसे-धार्मिक, ज्योतिष, ऐतिहासिक और सामाजिक आदि।
उपरोक्त ज्ञानमंदिर की व्यवस्था वर्तमान समय में इनके सुयोग्य विद्वान् शिष्यरत्न मेवाडकेसरी श्री नाकोडा. तीर्थोद्धारक आचार्यदेव श्रीमद्विजयहिमाचलसूरीश्वरजी महाराज के अधीनस्थ है । आजकल यह ज्ञानमंदिर 'श्री हित. सत्क ज्ञानमंदिर' के नाम से सुविख्यात है। आपने इस की व्यवस्था में काफी दिलचस्पी लेकर कई ग्रन्थों का संग्रह बढ़ाया है।
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विशेष विवरण
आचार्यदेव के सद् प्रयत्नों से इस ज्ञानमंदिर का भवन भी नवीन बनवाया है, जो अभी जारी है । इस भवन में सब से लांचे एक विशाल कमरा है । यह कमरा ज्ञान की स्थापना के लिए है। कमरे के ऊपर चौमुखप्रासाद तथा अन्य छबियाँ होगी, जो दर्शनीय बनेगी । इस में सब तीर्थों के पट होगें। यह ज्ञानमंदिर एक अलग ढंग का होगा, जो कि एक उदाहरण रूप बनेगा।
इसी प्रकार आपने अपने जीवन में कई स्थानो में अपने प्रभावशाली चातुर्मास किये थे । आज भी वहां के वृद्ध पुरुष समय समय पर याद किये बिना नहीं रहते है । उनका व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था और उनकी भाषा भी इतनी मधुर थी कि प्रत्येक व्यक्ति एक बार उनके संसर्ग में आने के बाद उनका हो ही जाता। उस व्यक्ति की सदा यही इच्छा रहती कि मैं जितना अधिक पूज्य पंन्यासजी का संसर्ग रख लाभ उठा सकू इतना ही मेरे लिये हितकर होगा। दूसरी उनके मुखसे एरी-गरी बातें न होकर सदा ही धर्मयुक्त-सामाजिक
और देशभक्ति के सम्बन्ध की ही बातें होती थी। इस मुख्य कारणों से ही हर समय पूज्य पंन्यासजी के सामने १०-१५ व्यक्ति बैठे ही देखें जाते थे।
विशेषता तो यह थी कि जैन भाईयों का आप के साथ
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तत्ववेत्ता
बैठे रहना तो कोई विशेष नहीं पर आप के गुणों और लोकप्रियता में प्रभावित होकर अजैन भी काफी संख्या में छाया की भाँति आपके सुमधुर उपदेशों का पान करते बैठे ही रहते । धन्य है उन्होंने ऐसे महापुरुष के उपदेशों का लाभ उठा कर अपने जीवन को सफल बनाया |
: ४० :
आप का जीवनोद्देश्य सदा ही यह रहा कि मैं अब तो अधिक से अधिक समय संसार के समस्त प्राणियों की सेवा में व्यतीत करूँ और धार्मिक भावना उनमें जागृत कर कल्याण का सच्चा रास्ता बता जाउं । जिससे वे अपना जीवन सफल बना सकें। आप के इन्हीं गुणों से काफी जीवोंने लाभ उठाया था, जहाँ तक हो सका आपने भी प्रत्येक व्यक्ति को संतुष्ट करने का भरसक प्रयत्न किया ।
ज्ञानमंदिर की स्थापना करने के पश्चात् आपने अपनी जन्मभूमि की ओर प्रयाण किया । घाणेराव से प्रयाण कर सीधे पाली पधारे । यहाँ की जनताने आपका बडा स्वागत किया। साथ ही चातुर्मास के लिये आग्रहपूर्ण विनती भी की | अतः आपने संवत् १९५२ का चातुर्मास यँही कर आगे प्रस्थान किया । इस के बाद आप क्रमशः जोधपुर, नागोर आदि में १९५३ - ५४ का चातुर्मास कर सीधे मेडता पधारे ।
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विशेष विवरण
