Book Title: Sramana 1996 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण H च Ha विद्यापीठ वाराणसी पार्श्वनाथ विद्यापीठ, !!!NFOQARAQ QOFTROS BRAND DO GREECE GR JXOMME अक्टूबर-दिसम्बर १६६६ वर्ष ४७ ] [ अंक १००१२ | पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी ersonal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण पार्श्वनाथ विद्यापीठ की त्रैमासिक शोध-पत्रिका [ अक्टूबर-दिसम्बर, १९९६ अंक १०-१२] प्रधान सम्पादक प्रोफेसर सागरमल जैन सम्पादक मण्डल डॉ० अशोक कुमार सिंह डॉ० शिवप्रसाद डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय प्रकाशनार्थ लेख - सामग्री, समाचार, विज्ञापन एवं सदस्यता आदि के लिए सम्पर्क करें प्रधान सम्पादक पार्श्वनाथ विद्यापीठ आई०टी०आई० मार्ग, करौंदी पो० ऑ० - बी०एच०यू० वाराणसी - २२१००५ दूरभाष: ३१६५२१ फैक्स श्रमण : ०५४२ - ३१६५२१ संस्थाओं के लिए व्यक्तियों के लिए एक प्रति वार्षिक सदस्यता शुल्क : रु०६०.०० रु०५०.०० रु० १५.०० आजीवन सदस्यता शुल्क : रु०१०००.०० : रु०५००.०० संस्थाओं के लिए व्यक्तियों के लिए यह आवश्यक नहीं कि लेखक के विचारों से सम्पादक सहमत हों Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण हिन्दी खण्ड प्रस्तुत अङ्क में पृष्ठ संख्या १-१३ १३-३५ ३६.५२ १. द्वन्द्व और द्वन्द्व निवारण (जैन-दर्शन के विशेष प्रसङ्ग में) - डॉ० सुरेन्द्र वर्मा २. अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता - डॉ० विजय कुमार ३. स्थानाङ्ग एवं समवायाङ्ग में पुनरावृत्ति की समस्या - डॉ० अशोक कुमार सिंह ४. तित्थोगाली (तिर्थोद्गालिक) प्रकीर्णक की गाथा संख्या का निर्धारण - अतुल कुमार प्रसाद सिंह ५. पिप्पलगच्छ का इतिहास - डॉ० शिवप्रसाद ५३-६४ ६५-८२ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण द्वन्द्व और द्वन्द्व निवारण (जैन दर्शन के विशेष प्रसंग में) - द्वन्द्व का अर्थ और स्वरूप आधुनिक मनोविज्ञान और समाज शास्त्र में द्वन्द्व (कंफ्लिक्ट) एक बहुत महत्त्वपूर्ण अवधारणा है किन्तु द्वन्द्व का स्वरूप, उसका स्तर और प्रारूप तथा द्वन्द्व का निराकरण आज भी बहुत कुछ एक समस्या बना हुआ है। प्रत्येक शास्त्र ने द्वन्द्व को अपनी-अपनी दृष्टि से देखा है। मनोविज्ञान जहाँ द्वन्द्व को मूलतः दो वृत्तियों के बीच संघर्ष की स्थिति के रूप में स्वीकार करता है, वहीं समाजशास्त्र द्वन्द्व में निहित दो पक्षों के बीच 'विरोध' पर बल देता है। राजनीति में द्वन्द्व को सशस्त्र युद्ध या / और शीत युद्ध के रूप में देखा गया है। डॉ॰ सुरेन्द्र वर्मा * फादर कामिल बुल्के ने अंग्रेजी - हिन्दी कोश' में 'कंफ्लिक्ट' के तीन अर्थ दिये हैं- युद्ध, संघर्ष या द्वन्द्व तथा विरोध । यह स्पष्ट है कि आज राजनीतिशास्त्र, मनोविज्ञान तथा समाजशास्त्र ने मोटे तौर पर इन तीनों ही अर्थों को क्रमशः स्वीकार कर लिया है। क्या प्राचीन भारतीय दर्शन में हमें द्वन्द्व की अवधारणा मिलती है ? हम इस प्रश्न को विशेषकर जैनदर्शन के प्रसंग में देखना चाहेंगे। महावीर की शिक्षाएँ हमें मुख्यत: प्राकृत भाषा में उपलब्ध हैं। प्राकृत में द्वन्द्व को 'दंद' कहा गया है। प्राकृत-हिन्दी कोश में दंद का एक अर्थ तो व्याकरण- प्रसिद्ध उभय पद- प्रधान समास से है। किन्तु स्पष्ट ही यह अर्थ हमारी द्वन्द्व-चर्चा में अप्रासंगिक है। अन्य अर्थ हैं - १. परस्पर विरुद्ध शीत - उष्ण, सुख-दुःख, आदि युग्म; २. कलह, क्लेश; और ३. युद्ध । समणसुत्तं के अन्त में जोड़े गए पारिभाषिक शब्द कोश में भी द्वन्द्व को इष्ट-अनिष्ट, दुःख-सुख, जन्म-मरण, संयोग-वियोग आदि परस्पर विरोधी युगल-भाव द्वारा परिभाषित किया गया है। *. प्रोफेसर - पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ उपर्युक्त अर्थों के विश्लेषण से द्वन्द्व के