Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 11
________________ ( ५ ) साधुसंत, विदेशमें धर्मप्रचार आदिके लिये भेट देकर जैनतत्वज्ञानको प्रभावना मदत करें। इस सेवासे भी महान् कार्य होगा । इस रूपसे हमारे कार्यमें मदत कर सकते हैं। (३) जो दानी सज्जन इस महान् कार्यके महत्वको जानकर अपनी ओरसे एक खंडके पूर्ण व्ययको देकर प्रकाशित कराना चाहते हैं, उसे हम साभार स्वीकार कर उनका चरित्र व चित्र उक्त खंड में प्रकाशित करेंगे। जो पूर्ण भार लेना नहीं चाहें अंशतः हजार दो हजार ही मदत करना चाहें तो वह भी सधन्यवाद स्वीकृत होगा । इस प्रकार धर्मप्रेमी सज्जन इस पवित्र कार्यमें विविध मार्गसे सहायता कर सकते हैं। हमारा कर्तव्य निवेदन करनेका है, किया है, देखें कौन आगे आते हैं। क्योंकि श्रुतभक्ति में स्वयंस्फूर्तिसे प्रदत्त दानका ही यथार्थ फल होता है । श्रुतभक्तिका फळ केवलज्ञानकी प्राप्ति है, अन्यथा वह अनंत-भवोमें भी दुर्लभ है । इतनी सब कठिनाईयों के बचिमें भी हम हमारी संस्था के माननीय सुयोग्य अध्यक्ष धर्मवीर रा. ब. केप्टन सर सेठ भागचंदजी सोनी महोदयकी सतत प्रेरणा, सहानुभूति एवं सत्परामर्शपूर्ण सहायता से इस कार्यमें आगे बढ रहे हैं। और शीघ्र ही आगे के खंडोंका भी प्रकाशन होकर पाठकोंके हात यह प्रंथराज पहुंचेगा । इस खंडका समर्पण. हमने प्रथम खंडका समर्पण परमपूज्य प्रातःस्मरणीय विश्ववंद्य चारित्रचक्रवर्ति आचार्य शांतिसागर महाराजके करकमलोमें, दूसरे खंडका समर्पण अनेकोपाधिविभूषित दानवीर ती. भ. शि. सर सेठ हुकुमचंदजीके करकमलोमें उनकी हीरकजयंती के अवसरपर किया था । इस तीसरे खंड का समर्पण श्रीमुनिराज तपोनिधि आचार्य नमिसागर महाराजके करकमलो में किया गया है । आचार्य महाराज आज कठिन तपस्वी एवं घोर परीषइजयी साधु हैं। उन्होने उत्तरभारत के अपने विहार से असंख्य जीवोंका कल्याण किया है। श्री परमपूज्य प्रातःस्मरणीय स्व. आचार्य कुंथूसागर महाराजके वे सहयोगी मुनिराज थे । उनके प्रति आपका विशेष आदर था । आचार्य कुंथूसागर महाराजकी स्मृति में संचालित इस संस्थापर भी पूज्य महाराजकी शुभाशिर्वादपूर्ण दृष्टि है । अतएव उनके करकमलो में आज यह ग्रंथ समर्पित हो रहा है । इसका हमें हर्ष है और इसमें औचित्य भी है । प्रकृतखंडका विषयपरिचय इस तीसरे खंड में ' मतिश्रुतावधिमनः पर्यय केवलानि ज्ञानम् ' इस सूत्र से प्रारंभ कर ज्ञानका स्वरूप और भेदों का विवेचन किया है । वार्तिककारने प्रथमसूत्रकी व्याख्यामें मति आदिके क्रम पूर्वक कथनकी उपपत्ति दिखाकर मति आदियोंको यथार्थज्ञान सिद्ध किया है । इसी प्रसंग में प्रत्येक पदार्थका स्वरूप सामान्य, विशेष, कथंचित् भेद, अभेदके रूपमें सिद्ध किया है । सामान्य विशेष

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