: ४१ :
मेडता तो आप की जन्मभूमि थी । अपनी जन्मभूमि और जननी किसे प्यारी नहीं लगती । गाँव के लोग तथा आप के गृहस्थ कुटुम्बी भी दर्शन के लिये दोड पडे । प्रेम उमडने लगा | संघ के आग्रहवश १९५५ का चौमासा आपने यहाँ पर ही ठा लिया ।
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संवत् १९५६ से लगाकर १९६४ तक आपने क्रमशः पाली, बाली, सांडेराव, पींडवारा, शिवगंज, वडगाम, जालोर, बीकानेर और सादडी में किये। बाद घाणेराव होते हुए उदयपुर पधारें । १९६५ का चातुर्मास उदयपुर में कर के आप पुनः घाणेराव आदि ग्रामों में होते हुए गुडाबालोताका पधारे ।
संवत् १९६६ - से ६८ तक आपने लगातार तीन चातुमस इसी गाँव में करने पडे । कारण कि उधर तीन थुई के राजेन्द्रसूरिजी के भक्तों का जोर था, तब इधर चार थुईवालों ने आपको पकड लिया । इस चातुर्मास में आपने “ प्रतिक्रमणविधिप्रकाश " नामक ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिख प्राकारे प्रकाशित भी करवाया। वहां से आपने विहार कर पुनः घाणेराव की ओर प्रस्थान किया ।
एक वार बाली में चातुर्मास था, उस समय राजेन्द्रसूरिजी से भेट हुई । खुब प्रेममय शास्त्रार्थ हुआ । यहां से घाणेराव
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:५२:
__ तत्त्ववेत्ता पधारकर आपने अपने ज्ञानमंदिरकी उन्नति की ओर ध्यान देना शरु किया । पुराने ग्रन्थों के संग्रह को बढाया । इसी निमित्त आपने सं. १९६९ का चातुर्मास घाणेराव में ही किया। इस चौमासा में आपने ज्ञान-आराधना सम्बन्धी खूब प्रचार कर ज्ञानमंदिर की उन्नति की।
ठाठपाट के साथ चातुर्मास समाप्त होने पर आपको वंदन करने के लिये पोसालियानिवासी श्रावक आये और आगामी चातुर्मास के लिये आग्रह भी किया। आपने प्रेमवश स्वीकृति दे दी।
समय पर घाणेराव से विहार कर अनेक ग्रामों में घूमते हुए सीधे पोसालिया पहुंचे। बडे आडम्बर के साथ संघ ने नगरप्रवेश कराया। बडी धामधूम से चातुर्मास सम्पन्न हुआ । यहाँ आप के उपदेश से एक देवकुलिका नूतन बनवाई गई। मंदिर तथा देवकुलिका की प्रतिष्ठा भी आपके करकमलों द्वारा की गई । यहाँ से विहारी बनें।
आपने इन चौमासा के पश्चात् १९७१ से ७६ तक छ चातुर्मास क्रमशः दो मंडार में, दो पीडवारा में और दो सिरोही में किये । यहाँसे आपको पुनः घाणेराव लौटना पड़ा, क्यों कि अब तो आपके हृदय में ज्ञानमंदिर का काम सवाया
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विशेष विवरण
:४३:
हुआ था । अथाग परिश्रम द्वारा आप एक उदाहरणरूप जनता के समक्ष इस ज्ञानमंदिर को रखना चाहते थे ।
घाणेराव पधारकर आप पुनः ज्ञानमंदिर के कार्य में जुट गये। बडे बडे कठिन परिश्रम कर आपने पुराने ग्रन्थों की खोज की। इस कार्य की वजहसे सं. १९७७ का चौमासा यहाँ पर ही किया। इस चातुर्मास में विसलपुर के श्रावक आगामी चातुर्मास की विनती लेकरके आये । आग्रहपूर्ण विनती को आपने भी स्वीकार कर ली । इसी बीच में पाद
रली प्रतिष्ठा के लिये आमंत्रण आया । आप विहार कर सीधे . पादरली पधारे । यहाँ के भव्य मंदिर की शानदार प्रतिष्ठा