दो रूप स्पष्ट होते हैं। एक तो द्वन्द्र, युद्ध (या कहें, 'द्वन्द्व-युद्ध') के अर्थ में प्रयुक्त होता है और दूसरे, वह परस्पर विरोधी युगल भावों को अभिव्यक्ति देता है। दो विरोधी व्यक्तियों या दलों के बीच पूर्वनिश्चित या जाने माने नियमों के अनुसार प्रचलित शस्त्रों द्वारा युद्ध को द्वन्द्व (या द्वन्द्व-युद्ध) कहते हैं। ऐसे युद्ध प्राचीन काल में बहत से देशों में प्रचलित थे। भारत में वैदिक काल में भी द्वन्द्व युद्धों का प्रचलन मिलता है। उत्तर वैदिक काल में इनके सम्बन्ध में नये नियम बनाकर पूर्व प्रचलित प्रथा में सुधार किया गया। रामायण और महाभारत में द्वन्द्व-युद्धों के अनेक उल्लेख हैं। राम-रावण, बालि-सुग्रीव तथा दुर्योधन-भीम के युद्ध इसके उदाहरण हैं। जो बातें अन्य प्रकार से नहीं सुलझाई जा सकती थीं, उनके निर्णय के लिए यह नीति अपनाई जाती थी। इसके मूल में यह विश्वास था कि इन युद्धों में ईश्वर उसी को जिताता है जिसके पक्ष में न्याय होता है। द्वन्द्व-युद्धों का युग अब समाप्त हो चुका है। अब दो पक्षों (व्यक्ति नहीं) के बीच शस्त्र या शीत-युद्ध होते/चलते हैं। युद्ध के अतिरिक्त 'द्वन्द्व' परस्पर विरोधी युगल भावों को अभिव्यक्ति देता है। 'द्वन्द्र' के इस अर्थ में कई बातें निहित हैं १.द्वन्द्व बिना 'युग्म' के सम्भव नहीं है। शीत-उष्ण, सुख-दुःख, इष्ट-अनिष्ट, संयोग-वियोग, ऐसे ही युगल भाव हैं जो द्वन्द्व के लिए अनिवार्य हैं। ये युग्म विभिन्न क्षेत्रों से उठाए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए 'शीत-उष्ण' भौतिक परिवेश सम्बन्धी युग्म है जबकि संयोग-वियोग का क्षेत्र सामाजिक है। इष्ट-अनिष्ट, सुख-दु:ख आदि व्यक्ति की मनोदशाओं से सम्बन्धित हैं। जैनदर्शन में मनोवैज्ञानिक या आन्तरवैयक्तिक युग्मों का विशेषकर उल्लेख हुआ है। उदाहरण के लिए एक गाथा लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा और मान-अपमान के प्रति समानभाव विकसित करने के लिए कहती है। २.युग्म में विरोधी-भाव होना आवश्यक है। जिस युग्म में विरोधी-भाव नहीं होता, वह द्वन्द्व की स्थिति का निर्माण नहीं कर सकता। ऐसे तमाम युग्म गिनाए जा सकते हैं जो एक -दूसरे के पूरक होते हैं, विरोधी नहीं। ऐसे 'युग्म' द्वन्द्व को जन्म नहीं देते। द्वन्द्व के लिए युग्म का एक दूसरे का पूरक होना अनावश्यक है। उनका परस्पर विरोध में होना जरूरी है। सुख और शान्ति का युग्म एक दूसरे का विरोधी नहीं है, अत: इसमें द्वन्द्व असम्भव है। जैनदर्शन में कई स्थलों पर 'सुख और शान्ति' जैसे युग्मों का उल्लेख हुआ है लेकिन उन्हें कभी द्वन्द्वात्मक स्थिति में प्रदर्शित नहीं किया गया है क्योंकि वे एक दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वन्द्व और द्वन्द्व निवारण (जैन दर्शन के विशेष प्रसंग में) : ३. द्वन्द्व (और उसके निवारण) के लिए यह आवश्यक है कि हम 'विरोध' को जानें और समझें, उसके प्रति अवगत हों। जब तक 'विरोध' की पहचान नहीं होती, द्वन्द्व भी निर्मित नहीं होता। यह बात सामाजिक क्षेत्र में उपस्थित द्वन्द्व पर विशेषकर घटित होती है। मान-अपमान, न्याय-अन्याय की स्थितियों में जब तक विरोध 'देखा' नहीं जाता द्वन्द्व की स्थिति नहीं बन पाती। हजारों साल से शोषित और दलित वर्ग समाज में अपने अपमान के प्रति अवगत ही नहीं हो पाते और इसप्रकार यथा स्थिति बनाए रखने में मानो अपना योगदान ही देते हैं । जैनदर्शन में कई स्थलों पर मान-अपमान की स्थिति के प्रति अवगत कराने का प्रयास किया गया है- भले ही इसका उद्देश्य मान-अपमान की स्थिति के द्वन्द्व को समाप्त करना ही क्यों न रहा हो। एक स्थल पर महावीर मान-अपमान तथा हर्ष और क्रोध के द्वन्द्व की निरर्थकता बताते हुए हमें अवगत कराते हैं कि व्यक्ति अनेक बार उच्च गोत्र और अनेक बार नीच गोत्र का अनुभव कर