________________
१६
:
श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर / १९९६
अनेकान्तवाद की आवश्यकता
ई० पूर्व छठी शताब्दी भारतीय इतिहास में वैचारिक क्रान्ति का काल माना जाता है। इसमें आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक आदि सभी प्रकार के परिवर्तन देखे जाते हैं । खासतौर पर धर्म-दर्शन के क्षेत्र में मानो जैसे परिवर्तन की होड़ सी लग गयी थी, जिसकी जानकारी जैनागमों तथा त्रिपिटकों से होती है। जैनागमों से ज्ञात होता है कि महावीर के समय में उनके मत को छोड़कर ३६३ मतों का प्रचार-प्रसार था। बौद्ध त्रिपिटकों में भी वर्णन मिलता है कि बुद्ध के समय बौद्धमत के अलावा ७२ चिन्तन प्रणालियाँ थीं । किन्तु सभी मत एकान्तवादी थे। हर व्यक्ति अपने विचार के अलावा अन्य व्यक्ति के विचार को गलत समझता था । तत्त्व के सम्बन्ध में भी भिन्न-भिन्न मान्यताएँ देखी जा रही थीं। कोई तत्त्व को एक मानता था तो कोई अनेक, कोई नित्य मानता था तो कोई अनित्य, कोई कूटस्थ मानता था तो कोई परिवर्तनशील समझता था। किसी ने तत्त्व को सामान्य घोषित कर रखा था तो किसी ने विशेष । इस प्रकार के मत-मतान्तर से दर्शन के क्षेत्र में आपसी विरोध तथा अशान्ति की स्थिति थी और वैचारिक अशान्ति से व्यावहारिक जगत् भी प्रभावित था। एकान्तवाद के इस पारस्परिक शत्रुतापूर्ण व्यवहार को देखकर महावीर के मन में विचार आया कि इस क्लेश का कारण क्या है ? सत्यता का दंभ भरने वाले प्रत्येक दो विरोधी पक्ष आपस में इतने लड़ते क्यों हैं? यदि दोनों पूर्ण सत्य हैं तो फिर दोनों में विरोध क्यों ? इसका अभिप्राय है दोनों पूर्णरूपेण सत्य नहीं हैं। तब प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या दोनों पूर्णरूपेण मिथ्या हैं? ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि ये दोनों जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं, उसकी प्रतीति होती है। बिना प्रतीति के किसी भी सिद्धान्त का प्रतिपादन असम्भव है । अतः ये दोनों सिद्धान्त अंशतः सत्य हैं और अंशत: असत्य । एक पक्ष जिस अंश में सच्चा है, दूसरा पक्ष उसी अंश में झूठा है। दोनों के आपसी कलह का मुख्य कारण यही है । दूसरा पक्ष भी यही ठीक समझता है। अतः महावीर ने वैचारिक जगत् के दोषों को दूर करने का प्रयास किया। एक बार गणधर गौतम भगवान् महावीर के साथ विचारों के सागर में डूबे हुए थे कि एकाएक गौतम की निगाह सन्निकटवर्ती वृक्ष के एक भंवरे पर पड़ी। उन्होंने तत्क्षण महावीर से प्रश्न कियाभगवन्! यह जो भँवरा उड़ रहा है, उसके शरीर में कितने रंग हैं?
भगवान् ने गौतम की जिज्ञासा को शान्त करते हुए कहा
गौतम ! व्यवहार नय
की दृष्टि से भँवरा एक ही रंग का है और वह रंग काला है, किन्तु निश्चय नय की दृष्टि से शरीर में पाँच वर्ण हैं। ठीक इसी प्रकार गौतम गणधर ने गुड़ के सम्बन्ध में भी प्रश्न उपस्थित किया- भगवन् ! गुड़ में कितने वर्ण, कितने गंध, कितने रस और कितने स्पर्श हैं?
भगवान् महावीर ने कहा- गौतम! व्यवहार नय की दृष्टि से तो गुड़ मधुर है, किन्तु निश्चय नय की दृष्टि से इसमें पाँच वर्ण, दो गंध और आठ स्पर्श हैं । "
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International