करवाई। उस जमाने के समय में भी प्रतिष्ठा के प्रसंग पर एक लाख पचास हजार रुपये की आमदानी हुई । यहाँ से विहार कर विसलपुर पधारे। संवत् १९७८ का चातुर्मास धर्मदेशना द्वारा समाप्त किया। यहाँ पर आगामी चातुर्मास के लिये कईएक गाँवों की विनती आई । जिस में आपने १९७९-८०-८१ का तीन चौमासा क्रमशः खिवाणदी, रानीगांव और घाणेराव में किये। रानी के चौमासा में आप को जीर्ण साहित्य खूब प्राप्त हुआ। उसे ले घाणेराव छोड़ कर सीधे मेवाड के वोराट प्रान्त में साथिया पधारे । यहाँ की मंदिरकी बड़ी धूमधाम से प्रतिष्ठा करवाई । यहाँ से गामगुडा संघ की विनती को मान देकर
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: ४४ :
तत्त्ववेता
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के पधारें । बडी धूमधामपूर्वक यहाँ के शान्तिनाथ भगवान के मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई, जिस में काफी आय हुई। पुनः वोराट के गाँवों में पर्यटन करते हुए घाणेराव आकर सं. १९८२ का चौमासा किया। इसके बाद १९८३ का चौमासा खुडाला किया। बाद में देसूरी पधारे । यहाँ काफी लम्बे समय से पधारने से संघ के आग्रहवश १९८४ का चौमासा ठा लिया । इस चौमासा में बडा ठाठ रहा और समय पर श्री पार्श्वनाथजी के मंदिर की तथा चौमुखजी के प्रासाद की उत्साहपूर्वक प्रतिष्ठा करवाई । प्रतिष्ठा के समय काफी आय हुई। लोग हर्ष से नाच उठे थे ।
गत वर्षों में क्रमशः मणिविजयजी, प्रतापविजयजी, रत्नविजयजी, अमृतविजयजी, कमलविजयजी, कल्याणविजयजी, हिम्मत विजयजी, गुमानविजयजी नामक साधु आपके नवीन शिष्य बने थे । इन शिष्यों की कहाँ और कब दीक्षा हुई इस सम्बन्धी विशेष जानकारी प्राप्त नहीं हो पाई है । केवल हिम्मतविजयजी की ही प्राप्त है। आप कुम्भलगढ जीले के देलवाडा ग्राम के निवासी है और पिताजी का नाम गुलाबचंदजी और माता का नाम पनाबाई है । आप दो भाई है। बडे आप है । छोटे भाई का नाम मोहनलालजी है । आप जाति के वीशा ओसवाल लोढा गोत्र के है । आपकी
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विशेष विवरण
दीक्षा १९८० में घाणेराव में हुई । और जोग कराकर १९८५ में पंन्यास पद दे दिया । उस समय हिम्मतविजयजी नाम दिया था, पर वर्त्तमान में आचार्यदेव श्रीमद्विजयहिमाचलसूरीश्वरजी के नाम से प्रसिद्ध है ।
: ४५ :
पंन्यासजी महाराज के स्वभाव और विद्वत्ता के गुण से प्रभावित होकर आप के पास कई श्रावक दीक्षा के निमित्त आते थे, पर आपका ध्येय सदा संतोषपूर्ण होने से आप अधिक मोह में न पडे । आप तो इसी नीति के थे कि सपूत एक ही बहुत और कपूत अनेक होने पर भी कोई सार नहीं निकलता | इसी नीति के आधार पर आपने अधिक से अधिक शिष्य मूंडने का बिचार सदा के लिये अपने हृदय से निकाल दिया था । तो भी अपने जीवन में काफी शिष्य बनाने पडे । पहले तो आपने हर शिष्य को बहुत समझाया, पर अन्त में न मानने पर ही आपने विवश हो उसे दीक्षित किये ।