चुका है अतः न कोई हीन है और न कोई अतिरिक्त (अर्थात् उच्च) । अतः स्पृहा न कर। ऐसे में भला कौन गोत्रवादी या मानवादी होगा और अपनी स्थिति पर आसक्ति रख सकेगा? इसलिए पुरुष को हर्षित / कुपित नहीं होना चाहिए।' महावीर हमें अपने द्वन्द्वात्मक स्थितियों के प्रति सदा जाग्रत रहने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। वे कहते हैं- अज्ञानी सदा सोते हैं और ज्ञानी सदा जागते हैं । ६ वैर (विरोध) से जिन्होंने अपने को उबार लिया है ऐसे जाग्रत व्यक्ति ही वस्तुतः वीर हैं । ७ ४. द्वन्द्व की अवस्था में युगल - भाव विरोध की स्थिति में होते हैं और दोनों ही पक्ष इस विरोध की स्थिति के प्रति अवगत होते हैं। इसके अतिरिक्त विरोध सदैव परस्पर और अन्तरसम्बन्धित होता है । यह अन्तरसम्बन्ध कुछ इस प्रकार का होता है कि एक पक्ष की हानि, दूसरे के लाभ के रूप में या एक का लाभ दूसरे की अपेक्षाकृत हानि के रूप में देखा जाता है। यदि एक का लाभ दूसरे को हानि न पहुँचाए तो द्वन्द्व की स्थिति बन ही नहीं सकती। यदि एक के लाभ में दोनों का लाभ हो अथवा एक की हानि में दोनों की हानि हो तो स्थिति विरोध की न होकर मैत्री की अधिक होगी। अतः कहा जा सकता है। कि विराध की स्थिति के निर्माण के लिए परस्पर विरोध ही नहीं बल्कि एकांगी दृष्टिकोण होना अत्यन्त आवश्यक है । परस्पर एकांगी दृष्टिकोण अपने लाभ में दूसरे की हानि और दूसरे की हानि में अपना लाभ देखता है। जैनदर्शन ने सदैव ही इस दृष्टि का खण्डन किया है, और इस प्रकार एकांगी दृष्टि के त्याग में ही द्वन्द्व के निराकरण को सम्भव बताया है। ५. द्वन्द्व की परिणति, उपर्युक्त परस्पर एकांगी दृष्टि के कारण अशुभ भावनाओं और भ्रष्ट आचरण में होती है। अशुभ भावनाओं को जैनदर्शन में 'कषाय' कहा गया है। कषाय-क्रोध, मान माया और लोभरूपी आत्मघातक विकार हैं। ज़ाहिर है ये सभी अशुभ-भावनाएँ द्वन्द्व की स्थिति में दूसरे पक्ष को हानि पहुँचाने में सहायक समझी गयी हैं लेकिन साथ ही ये आत्मघातक भी हैं। इन भावनाओं से प्रेरित व्यवहार भ्रष्ट व्यवहार है । द्वन्द्व में सदैव ही कोई न कोई उग्र उद्वेग संलग्न होता है जो व्यक्ति को एक विशेष Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ प्रकार के आचरण के लिए प्रेरित करता है और द्वन्द्व में उपस्थित इस उद्वेग का स्वरूप सामान्यत: नकारात्मक ही होता है। अत: द्वन्द्व के निराकरण के लिए इन नकारात्मक उद्वेगों को समाप्त करना अत्यन्त आवश्यक है। जैन दर्शन में न केवल ऐसे चार उग्र उद्वेगों (कषायों) का वर्णन किया गया है बल्कि उनसे मुक्ति के लिए कषायों की विपरीत भावनाओं को विकसित करने के लिए भी कहा गया है। द्वन्द्व के प्रकार द्वन्द्व का यदि हम क्षेत्रानुसार वर्गीकरण करें तो इसे कई स्तरों पर समझा जा सकता है। आन्तरवैयक्तिक द्वन्द्व मानसिक या मनोवैज्ञानिक द्वन्द्व है। इस प्रकार के द्वन्द्व को व्यक्ति अपनी दो परस्पर विरोधी या असंगत इच्छाओं/वृत्तियों के बीच अनुभव करता है। उदाहरण के लिए जब व्यक्ति अपनी किसी इच्छा की सन्तुष्टि चाहता है और इतर कारणों से यदि इसे सन्तुष्ट नहीं कर पाता तो वह ऐसे ही द्वन्द्व में फँसता है। 'चाहूँ' या 'न चाहूँ' का यह द्वन्द्व उसे नकारात्मक भावों से भर देता है। इस प्रकार मानसिक या मनोवैज्ञानिक द्वन्द्व विपरीत कामनाओं का और उनकी सन्तुष्टि-असन्तुष्टि का द्वन्द्व है। लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, निन्दा-प्रशंसा, मान-अपमान आदि भावनाओं से सम्बन्धित द्वन्द्व, जिनका जैन दार्शनिक साहित्य में यथेष्ठ उल्लेख हुआ है- इसी प्रकार के मानसिक द्वन्द्वों की ओर संकेत है। इस प्रकार के द्वन्द्व में व्यक्ति आन्तरिक रूप से टूट जाता है और समझ नहीं पाता कि वह क्या करे। आन्तरवैयक्तिक द्वन्द्व, व्यक्ति और व्यक्ति के बीच