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________________ : ४८ : तत्त्ववेता अन्तिम संदेश आप धर्म की सेवा करते करते समयानुसार काफी वृद्ध हो गये। वृद्धावस्था में आपने अपना अधिक समय घाणेराव में ही बिताया। वृद्धावस्था में भी आप दिनभर बैठे बैठे शास्त्र पढते थे। आप की आँखों की रोशनी अच्छी थी। दांत भी सब मौजुद थे । केवल वृद्धावस्था की वजह से शरीर जीर्णशीर्ण-अशक्त हो गया था, मगर मनोबल श्रेष्ठ था। मानव सोचता है क्या ? पर होता है अन्यथा । एक वार पंन्यासजी महाराज अपने आसन से उठ रहे थे कि अचानक कमजोरी के कारण नीचे गिर पडे । कमर में चोट लग गई। उस दिन से चलना फिरना सर्वथा बंद यानि संथारावश हो गये । आप की सेवा में पं. हिम्मतविजयजी, गुमानविजयजी दोनों भाई सतत खडे थे । बिमारीकाल में संघ ने भी सुन्दर भक्ति की । पंन्यासजी की सरलता बडी अजब की थी। आपने उस समय कहा कि-हे हिम्मतविजय! मैं अब खडा नहीं होउंगा। मेरे लिये मांडी अभी बनवा दे, मैं अपनी आँखो से देख लूं। लोगो ने इस पर काफी रंज पैदा किया। होना भी स्वाभा विक ही है । लेकिन हिम्मतविजयजी ने तो गुरु की आज्ञा पाकर एक सुन्दर और बडी मांडी तैयार करवा दी। फिर आप अपनी नजर से उसे देख बडे प्रसन्न हुए। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035285
Book TitleTattvavetta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPukhraj Sharma
PublisherHit Satka Gyanmandir
Publication Year1954
Total Pages70
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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