संवत १९८५ से लगाकर आपने अपने जीवन पर्यन्त घाणेराव में ही रहने का निर्णय किया । क्यों कि अवस्था काफी हो चूकी थी । शरीर असक्त हो गया था । फिर भी १९८८ का चातुर्मास करने के लिये खिमेल संघ के आग्रहवश पधार कर किया । आप बडे गाँवों की अपेक्षा छोटे गाँव में
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: ४६ :
ਸਾਕਦੇ
ही रहना विशेष पसंद करते थे। चूं कि गाँववालों की सरल श्रद्धा-भक्ति होती है । और उन में शहरवालों की अपेक्षा अधिक प्रेम भी होता है ।
आप के इन गुणों से संसार के काफी जीवोंने लाभ उठाया, जहाँ तक भी हो सका, आपने प्रत्येक सत्पुरुष को संतुष्ट करने की ही कोशिश की। इतना ही नहीं बल्कि आपने साधु समुदाय पर भी काफी व्यक्तित्व जमाया था । आपका हर एक व्यक्ति पर अच्छा प्रभाव पडता था । कारण कि स्वयं बहुत सरल थे, गंभीर और उदार भी पूरे थे । इस लिये लोहचुम्बक की तरह विरोधी को भी आकर्षण कर लेते थे । अथाग पाण्डित्य के साथ आप की वाणी बडी तेजस्वी और मधुर थी, जिस का काफी मुनिराजों ने भी लाभ उठाया था । आपने कई मुनिराजों को जिन का पहले भी विवरण आचूका है, शेष का निम्न प्रकार यहाँ दिया जाता है ।
घाणेराव (मारवाड) में मुनिराज श्री दयाविमलजी को बडे योग करवा करके आपहीने पन्यास पद से विभूषित किया था । मुनि लक्ष्मीविमलजी को पुनरोद्धार कर शासनमान्य । किये। आचार्य श्रीमद्विजय भ्रातृचंद्रसूरीश्वरजी ( भायचंद जी) महाराज को शिवगंज राजस्थान में आपने आचार्यपदवी से
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विशेष विवरण
:४७: अलंकृत किये थे। ___ राजस्थान के सुप्रसिद्ध योगिराज श्री शान्तिसूरीश्वरजी को तथा उनके गुरुश्री तीर्थविजयजी को भी आपके ही करकमलों द्वारा बडी दीक्षा दीगई थी । अनेक मुनिराजों को आगम ग्रन्थों का अध्ययन करवाया था। ____ आपने अपने जीवन में कुपंथियों को कुपंथ से हटाने का पूर्ण प्रयत्न कर उन्हें सच्चे जैन धर्म का अनुयायी बनाने का भी श्रेयस्कर काम किया। कुपंथियों को शास्त्रार्थ उपदेश तथा और कोई सुयुक्ति से उन्हें समझाकर रास्ते पर लगाये । आपने अपने योग बल की शक्ति से कई ग्रामों के अशान्तिमय वातावरण तथा वहाँ फैले हुए महान् उपद्रवों को शान्त किया । जिस में घाणेराव तो आप का सदा ही ऋणी रहेगा। कितनी ही बार शान्तिस्नात्र पढा करके मरगी जैसे भयंकर उपद्रवों को शान्त किया। इसका प्रमाण तो यही है कि आज भी वहाँ की जनता गुरुदेव का उपकार मानती हुई उनके गुणों का यशोगान करती है। व्यक्तिगत तो आपने कई जीवों पर उपकार किया था। आज मुख्य रूपसे मेवाड, मारवाड और गोडवाड की जनता आपके उपकारों की सरा हना किये बिना नहीं रह सकती। जब कभी यह प्रसंग चलता है तो गद्गद् हो जाते है।
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: ४८ :
