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विशेष विवरण
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पंन्यासजी महाराज अब यहां से विहार कर संवत् १९४५ में अब अपनी दीक्षाकाल के ठीक ३२ वर्ष बाद उदयपुर पधारें । श्री संघने शानदार स्वागत किया । आप मालदासजी की सेरी में चाबाई की धर्मशाला में बिराजे | जो कि आपके दादा गुरुजी के उपदेशों द्वारा ही बनाई गई थी ।
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यहाँ पर भी कुपंथियों का पहले बडा जोर था । यहां भी आपने विरोधियों का मुकाबला किया । कुपंथी लोगों का इतना बोलबाला था की साधुओं को कही उपाश्रय में आश्रय तक नहीं मिलता था, अतः आपके दादागुरुजी श्री हर्ष - विजयजी महाराजने चाबाई नामक श्राविका को अगुआ बनाकर श्री संघ में से चंदा मंडा कर यह धर्मशाला बनवाई |
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पर यह धर्मशाला छोटी थी उसकी पूर्ति भी आपने ही की । आपके उपदेश से ही यह धर्मशाला अब विशाल रूप में मंदिरजी के साथ विद्यमान है । यह सब पूज्य पंन्यासजी महाराज की कृपा का सुमधुर फल है ।
संवत् १९४६ का चातुर्मास आपने इसी धर्मशाला में श्री संघ के अधिक आग्रह होने पर किया । इस चातुर्मास में बडी धूमधाम रही। आपकी विख्याति इतनी फैली की आपके सदुपदेश का पान करने के लिये उदयपुर के महाराणा साहब ने भी आपको अपने महल में आमंत्रित किया । आप
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