निर्मित होने वाले द्वन्द्व हैं। इस प्रकार के द्वन्द्व में दो व्यक्तियों के बीच अपने-अपने वास्तविक या कल्पित हित को लेकर विरोध होता है। इसमें एक व्यक्ति का हित दूसरे के अहित के रूप में देखा जाता है। सामुदायिक द्वन्द्व, व्यक्ति और समूह (समुदायों) के बीच का द्वन्द्व है। आन्तरसामुदायिक द्वन्द्व, दो समूहों (समुदायों) के बीच की द्वन्द्व है। संगठनात्मक द्वन्द्व, व्यक्ति और जिस संगठन में वह कार्य करता है उसके बीच का संघर्ष है। आन्तरसंगठनात्मक द्वन्द्व, दो संगठनों के बीच का द्वन्द्व है। साम्प्रदायिक द्वन्द्व, दो सम्प्रदायों के बीच का द्वन्द्व है। ज़ाहिर है द्वन्द्व के उपरोक्त सभी स्तर (प्ररूप) दो पक्षों के विपरीत हित-अहित के विरोध से उत्पन्न द्वन्द्व है। जैन दार्शनिक साहित्य में हमें द्वन्द्व के इन सभी स्तरों का क्रमिक विवेचन नहीं मिलता। लेकिन यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि जैनदर्शन द्वन्द्व के इन सभी प्ररूपों में आन्तरवैयक्तिक Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वन्द्व और द्वन्द्व निवारण (जैन-दर्शन के विशेष प्रसंग में) : ५ द्वन्द्व को सर्वाधिक महत्त्व देता है क्योंकि द्वन्द्व की आन्तरवैयक्तिक स्थिति ही अन्तत: सभी अन्य स्तरों पर किसी न किसी रूप में उपस्थित देखी जा सकती है। यदि व्यक्ति के अन्दर द्वन्द्व नहीं है तो स्पष्ट ही वह अपने बाह्य सम्बन्धों में द्वन्द्व की स्थिति नहीं बनने देता है। वस्तुत: द्वन्द्व के मोटे तौर से दो ही आयाम हैं-आन्तरिक और बाह्य। जिसने आन्तरिक द्वन्द्व - अपनी आत्मा में सम्पन्न होने वाले संघर्ष - पर विजय प्राप्त कर ली है, उसी को सच्चा सुख प्राप्त हो सकता है अर्थात् वही सुख-दु:ख का कर्ता और विकर्ता है। अविजित कषायं और इन्द्रियाँ- इन्हीं को जीत कर निर्बाध विचरण करना सर्वश्रेष्ठ हैं। अत: महावीर कहते है कि बाहरी युद्धों (द्वन्द्वों) से क्या? स्वयं अपने से ही युद्ध करो। अपने से अपने को जीत कर ही द्वन्द्व से मुक्त हुआ जा सकता है। किन्तु अपने पर यह विजय प्राप्त करना कठिन अवश्य है। आन्तरवैयक्तिक द्वन्द्व, जो व्यक्ति के आन्तरिक संघर्ष की ओर संकेत करता है, सभी अन्योन्य द्वन्द्वों के मूल में होता है। यदि मनुष्य आन्तरिक द्वन्द्व से उत्पन्न कषायों पर नियन्त्रण प्राप्त कर ले तो वस्तुत: सारे बाह्य द्वन्द्व स्वत: समाप्त हो जाते हैं। अध्यात्म से बाह्य तक एकरूपता है। जैनदर्शन का यह एक सामान्य सिद्धान्त है कि जो व्यक्ति अध्यात्म को जानता है बाह्य को भी जान लेता है। इसी प्रकार जो बाह्य को जानता है, अध्यात्म को जानता है। १० जैनदर्शन के इस सिद्धान्त को यदि हम द्वन्द्व-स्थिति पर घटित करें तो इससे यह पूरी तरह स्पष्ट हो जाएगा कि बाह्य और आन्तरिक द्वन्द्व का मल स्वरूप एक सा है। मनोवैज्ञानिक विरोधी युग्म-भावनाएँ जो आन्तरिक द्वन्द्व को जन्म देती हैं, वे ही बाह्य युद्ध और द्वन्द्व में भी उपस्थित रहती हैं। वस्तुतः लाभ-अलाभ, मान-अपमान, निन्दा-प्रशंसा की विरोधी युगल-भावनाएँ ही अन्तत: बाह्य द्वन्द्वों पर भी उतना ही क्रियाशील हैं जितनी व्यक्ति की आध्यात्मिक टूटन के लिए वे उत्तरदायी हैं। अत: बाह्य द्वन्द्वों से बचने के लिए भी मनुष्य को मूल रूप से स्वयं अपने से ही संघर्ष करना है- अपने कषायों पर ही विजय प्राप्त करना है। द्वन्द्व निराकरण के लिए दार्शनिक मनोगठन अनेकान्तवाद और स्याद्वाद जैनदर्शन में द्वन्द्व एक वाञ्छनीय स्थिति नहीं है। आधुनिक मनोविज्ञान और समाजशास्त्र भी द्वन्द्व का प्रतिफल नकारात्मक भावनाओं और अवाञ्छनीय आचरण में देखते हैं। किन्तु एक सीमित अर्थ में द्वन्द्व को रचनात्मक भी माना गया है। वस्तुत: आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार द्वन्द्व न तो अपने आप में शुभ है, न अशुभ क्योंकि उसके