तत्त्ववेता अन्तिम संदेश आप धर्म की सेवा करते करते समयानुसार काफी वृद्ध हो गये। वृद्धावस्था में आपने अपना अधिक समय घाणेराव में ही बिताया। वृद्धावस्था में भी आप दिनभर बैठे बैठे शास्त्र पढते थे। आप की आँखों की रोशनी अच्छी थी। दांत भी सब मौजुद थे । केवल वृद्धावस्था की वजह से शरीर जीर्णशीर्ण-अशक्त हो गया था, मगर मनोबल श्रेष्ठ था। मानव सोचता है क्या ? पर होता है अन्यथा । एक वार पंन्यासजी महाराज अपने आसन से उठ रहे थे कि अचानक कमजोरी के कारण नीचे गिर पडे । कमर में चोट लग गई। उस दिन से चलना फिरना सर्वथा बंद यानि संथारावश हो गये । आप की सेवा में पं. हिम्मतविजयजी, गुमानविजयजी दोनों भाई सतत खडे थे । बिमारीकाल में संघ ने भी सुन्दर भक्ति की । पंन्यासजी की सरलता बडी अजब की थी। आपने उस समय कहा कि-हे हिम्मतविजय! मैं अब खडा नहीं होउंगा। मेरे लिये मांडी अभी बनवा दे, मैं अपनी आँखो से देख लूं। लोगो ने इस पर काफी रंज पैदा किया। होना भी स्वाभा विक ही है । लेकिन हिम्मतविजयजी ने तो गुरु की आज्ञा पाकर एक सुन्दर और बडी मांडी तैयार करवा दी। फिर आप अपनी नजर से उसे देख बडे प्रसन्न हुए।
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विशेष विवरण
समय समय का काम करता रहता है । आयुष्य की कौन कह सकता है कि कब दीप में से तेल खत्म हो जायगा ? पंन्यासजी महाराज की भी यही हालात थी । सारा संघ को एकत्रित करके आपने कहा
: ४९ :
महानुभावो ! इस कालचक्र के मुख से कौन बच पाया है ? संसार में जिसने जन्म लिया है उसे एक बार मृत्यु को भेटना ही होगा । इस में शोक करने जैसी कोई बात नहीं है । आप लोग मेरे दोनों शिष्य बहुत छोटे है और विदेश भीं घूमे नहीं है, और इतना जानपना भी नहीं है इस लिये मेरे स्थान पर इन्हें समझ कर खूब सेवा - भक्ति करें, ताकि इनकी आत्मा को दुःख न हो और ठीक संयम पालन करते हुए अपना आत्मकल्याण कर सकें। इस पर संघने तथास्तु तथास्तु शब्दों की जडी लगा दी ।
पीछे पं. हिम्मतविजयजी को कहा कि भाई ! यह गुमान छोटा है, तेरे भरोसे है । दोनों हिलमिल कर सम्प। पूर्वक रहना । इस वीर की गद्दी को मैं तुम्हें सौंपता हूं । तूं इसे विशेष शोभायमान करना । जत और मत में सदाके लिये सावधान रहना । जहाँ भी तूं जायगा वहाँ तेरी विजय होगी । इस पर हिम्मतविजयजीने गुरुजी के चरणों में पड़
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तत्ववेत्ता
पादप्रक्षालन किया । इस दृश्य को देख कर सारी जनता की आँखें भी अश्रु बहाने लगी।
स्वर्गगमन कालचक्र के सामने किसका जोर चल सकता है ? आखिर संवत १९९१ के भाद्रपद शुक्ला त्रयोदशी के दिवस आप ज्ञान-ध्यान मुद्रा में स्वर्ग सिधार गये। उस समय आप की आय ९२ वर्ष की थी। इस ९२ वर्ष की आयु में आपने अपना ७८ वर्ष का जीवन साधु-जीवन में ही बीताया।
आपका अग्निसंस्कार घाणेराव से सादडी के रास्ते पर बडी धूमधाम से किया गया । हजारों की संख्या में लोग इस में सम्मीलित हुए। आप के अंतिम संस्कार के स्थान पर घाणेराव के निवासी श्री सागरमलजी की धर्मपत्नी की ओर से एक चबूतर बनवाया गया जो कि आज भी मौजुद व अच्छी अवस्था में है।
घाणेराव नगर से तीन मील की दूरी पर श्रीमुच्छाला महावीरजी के वहां भी आप की छत्री व मूर्ति रोहिडानिवासी श्रेष्टिवर्य श्री वीराजी पनाजी की ओरसे धर्मशाला के अन्दर ही वर्गाचे के पास बनवाई गई।
