________________
११३ : पुस्तक समीक्षा
सम्प्रदायों के विभिन्न मतों को प्रस्तुत कर उनकी तात्त्विक विवेचना की गई है। मूल्यों की दृष्टि से पुरुषार्थ चतुष्टय पद्धति और पञ्चकोषीय पद्धति दोनों में मोक्ष की चरम आदर्श के रूप में मान्यता का प्रस्तुतीकरण सुव्यवस्थित ढंग से किया गया है। ग्रन्थ के छठे अध्याय में तमिल भाषा के कवि वल्लुवर के कुरल नामक ग्रन्थ में प्रतिपादित त्रिवर्ग की समुचित उद्धरणों सहित सुस्पष्ट मीमांसा की गई है। जीवन के नैतिक मूल्य-न्यायनिष्ठता, अहिंसा तथा परस्त्री त्याग, आदि विषयों पर अर्थगाम्भीर्यपूर्ण सुन्दर उक्तियाँ भी उद्धत की गई हैं। सप्तम अध्याय में जैनधर्म में पुरुषार्थचतुष्टय का सविस्तार प्रतिपादन किया गया है, जैन दर्शन का अनेकान्तवाद एक सर्वव्यापी विचार है जिसके कारण धर्म और मोक्ष केवल इन्हीं दो पुरुषार्थों का जैनदर्शन प्रतिपादन करता है ऐसी मान्यता को ग्रन्थकार ने उचित नहीं बताया है क्योंकि जैनदर्शन अर्थ और काम पुरुषार्थों को सर्वथा हेय न मानकर उनकी मोक्षपरता स्वीकार करता है- इस तथ्य का सुचारु रूप से विवेचन किया गया है। अष्टम अध्याय में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह इन पञ्च व्रतों पर विचार करते हुए ग्रन्थकार का आशय है कि यद्यपि ये व्रत मूल्यों की कोटि में तो नहीं आते किन्तु वे जीवनपद्धति के मूल्यों को चरितार्थ करने के लिये आचरण सम्बन्धी सद्गुण रूप से एषणीय हैं। इस सन्दर्भ में जैनदर्शन, बौद्धदर्शन तथा वैदिक दर्शन में व्रतसम्बन्धी अवधारणा तथा व्रतसंख्या का साङ्गोपाङ्ग विवेचन किया गया है। नवम अध्याय में साधना पक्ष का प्रतिपादन करते हए योगशास्त्र का मूल्यवत्ता के सन्दर्भ में मूल्याङ्कन किया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता के कर्मयोग के साथ-साथ भक्तियोग और ज्ञानयोग की विस्तृत मीमांसा की गई है। जैनदर्शन में अभिप्रेत समत्वयोग (सामायिक) तथा पातञ्जल योग का तुलनात्मक विवेचन भी सुस्पष्ट शैली में किया गया है।
समग्र ग्रन्थ प्रसाद गुण युक्त शैली में लिखा गया है इसलिये गम्भीर विषय के भी अवबोध में कठिनाई नहीं होती, प्रतिपाद्य विषय का उपस्थापन सुरुचिपूर्ण है। तात्पर्यावगति में कहीं भी अवरोध न हो इसलिये ग्रन्थकार बेशक, बावजूद, जाहिर आदि उर्दू के शब्द प्रयोग भी नि:संकोच रूप से करता है। भारतीय दार्शनिक जगत् में मूल्यों के दो प्रतिमान-त्रिवर्ग और पुरुषार्थ चतुष्टय का साङ्गोपाङ्ग विवेचन किया गया है। मोक्ष नामक तुरीय पुरुषार्थ तो निरपेक्षरूप से स्वतन्त्र मूल्य है किन्तु अर्थ और काम की मूल्यवत्ता सापेक्ष है क्योंकि ये दोनों धर्मनियमित होने पर ही मूल्यता की कोटि तक पहँच पाते हैं-- इस सिद्धान्त का सम्यक्तया प्रतिपादन किया गया है। मूल्यों की वस्तुनिष्ठता अथवा
आत्मनिष्ठता पर भी पर्याप्त चिन्तन किया गया है। कलानुभूति के क्षेत्र में मूल्यबोध का विवेचन भी बड़ी सूक्ष्मता से किया गया है। इसी सन्दर्भ में आचार्य अभिनवगुप्त की सौन्दर्यानुभूति को विशुद्ध आनन्दानुभूति भूमि तक का सुस्पष्ट प्रतिपादन ग्रन्थकार की प्रतिभा का भव्य-विलास है। यद्यपि मूल्य शब्द के विभिन्न पर्यायों तथा उसकी विभिन्न
परिभाषाओं पर ऊहापोहपूर्वक विचार किया गया है। तथापि ऐसा लगता है कि ग्रन्थकार Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org