परिणाम कुल मिलाकर शुभ और अशुभ दोनों ही हो सकते हैं। रचनात्मक दृष्टि से द्वन्द्र को एक Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ ऐसे अवसर के रूप में देखा जा सकता है जो व्यक्ति/समाज के विकास और सृजनात्मकता के लिए सहायक है। द्वन्द्व व्यक्ति को कर्म के लिए प्रेरित करने वाला एक तत्त्व बन सकता है। ११ लेकिन, क्योंकि जैनों का समस्त दर्शन कर्म के क्षय पर टिका है इसलिए कर्म को प्रेरित करने वाले तत्त्व जैनदर्शन में शुभ नहीं माने जा सकते। द्वन्द्व इस प्रकार यदि कर्म को प्रेरित करता भी है तो भी शुभ नहीं है और यदि नकारात्मक उद्वेगों को सक्रिय करता है तो ऐसे में वह अशुभ ही है। अत: जैनदर्शन कुल मिलाकर विरोधी द्वन्द्व भावों से व्यक्ति को ऊपर उठ जाने के लिए प्रेरित करता है। वह द्वन्द्व-भावों के अतिक्रमण को ही श्रेष्ठ मानता है। किन्तु द्वन्द्व का यह अतिक्रमण कैसे किया जाए। इसके लिए कई (प्रविधियाँ) हो सकती हैं। किन्तु इन प्रविधियों का उपयोग मनुष्य तभी कर सकता है जब वह एक ऐसे उदार मनोगठन को स्वीकार करे जिसमें पक्षधरता न हो। द्वन्द्व में सदैव दो पक्ष होते हैं और हर पक्ष अपने विरोधी पक्ष को नकारता है, परपक्ष दृष्टि से वह द्वन्द्व की स्थिति को 'देख' ही नहीं पाता। एकांगी दृष्टि अपनाकर वह दूसरे पक्ष की दृष्टि को पूरी तरह ख़ारिज कर देता है। परन्तु जैनदर्शन का वैचारिक-गठन एकांगी नहीं है। वह अनेक आयामी है। जैनदर्शन मानता है कि हर वस्तु के अनन्त गुण होते हैं-अनन्तधर्मकं वस्तु'। सत्ता बहुरूपधारी है। आम तौर पर हर वस्तु को धर्मों (गुणों) के दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है। ये हैं, स्वपर्याय और परपर्याय। स्वपर्याय किसी भी वस्तु के वे गुण हैं जो उसके अपने स्वरूप के परिचायक हैं। ये भावात्मक धर्म हैं। परपर्याय वस्तु के अपने गुण न होकर दूसरी वस्तु के गुण होते हैं जिनसे किसी वस्तु की भित्रता को रेखांकित किया जाता है। हम मनुष्य का ही उदाहरण लें। उसका आकार, रूप, रंग, कुल, गोत्र, जाति, व्यवसाय, जन्मस्थान, निवासस्थान, जन्मदिन, आय, स्वास्थ्य आदि उसके भावात्मक धर्म हैं। इनसे उस व्यक्ति विशेष का परिचय और उसकी पहचान मिलती है। किन्तु किसी मनुष्य को पूर्णरूप से जानने के लिए यह भी जानना होगा कि वह क्या नहीं है। अन्य वस्तुओं और अन्य मनुष्यों से उसकी भिन्नता में भी उसे समझना होगा। ये उसके अभावात्मक लक्षण (पर पर्याय) होंगे। अत: एक वस्तु के बारे में अनन्त गणों और दृष्टिकोणों को लेकर अनन्त कथन किये जा सकते है। इस प्रकार किसी भी विषय के बारे में कोई भी कथन एकान्तिक या निरपेक्ष नहीं हो सकता। सारे कथन कुछ विशिष्ट स्थितियों और सीमाओं के अधीन होते हैं। अत: एक ही वस्तु के बारे में, जो दो भित्र दृष्टिकोणों से कथन किए जाते हैं वे एक दूसरे के विपरीत भी हो सकते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रत्येक कथन का सत्य सापेक्षिक है। यदि सही रूप से देखना है तो, जैन दर्शन के अनुसार, हमें प्रत्येक कथन के पहले 'स्यात्' अथवा 'कदाचित्' लगा देना चाहिए। इससे यह सङ्केतित हो सकेगा कि यह कथन Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वन्द्व और द्वन्द्व निवारण (जैन-दर्शन के विशेष प्रसंग में) : ७ सापेक्ष माना है, किसी एक दृष्टि या सीमा के अधीन है और किसी भी तरह निरपेक्ष नहीं हैं। ऐसा कोई कथन नहीं है जो पूर्णत: सत्य या पूर्णत: मिथ्या हो। सभी कथन एक दृष्टि से सत्य हैं तो दूसरी दृष्टि से मिथ्या हैं। इस प्रकार अनेकान्तवाद हमें स्याद्वाद की ओर स्वत: ले जाता है। यदि वस्तुस्थिति वास्तव में अनेकांतिक है तो यह आवश्यक है कि हम वस्तु से सम्बन्धित अपने कथन में 'स्यात् ' शब्द जोड़ दें। वस्तुओं की अनन्त जटिलता के कारण कुछ भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। बेशक