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विशेष विवरण
नाकोडा तीर्थ पर संवत् १९९१ माघ शुद १३ के दिन आचार्यदेव श्रीमद् विजयहिमाचलसूरीश्वरजी महाराज के करकमलों द्वारा प्रतिष्ठा व १२५ प्रतिमाजी की अञ्जनशलाका हुई । उस समय पंन्यासजी महाराज की मूर्ति की स्थापना की गई । वह भी आज विद्यमान है । यह प्राचीन नाकोडा तार्थ मारवाड स्टेट के अन्तर्गत बालोतरा नामक नगर के पास तीन कोश की दूरी पर आया हुआ है । मूलनायक श्री पार्श्वनाथ भगवान का त्रिशिखरी युक्त आदीश्वर भगवान का तथा शान्तिनाथ भगवान के चार देवलिये युक्त कुल तीन मंदिर विशाल एवं दर्शनीय है-विशाल गोशाला है और कारखाना तथा धर्मशाला बडी जबरदस्त है। यहाँ पर प्रत्यक्ष एवं चमत्कारिक भैरव पार्श्वनाथ के मंदिर म बिराजमान है जो कि कईएक भाइयों की मनोकामना पूर्ण की है और कर रहे है । यहां पर प्रतिवर्ष पोष कृष्णा दशमी को महान् मेला लगता है जिस में बडी दूर दूर से भी हजारों की संख्या में मानव आते हैं । यहाँ पर यात्रिगण को सब तरह की सुविधा है। एक बार भी प्रत्येक भक्त को यात्रा का लाभ उठाना चाहिये।
वर्तमान समय में पंन्यासजी महाराज के शिष्यमंडल में तीन शिष्य विद्यमान है जो कि आचार्यदेव श्रीमद्विजय
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: ५२ :
तत्त्ववेता हिमाचलसूरीश्वरजी महाराज, पंन्यासजी श्री कमलविजयजी महाराज और प्रवर्तक श्री गुमानविजयजी महाराज । इनके शिष्य प्रशिष्य आदि तो काफी संख्या में है। इसी तरह साध्वीजी की संख्या तो अनुमानतः सौ से अधिक है।
उपसंहार
संसार में समय समय पर महापुरुषों का इस पृथ्वी पर जन्म होता ही रहता है। जो अनादि काल से ही चला आ रहा है । जब जब मनुष्य अपनी सद्भावनाओं को छोड कर कुपथगामी होते है तब तब प्रकृति के नियमानुसार उन्हें एक न एक अवश्य ही सत्पुरुष महात्मा आदि के रूप में मिलते ही है, पर चतुर लोग तो उन महापुरुषों से अवश्य ही लाभ उठाकर अपना जीवन सफल बना लेते है । पर भाग्यानुसार कई मनुष्य ऐसे है जो अपना मानवजीवन निरर्थक गुमा कर आगामी जीवन को भी अंधकारमय बना जाते है ।
हमें प्रत्येक महापुरुष के जीवन से तथा उनके सदुपदेश का सार लेकर उनका पालन करने से सची सुख-शान्ति मिल सकती है । व हमारा किसी पुरुष की जीवनी पढना तभी सफल हो सकती है जब कि हम उससे कुछ न कुछ सीख कर अपने जीवन को भी उसी साँचे में ढाल कर मानवसेवा
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उपसंहार
: ५३:
का भार उठाते हुए अपने जीवन को सफल बना सकें।
अन्त में मैं उन महापुरुषों को धन्यवाद देकर इस जीवनी को समाप्त करता हूं जिन्होंने कि अपने पुत्र जैसे अनमोल रत्न को गुरु के चरणों में अर्पण कर सच्ची गुरुभक्ति का परिचय दिया।
पाठकों से निवेदन है कि वे इस जीवनचरित्र से कुछ न कुछ अवश्य ही सद्भावना को ग्रहण कर जीवनी का पढना सार्थक बनावें, यही मंगल कामना!!
