________________ प्रधान सम्पादक का पुरोवचन सत्रहवीं शती के महान् ज्योतिर्धर, न्यायविशारद, न्यायाचार्य, महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराज विरचित स्तोत्र-स्तवादि की संस्कृत पद्यमय कृतियों का 'यशोभारती जैन प्रकाशन समिति' की ओर से प्रकाशन होने से मैं अत्यन्त आनन्द तथा अहोभाग्य का अनुभव करता हूं इसके दो कारण हैं; एक तो यह कि एक महापुरुष की संस्कृतभाषा में निबद्ध पद्यमय महान् कृतियों के प्रकाशन की जबाबदारी से मैं हलका हो रहा हूँ और दूसरा यह कि ये सभी कृतियां हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित हो रही हैं। हिन्दी अनुवाद के साथ इन स्तोत्रों के प्रकाशन से अवश्य ही इनके पठन-पाठन में वृद्धि होगी। भक्तिभाव से, अोतप्रोत तथा काव्य एवं अलंकारों की दृष्टि से श्रेष्ठ कही जानेवाली इन कृतियों के आह्लादक रसास्वाद का पाठक अवश्य ही अनुभव करेंगे, इनके द्वारा जीवन में अनेक प्रेरणाएँ प्राप्त कर अनेक आत्माएँ भक्तिमार्गोन्मुख बनेंगी तथा वीतराग की भक्ति जीवन को वीतरागभाव के प्रति आकृष्ट करेगी। हमारा स्तुति-साहित्य आगमों के काल से ही पर्याप्त विस्तार को प्र.प्त है। प्रत्येक जिनभक्ति-सम्पन्न भविक अपने आत्मकल्याण के लिये प्रभुकृपा का अभिलाषी होता है / इस पर भी जो संवेगी मुनिवर्ग है वह तो सर्वतोभावेन मन, वचन और काया से प्रभु की शरण प्राप्त कर लेता है, अतः उसका प्रत्येक क्षण उपासना, नित्यक्रिया एवं व्याख्यानादि में ही बीतता है। प्राक्तन संस्कारों से तथा इस जन्म के स्वाध्याय से कवि-प्रतिभा-प्राप्त मुनिवर्ग इष्टदेव के चरणों में वाणी