इसका यह अर्थ नहीं है कि हम कोई कथन कर ही नहीं सकते। हाँ, निरपेक्ष या एकान्तिक कथन असम्भव है। वस्तु का गत्यात्मक चरित्र हमें केवल सापेक्षिक या सोपाधिक कथन करने के लिए ही बाध्य करता है। __ जैन दर्शनिकों ने अपने इस सिद्धान्त को उस हाथी के द्वारा समझाना चाहा है जिसके बारे में कई अन्धे व्यक्ति अपना-अपना कथन कर रहे होते हैं और वे अलग-अलग निष्कर्षों पर पहुंचते हैं। उनमें से हर कोई हाथी का अपने सीमित अनुभव द्वारा, ज्ञान प्राप्त कर पाता है। हर कोई हाथी के किसी एक हिस्से को छूता है और तदनुसार उसका वर्णन करता है जो उसका कान पकड़ लेता है वह हाथी को 'सूप' की तरह बताता है। जो उसके पैर पकड़ता है, वह उसे खम्भे की तरह बताता है, इत्यादि। सच यह है कि हाथी को अपनी सम्पूर्णता में किसी ने भी नहीं देखा है। हरेक ने केवल उसके किसी एक ही अङ्ग का स्पर्श किया है। इसलिए वस्तुत: कोई नहीं कह सकता कि सम्पूर्ण हाथी कैसा है। अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है 'हो सकता है हाथी सूप की तरह हो', अथवा हो सकता है वह खम्भे की तरह हो। ____ हो सकता है'; 'कदाचित् ', 'स्यात्', ये वे शब्द हैं जो बार-बार हमें याद दिलाते हैं कि हम यथार्थ को केवल आंशिक रूप से ही जान पाते हैं। स्याद्वाद इस प्रकार हमें अपने निर्णयों में अत्यन्त सावधानी के लिए आमन्त्रित करता है। वह वास्तविकता को परिभाषित करते समय हमें सभी प्रकार के मताग्रहों से बचने के लिए सावधान करता है। जैनदर्शन में स्याद्वाद के साथ दार्शनिक सूक्ष्मता और सुकुमारता मानों अपने चरम पर पहुँच जाती है। द्वन्द्व की स्थिति में प्रत्येक पक्ष एकान्तिक दृष्टिकोण अपनाता है और यही उसके निराकरण में सबसे बड़ी कठिनाई है। जब तक हम एकांतिक दृष्टि को अपनाये रहेंगे और दूसरे पक्ष के दृष्टिकोण को अनदेखा करते रहेंगे, हम द्वन्द्व को समाप्त करने की बात सोच ही नहीं सकते। इसलिए जैनदर्शन हमें सर्वप्रथम उस वैचारिक-मानसिक गठन को विकसित करने के लिए आमन्त्रित करता है जो अनेकान्त और स्याद्वाद की धारणाओं के अनुरूप हो। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ द्वन्द्व निराकरण की प्रविधियाँ आधुनिक मनोविज्ञान और समाजशास्त्र में द्वन्द्व निराकरण के अनेक उपाय बताए गए हैं। किन्तु ये सारे उपाय तभी सफल हो सकते हैं जब हम कुल मिलाकर अपने मानसिक गठन को इनके उपयुक्त बना सकें। कैट्स और लॉयर ने परस्पर विरोधी हितों पर आधारित द्वन्द्व के निराकरण हेतु जिस ओवरऑल फ्रेम (व्यापक मनोगठन) की चर्चा की है उसमें चार तत्त्व महत्त्वपूर्ण बताए गए है। ये हैं एक दूसरे के लिए सम्मान और न्यायप्रियता (Respect and Integrity ) सौहार्दपूर्ण सम्पर्क (Rapport) साधन सम्पन्नता (Resourcefulness) एक रचनात्मक वृत्ति (Constructive attitude) सम्मान और न्यायप्रियता का अर्थ है कि हम द्वन्द्व की स्थिति में दूसरे पक्ष के विरोधी आचरण के बावजूद उसके लिए एक सकारात्मक दृष्टि को बनाये रखें। हम उसके व्यवहार को भले ही अच्छा न समझें और उसे अस्वीकार कर दें पर मानव होने के नाते उसे जो प्रतिष्ठा और सम्मान मिलना चाहिए- उससे उसे वंचित न करें। न्यायप्रियता का अर्थ है हम अपने प्रति ईमानदार हों और जो भी कहें/ करें उसे अनावश्यक रूप से गुप्त न रखें। हमारा व्यवहार पादरी हो। उसमें हम केवल एक ही पक्ष के हित पर विचार न करें। द्वन्द्व के निराकरण हेतु यह भी आवश्यक है कि किसी भी हालत में हम दूसरे पक्ष से अपना सम्पर्क पूरी तरह तोड़ न लें। परिस्थिति को इस प्रकार ढालें कि एक सकारात्मक सम्बन्ध बना रह सके और दूसरा पक्ष हमारी बात सुनने/समझने के लिए तत्पर रहे। द्वन्द्व और तनाव से परिपूर्ण परिस्थितियों के दबाव में हम अक्सर एक प्रकार के मानसिक प्रमाद से ग्रस्त हो जाते हैं और उन संसाधनों