समाप्त
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लीम्बडी के लेख की प्रतिलिपि मुनिराज श्री जवेरसागरजी सं. १९४७ की सालमांसाधु १० तथा साध्वी ७ सहित चौमासुं रह्या । जेठ वद ३ना दिने पंन्यासजी श्री हितविजयजी तथा अमदावादना सेठ मनसुखभाई, प्रेमाभाई, हरीसिंहभाई तथा लीम्बडीना सर्वे संघ मलीने बडी दीक्षा आनन्दसागरजी (१) तथा कमलविजय ने (२) तथा आणंदविजयजी (३) ने गणी पदवी तथा पंन्यास पदवी आपीने अठाई महोत्सव पर्व संघ तथा मणीभाई वगेरे वगेरे बडे आडम्बर आनंदपूर्वक किया । त्यारे आ सिंगासन कराव्यु छे । ए सर्वे गणीजी मूलचंदजी महाराज का उपगार...............(३) मा श्री जवेरसागरजी प्रयत्न किया । परम पवित्र जैनधर्म पामी शुद्ध श्रद्धा लावी श्री देवगुरुनी भाक्त करवी जेथी कल्याण थाशे । श्री जिनेन्द्राय नमः । गुरुभ्यो नमः । नोट-(१) जो आजकल आगमोद्धारक सागरानन्दसूरिजी के
नाम से प्रसिद्ध है। (२) जो आजकल श्री कमलमूरिजी के नामसे प्रसिद्ध है। (३) जो आजकल आणंदविजयजी कमलसूरिजी के
काकागुरु थे।
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(३) जो रिक्तस्थान सम्बन्धी मुख्य मुख्य व्यक्तियों से ज्ञात हुआ है कि यहां पर पंन्यासजी हितविजयजी का नाम था, पर भुसा गया है । इसलिये साफ दिखाई नहीं देता ।
फोटो
पं. आणंदवि. श्री आनंदसा, जवेरसा. पं. हितवि. सेठ मनीभाई प्रेमाभाई सेठ लल्लुभाई, प्रेमचंद भाई, मनसुखभाई, भगुभाई.
सेठ जेसिंग भाई, हरीभाई इस प्रकार के चित्रकार द्वारा चित्रित फोटु भी विद्यमान है । नोट - प्रस्तुत विषय सम्बन्धी जिज्ञासु जन आगमोद्धारक का जीवनचरित्र देख लेवें ।
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चरम तीर्थपति महावीर के ५८ वे पट्टधर मुगलसम्राट् अकबर प्रतिबोधक जगद्गुरुदेव श्रीमद्विजयहीरसूरीश्वरजी के १३ वें पट्टधर चरित्रनायक हुए जिसकी निम्न प्रकार वंशावली
(१) पं. श्री तिलकविजयजी
(२) पं. श्री ऋद्धिविजयजी (३) पं. श्री चारित्रविजयजी
(४) पं. श्री रंगविजयजी
(५) पं. श्री तेजविजयजी (६) पं. श्री यशवंत विजयजी
(७) पं. कुशलविजयजी (८) पं. जितविजयजी
(९) पं. श्री श्रीविजयजी (१०) पं. श्री जय विजयजी (११) पं. हर्षविजयजी (१२) पं. श्री चंद्रविजयजी
(१३) पं. श्री हितविजयजी महाराज
आपके वर्त्तमान शिष्यमण्डल -
(१) आचार्यदेव श्रीमद्विजयहिमाचलसूरीश्वरजी (२) पंन्यासजी श्री कमलविजयजी
(३) प्रवर्तक श्री गुमानविजयजी
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ककन्या
== == ===== = === == श्री हितविजय जैन ग्रंथमाला की प्रकाशित
पुस्तकें तथा पट (१) श्री प्रतिक्रमण विधिप्रकाश, रचयिता.पं. हितवि. म. (२) हितस्तवनावली रचयिता प्र. गुमानविजयजी म. (३) स्तवन तथा शारदापूजन विधि , (४) भव्य गीत रचयिता मुमुक्षु भव्यानंद विजय
(५) भव्य बोल समुच्चय २ (६) हितपुष्प
(७) श्री नाकोडा तीर्थस्तोत्रम् (८) श्री नित्य स्मरणादि स्तोत्र संग्रह (९) श्री अनानुपूर्वी (१०) घर बैठे मुहूर्त देखें
(११) पञ्चक्खाण पट (हिन्दी) । (१२) पञ्चकल्याणकादि पट (हिन्दी तथा गुज०) ,
(१३) इरियाबहिय पट (हिन्दी तथा गुज०) , । (१४) जगद्गुरुहीर निबंध (हिन्दी तथा गुज०) ,
(१५) प्राचीन जिनेन्द्र गुणमाला सा. जितेन्द्र श्रीजी (१६) वीश विहरमान जिन परिचय पट मु. भव्यानंदविजय
(१७) हीरचरित्रम् (संस्कृत प्रताकारे) । (१८) हितवचन (१९) तत्ववेत्ता
पुखराज शर्मा मिलने का पत्ता-श्री हितसत्क ज्ञानमन्दिर
घाणेराव (मारवाड) वाया फालना
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0 -9-30-90- 9950-25-D6-
09
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