________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
परिवर्तित हो जाता है। इसे ही प्रक्रतिबंध कहते हैं। भावों की तीव्रता और मन्दता के अनुसार उस बन्ध में तीव्र या मन्द रस देने की शक्ति पड़ जाती है । इसे अनुभागबंध कहते हैं। इसी के अनुसार उन कर्म-परमाणुओं के जीव के साथ संलग्न रहने की अधिक या कम काल-मर्यादा उत्पन्न हो जाती है जो स्थितिबंध कहलाती है। यही कर्मबन्ध जीव को नाना गतियों, योनियों और अनुभवों में ले जाता है। इस क्रिया में कोई ईश्वर या परमात्मा भाग नहीं लेता। स्वयं जीव के अपने शुद्ध और अशुद्ध आवों के अनुसार कर्मबन्ध में उत्कर्ष-अपकर्ष आदि क्रियाएं होती रहती हैं।
जब जीव सतर्क होकर अपने भावों में राग-द्वेषात्मक विकारों को उत्पन्न नहीं होने देता सब पूर्वोक्त आस्रव व बग्ध को क्रिया का अवरोध हो जाता है जिसे 'संवर' कहते है। उपर्युक्त पांच व्रतों का व तदनुगामी अन्य नियमोपनियमों का परिपालन, उत्तम क्षमादि दश धर्मों का अभ्यास, अनित्यादि बारह भावनाओं का चिन्तन, आधा-तृषादि परीप हों पर विजय तथा धर्म और शुक्ल ध्यान आदि धार्मिक अनुष्ठानों का हेतु आस्रव व बन्ध के अवरोध-रूप संवर की प्राप्त करना ही है। इसी के साथ उक्त सक्रियाओं द्वारा पूर्व के बंधे हुए कर्मों का आय भी होना है जिसे 'निर्जरा' कहते हैं। यों को प्रत्येक कर्मबन्ध अपनी कालमर्यादा के भीतर अपना उचित फल देकर आत्मप्रदेशों से पथक हो जाता है। किन्तु इस 'सपाक निरा' से जीव का कल्याण नहीं होता, क्यों कि अपना स्वाभाविक फल देकर झड़ने में ही वह बन्ध जीव में ऐसे विकार उत्पन्न कर देता है जिससे और भी नया मार्म बन्ध उत्पन्न हो जाता है, और जीव आने दुःखानुभवों से मुक्ति नहीं पाना । किन्तु यदि पूर्वोक्त धार्मिक अनुष्ठानों द्वारा आस्रव का निरोध और कमों का भय किया जाय तो 'अपाक मिर्जरा' होती है जिससे जीव को कर्मों में छुटकारा मिलता है और आत्मा के स्वाभाविक दर्शन-ज्ञान रूप गुण प्रकट होते हैं ।
जब संवर' द्वारा कर्मबन्ध की पूरी रोक हो जाती है और निर्जरा' द्वारा पूर्व संचित समस्त कम नष्ट हो जाते हैं, तब जीव के स्वाभाविक गुण अनन्तजान, अनन्त दर्शन. अनन्त सुख और अनन्त वीर्य अपनी परिपूर्ण अवस्था में प्रकट होते हैं। यही 'मोक्ष' है व जीव की परमात्मत्व-प्राप्ति है।
जैनधर्म के सातों तत्त्वों का निरूपण हो चुका । इसे संक्षेप में हम इस प्रकार कह सकते है --जीव एक द्रव्य है और अजीव दूसरा । इन दोनों का परस्पर सम्पर्क रूप आस्रव और मेल रूप बन्ध होता है जिससे जीव नानाप्रकार के सुख-दुख का अनुभवन करता है। यदि इस सम्पर्क का अवरोध अर्थात् संवर कर दिया जाय, और संचित कर्मों की भी धार्मिक क्रियाओं द्वारा निर्जरा कर दी जाय तो जीव का मोक्ष हो जाता है और उसे अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति हो जाती है। आध्यात्मिक उत्कर्ष की सीढ़ियां
कबाब के घोरतम अन्धकार से निकलकर मोक्ष तक पहुंचने के लिये जिस आत्मोत्कर्ष की आवश्यकता होती है इसके चौदह दर्जे माने गये हैं जिन्हें
For Private And Personal Use Only