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________________ तत्त्ववेत्ता रहता है । चाहे तीर्थङ्कर हो या चक्रवर्ती। तो मानव का तो पूछना की क्या ? आखिर विक्रम संवत् १९२६ के पोष कृष्णा ९ को सुबह पडिलेहण आदि से निवृत्त होते ही नित्य स्मरण करते हुए ध्यानावस्था में ही सदा के लिये स्वर्ग सिधार गये । इस दुःख के विषय में क्या लिखा जाय ? गुरुदेव के विछुडते ही हितविजयजी एक अनाथ से हो गये। वे रोज ही अपने गुरुदेव के उपकारों का स्मरण करते करते बहुत दुःखी होते, यहां तक कि वे कभी कभी बहुत दुःखी होकर रोने भी लग जाते । आखिर ठहरे तो छद्मस्थन ? यह तो स्वाभाविक ही है । हितविजयजी को अब तो वही प्रसंग याद आने लगा । जब कि प्रभु वीर के बिछुडने (मोक्ष जाने) पर गौतमस्वामी रो रो कर वीर....वीर करते कहते थे कि प्रभु! आपका यह कैसा प्रेम ? जो मुझे यहाँ छोड चले गये । इसी प्रकार हितविजयजी भी अपने गुरु के लिये दुःखी होकर बिलखते थे। ___धीरे धीरे आपने अपना कार्यभार संभाला। योगोद्वहन तो चल ही रहे थे अतः शेष योग की क्रिया अमदावाद स्थित डेह लाके उपाश्रय में विराजमान पंन्यासजी श्री उम्मेदविजयजी म. के द्वारा पूरी की गई। आपने भी बडे ही प्रेमसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035285
Book TitleTattvavetta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPukhraj Sharma
PublisherHit Satka Gyanmandir
Publication Year1954
Total Pages70
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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