के प्रति जिनका हम द्वन्द्व निराकरण के लिए उपयोग कर सकते हैं प्राय: उदासीन हो जाते है। अत: यह आवश्यक है कि हम निराकरण के प्रति अपनी पूरी जागरूकता बनाए रखें और अपनी सभी योग्यताओं और क्षमताओं का इस दिशा में पूरा-पूरा उपयोग कर सकें। यही साधन-सम्पन्नता है। और अन्त में रचनात्मक वृत्ति। जब तक हम रचनात्मक वृत्ति को नहीं अपनाते द्वन्द्व निराकरण असम्भव है। किसी भी पक्ष के लिए यह आवश्यक है कि वह इस बात के प्रति आश्वस्त हो कि द्वन्द्व का निराकरण, यदि उचित प्रबन्ध किया जाय Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वन्द्व और द्वन्द्व निवारण (जैन-दर्शन के विशेष प्रसंग में) : ९ तो अवश्य हो ही जाएगा। वह रचनात्मक वृत्ति द्वन्द्व से निपटने के लिए बहुत सहायक होती है। यदि हम ध्यान से देखें तो उपर्युक्त एक व्यापक मनोगठन- एक दूसरे के प्रति सम्मान और सौहार्दपूर्ण सम्पर्क तथा जागरूकता और रचनात्मक वृत्ति ठीक उसी प्रकार की दार्शनिक-मानसिक बनावट है जिसे हम जैनदर्शन के अनेकान्तवाद और स्याद्वाद में पाते हैं। द्वन्द्व की स्थिति में हम दूसरे पक्ष को समादर नहीं दे पाते इसका मूल कारण ही यह है कि हम एकांतिक दृष्टिकोण अपनाते हैं। यदि हमारा दृष्टिकोण यह हो कि दूसरा पक्ष भी अपने पक्ष की ही तरह सही या गलत हो सकता है तो दूसरे पक्ष के प्रति असम्मान के लिए कोई स्थान ही नहीं रहेगा। इसी प्रकार सौहार्दपूर्ण सम्पर्क भी तभी बना रह सकता है जब हम केवल अपने दृष्टिकोण को ही अन्तिम न मानकर , दूसरे पक्ष को समझने के लिए तत्पर हों। दूसरे के लिए भी अन्तत: अनेकान्तवादी मनोगठन की ही आवश्यकता है। अनेकान्तिक मनोगठन अपने आप में ही जागरूकता और रचनात्मक वृत्ति उत्पन्न करता है। जैनदर्शन में जैसा कि हम पूर्व में उल्लेख कर चुके हैं, जाग्रति पर बहुत बल दिया गया है। कहा गया है, अज्ञानी सदा सोते हैं और ज्ञानी सदा जागते हैं। १३ भाव-शुद्धि द्वन्द्व-निवारण के लिए एक व्यापक रूप से अनेकान्त दृष्टि तो आवश्यक है ही साथ ही कुछ मूर्त उपाय भी हैं जो द्वन्द्व समाधान की ओर निस्सन्देह सङ्केत करते हैं इनमें से एक है-भाव-शुद्धि। द्वन्द्व के स्वरूप को बताते हुए हमने यह रेखांकित किया था कि द्वन्द्व सदैव किसी न किसी उग्र- संवेग से आवेष्टित होता है और यह संवेग या भाव सदैव ही विकार युक्त होते हैं। जैनदर्शन में ऐसे चार विकार जिन्हें कषाय कहा गया है, बातए गए है- ये हैंक्रोध, मान, माया और लोभ। यदि हम 'शीतोष्णीय द्वन्द्व'१४ से निजात पाना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें इन कषायों पर विजय प्राप्त करनी होगी। इन पर विजय प्राप्त करने का आखिर तरीका क्या है? आगम कहता है कि मद, मान, माया और लोभ से रहित भाव ही भाव-शुद्धि है। १५ अत: यदि हम द्वन्द्व से विरत होना चाहते हैं तो इन कषायों से हमें अपने आप को मुक्त करना होगा। इसका उपाय यह है कि कषायों पर ध्यान न देकर उन मधुर-भावनाओं पर हम अपना ध्यान केन्द्रित करें, कषाय जिनके प्रतिपक्षी हैं। वे मधुर-भावनाएँ क्या हैं? कहा गया है कि क्रोध प्रीति को नष्ट करता है,मान विनय को नष्ट करता है, माया मैत्री को नष्ट करती और लोभ सब कुछ नष्ट कर देता है। १६ अत: कहा जा सकता है कि कषाय उन सारे Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ भावों—प्रीति, विनय, मैत्री आदि को- जो द्वन्द्व निराकरण में सहयोगी हो सकते हैंनष्ट कर देते हैं। कषायों पर विजय प्राप्त करना इसीलिए बहुत आवश्यक है। इन पर विजय किस प्रकार प्राप्त की जाए। आगम कहता है कि हम क्रोध का हनन क्षमा से करें, मार्दव से मान को जीतें, आर्जव से माया को और सन्तोष से लोभ को जीतें।