Book Title: Sramana 2013 04
Author(s): Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 6
________________ सम्पादकीय अप्रैल-जून अंक २०१३, जिसका विषय जैन आगम और दर्शन है। जैन परम्परा में जीवन का प्रमुख लक्ष्य मोक्ष मार्ग है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी त्रिरत्न को मोक्ष मार्ग बताया गया है। तीर्थंकरोपदिष्ट त्रिरत्न का स्वरूप जानने का प्राचीनतम स्त्रोत आगम है। जैनागमों के सम्यक् अध्ययन के अभाव में जैन विद्या के स्वरूप का भलीभाँति ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता है। जैन आगम साहित्य और जैन दर्शन के क्षेत्र में नवीन विषयों पर लिखे लेखों को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से 'श्रमण' के इस अंक हेतु जैन आगम साहित्य और जैन दर्शन से सम्बन्धित लेख विद्वानों से आमन्त्रित किये गये थे। प्राप्त लेखों को अपने-अपने क्षेत्र के पारंगत विद्वानों के पास मूल्यांकन एवं सुझाव हेतु भेजा गया। उनके सुझावों के अनुसार लेखों में सुधारकर इन्हें प्रकाशित किया जा रहा है। हिन्दी के पाँच लेखों में से एक अंग आगमों में वासुदेव श्रीकृष्ण आगम साहित्य पर आधारित है। शेष सभी लेख जैन दर्शन सम्बन्धित हैं । जैन दार्शनिक साहित्य शीर्षक लेख में जैन दर्शन के ग्रन्थों का नाम-निर्देश ग्रन्थकार के अनुसार कालक्रम से किया गया है । अंग्रेजी के दोनों लेखों में से एक अर्धमागधी आगम के सम्पादन, अनुवाद, प्रकाशन एवं आगम साहित्य पर हुए शोध का विवरण प्रस्तुत करता है। दूसरा लेख जैन दर्शन से सम्बन्धित है और जैन द्रव्य - गुण और पर्याय की अवधारणा का मूल ग्रन्थों के आधार पर गम्भीर विवेचन करता है । पूज्य श्रमण-श्रमणियों का चातुर्मास आरम्भ हो चुका है। यह चातुर्मास आध्यात्मिकता से पूर्ण एवं सभी के लिए सब प्रकार से शुभ हो एसी मंगलकामना करते हैं। मुख पृष्ठः आगम उपदेशक भगवान महावीर जैन परम्परा में आगमों का वही स्थान है जो वैदिक परम्परा में वेद और बौद्ध परम्परा में त्रिपिटक का है। वेद अपौरुषेय हैं उनका कोई कर्त्ता नही है परन्तु वर्तमान जैन आगम एवं त्रिपिटक क्रमशः भगवान महावीर और भगवान बुद्ध के उपदेश माने जाते हैं। जैन आगमों के विषय में मान्यता है कि अर्हत् (अन्तिम तीर्थंङ्कर महावीर) ने अर्थ रूप में इनका उपदेश दिया था और शब्द रूप में ये गणधरों द्वारा रचित माने जाते हैं- आवश्यकनिर्युक्ति में कहा भी गया है - - अत्यं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणधरा निउणा । सासणस्स हियट्ठाए, तओ सुत्तं पवत्तइ ।। ९२ ।।

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