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विशेष विवरण
दीक्षा १९८० में घाणेराव में हुई । और जोग कराकर १९८५ में पंन्यास पद दे दिया । उस समय हिम्मतविजयजी नाम दिया था, पर वर्त्तमान में आचार्यदेव श्रीमद्विजयहिमाचलसूरीश्वरजी के नाम से प्रसिद्ध है ।
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पंन्यासजी महाराज के स्वभाव और विद्वत्ता के गुण से प्रभावित होकर आप के पास कई श्रावक दीक्षा के निमित्त आते थे, पर आपका ध्येय सदा संतोषपूर्ण होने से आप अधिक मोह में न पडे । आप तो इसी नीति के थे कि सपूत एक ही बहुत और कपूत अनेक होने पर भी कोई सार नहीं निकलता | इसी नीति के आधार पर आपने अधिक से अधिक शिष्य मूंडने का बिचार सदा के लिये अपने हृदय से निकाल दिया था । तो भी अपने जीवन में काफी शिष्य बनाने पडे । पहले तो आपने हर शिष्य को बहुत समझाया, पर अन्त में न मानने पर ही आपने विवश हो उसे दीक्षित किये ।
संवत १९८५ से लगाकर आपने अपने जीवन पर्यन्त घाणेराव में ही रहने का निर्णय किया । क्यों कि अवस्था काफी हो चूकी थी । शरीर असक्त हो गया था । फिर भी १९८८ का चातुर्मास करने के लिये खिमेल संघ के आग्रहवश पधार कर किया । आप बडे गाँवों की अपेक्षा छोटे गाँव में
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