Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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दोनों ही पदार्थके स्वरूप हैं एवं वे दोनों एकत्र अविनामावरूपसे रहते हैं। मतिश्रुतादिकमें जान सामान्यपना होनेपर भी सभी अपने २ स्वरूपसे भिन्न हैं । इस बातको प्रतिपादन कर आचार्यने प्रत्यक्ष आदि समी ज्ञानोंको स्वांशमें परोक्ष माननेवाले मीमांसकोंके, ज्ञानांतरोंसे बानका प्रत्यक्ष माननेवाले नैयायिकोंके, ज्ञानको अचेतन कहनेबाले सांख्योंके, मतका बहुत खूबीके साथ निरास किया है। पांचों ही ज्ञानोंके वैशधमें तारतम्य व क्रमवृद्धित्वका सयुक्तिक कथन यहां किया गया है। इस सूत्रकी व्याख्या ५८ वार्तिकोंसे की गई है। इससे आगे इन पांच ज्ञानोंको प्रमाण सिद्ध करने के लिए आगेके सूत्रका अवतार किया गया है कि 'तत्प्रमाणे '। इस सूत्रकी व्याख्यामें आचार्य विद्यानंदि महोदयने १८५ वार्तिकोंकी रचना की है । सबसे पहिले पांचों ज्ञान प्रमाणस्वरूप हैं, यह सिद्ध करते हुए महर्षिने अन्य मतोमें स्वीकृत एक दो तीन आदि प्रमाणोमें प्रमाणके सभी भेद अंतर्भूत नहीं होते है । इसलिए इस सूत्रके द्वारा प्रमाणके स्थूल भेद व स्वरूपका स्पष्ट निर्देश किया गया है, इससे अन्य सर्व विवादोंका अंत हो जाता है । जड इंद्रियोंको प्रमाण माननेवालोंका भी निराकरण ज्ञानको प्रमाण माननेसे हो जाता है । वैशेषिकोंके द्वारा माना हुआ सनिकर्ष भी प्रमाण नहीं है, सर्वथा मिन्न ऐसे ज्ञान और आत्मा भी प्रमाण नहीं है । प्रमिति, प्रमाण और प्रमाताका सर्वथा भेद नहीं है, सर्वथा अभेद भी नहीं है । कथंचित् भेद है। कथंचित् अभेद है, इत्यादि विवेचनके साथ स्याद्वादसिद्धांतसे इस विषयको बखूबी सिद्ध किया है।
बौद्धोंके द्वारा स्वीकृत तदाकारता भी प्रमाण नहीं है, ताद्रूष्य, तदुत्पत्ति और तदध्यवसाय ये तीनों ज्ञान के विषयको अव्यभिचरितरूपसे नियम नहीं करासकते हैं । सन्निकर्ष और तदाकारता आदिमें भी अन्वयव्यभिचार और व्यतिरेक व्यभिचार होते हैं। स्वसंवेदनाद्वैत भी प्रमाण नहीं हो सकता है, सम्यक्ज्ञानका प्रकरण होनेसे मिथ्याज्ञान, संशय आदिको भी प्रमाणता नहीं है। सम्यक्शद्वका अर्थ प्रशस्त है, अविसंवाद है। जितने अंशमें अविसंवादकत्व है उतने अंशमें प्रामाण्य है । मतिश्रुतको एकदेश प्रामाण्य है, अवधिमनःपर्ययको स्वविषयमें पूर्णरूपसे प्रमाणता है। केवलज्ञानको सर्व पदार्थोमें सर्वांशमें पूर्णरूपसे प्रमाणता है, इत्यादि प्रकारसे ज्ञानपंचकमें प्रमाणपना किस प्रकार घटित होता है इसका विस्तृत विचार किया गया है। प्रसंगवश स्मृति प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान आदि भी इन्ही प्रमाणद्वयमें ही अंतर्भूत होते हैं, उन्हे स्वतंत्र माननेकी आवश्यकता नहीं है, इसका विचार चलाकर प्रमाणकी उत्पत्ति स्वतः है या परतः, इसका भी विवेचन सयुक्तिक किया है । साथमें इस विषयपर अन्यदर्शनकारोंकी मान्यतापर भी विचार कर उसमें दोष दिया है । यहाँपर विद्यानंद स्वामीकी प्रमाणाप्रमाणकी व्यवस्थाका निरूपणकौशल सचमुचमें हृदयंगम है।
___ अग्रिमसूत्रमें आदिके दो ज्ञान मतिश्रुत उसे परोक्ष प्रमाणके रूपमें समर्थन किया है। यहाँपर आचार्यने अन्य वादियोंके द्वारा स्वीकृत अनेक प्रकारके फुटकर ज्ञानोंको केवळ मतिश्रुतमें अंतर्भूतकर परोक्ष प्रमाणमें ही उन्हे गर्भित किया है ।