१७ तात्पर्य यह है कि यदि हम कषायों पर विजय प्राप्त करना चाहते हैं तो यह आवश्यक है कि हम उन भावनाओं को, जागरूक होकर, अपने में विकसित करें जो कषायों का हनन करती हैं। इस प्रसंग में यहाँ जैनदर्शन की तुलना यदि योगदर्शन से की जाए तो वह दिलचस्प हो सकती है। जैनदर्शन के अनुसार कषायों पर-अर्थात् नकारात्मक आवेगों पर विजय प्राप्त करने के लिए हमें सृजनात्मक भावनाओं पर ध्यान देना चाहिए और उन्हें विकसित करना चाहिए। इस प्रकार यदि हम क्षमा, मार्दव, आर्जव और सन्तोष जैसे चारित्रिक गुणों का विकास करेंगे तो क्रमश: क्रोध, मान, माया और लोभ पर स्वत: विजय प्राप्त कर सकते हैं। इसके ठीक विपरीत योगदर्शन चारित्रिक गुणों के विकास के लिए उनकी प्रतिपक्ष भावनाओं पर ध्यान देने के लिए कहता है जो मनुष्य के लिए दुःख का कारण बनती हैं। यदि हम उन प्रतिपक्षी भावनाओं पर दु:ख के कारकों के रूप में ध्यान दें तो हम स्वत: चारित्रिक गुणों का विकास कर सकते हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि चारित्रिक गणों के विकास के लिए दोनों दर्शनों में भिन्न वृत्तियाँ अपनाई गई हैं। जैनदर्शन जबकि एक स्वीकारात्मक दृष्टिकोण को अपनाकर सर्जनात्मक भावनाओं के विकास पर बल देता है ताकि कषायों का हनन किया जा सके। योगदर्शन प्रतिपक्षी भावनाओं पर ध्यान देने के लिए प्रेरित करता है ताकि उनके दुःखद परिणामों को जानकर हम उनसे बाज आ सकें और सद्गुणों का विकास कर सकें। जो भी हो, भाव-शुद्धि आवश्यक है क्योंकि मान, माया, लोभ और क्रोध की उद्दाम भावनाएं द्वन्द्व की स्थिति को न केवल प्रश्रय देती हैं बल्कि बद से बदतर भी बनाती हैं। स्वयं को इन कषायों से मुक्त करने के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने में इनके विपरीत मधुर भावों को-मार्दव, आर्जव, सन्तोष और क्षमा को विकसित करें। मार्दव का अर्थ है, कुल, रूप, जाति, ज्ञान, तप, श्रुत और शील का व्यक्ति तनिक भी गर्व न करे। अपने अभिमान में मनुष्य दूसरों को अपमानित करता है और द्वन्द्व-स्थिति में दूसरे पक्ष को अपमानित करना बड़ा आसान होता है। इससे बचने के लिए मार्दव का विकास होना चाहिए। आर्जव कुटिल विचार, कुटिल वचन से अपने को बचाए रखना है। १९ सन्तोष लोभ को समाप्त करता है। जब सन्तोष होगा तो लोभ के लिए कोई स्थान रहेगा ही नहीं। क्षमा वस्तुत: मैत्री भाव का विकास है। यदि आपमें मैत्री भाव नहीं है तो आप क्षमा भी नहीं कर सकते। भले ही दूसरे का व्यवहार आपके दृष्टिकोण से कितना ही गलत क्यों न हो, किन्तु यदि आप उससे मैत्री बनाए रखते हैं और उसे क्षमा दे सकते हैं तो देर-सबेर वह Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वन्द्व और द्वन्द्व निवारण (जैन दर्शन के विशेष प्रसंग में) आपकी दृष्टि का भी सम्मान किए बगैर नहीं रह सकता । अतः द्वन्द्व निवारण की दशा में यह आवश्यक है कि हम अपने कषायों की भाव-: -शुद्धि करें और उन मधुर भावों का विकास करें, कषाय जिनके प्रतिपक्षी हैं। सामायिक द्वन्द्व निवारण के उपायों में, जिसे जैन दर्शन में 'सामायिक' कहा गया है, एक बहुत महत्त्वपूर्ण प्रविधि है। जहाँ द्वन्द्व है वहाँ विरोध है । द्वन्द्व से यदि विरोध की भावना को निरस्त कर दिया जाए तो द्वन्द्व, द्वन्द्व नहीं रहता। इसके लिए आवश्यक है कि हम समत्व की भावना का विकास करें। : ११ जैनदर्शन में 'समत्व' को एक मूल्य के रूप में स्वीकार किया गया है 'श्रमण' वही है जिसमें समत्व की भावना हो- “समयाए समणो होई" । २ समता, माध्यस्थभाव, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र, धर्म और स्वभाव आराधना- ये सभी एकार्थक शब्द हैं । २१ आत्मा को आत्मा के रूप में जानते हुए जो राग-द्वेष में समभाव रखता है, वही श्रमण पूज्य माना गया है । २२ वह लाभ और अलाभ में, सुख और दुःख में, जीवन और मरण में निन्दा और प्रशंसा में तथा मान और अपमान में समभाव रखता है । २३ समत्व-प्राप्ति के लिए ध्यान रूप होना आवश्यक है। सामायिक में समत्व की उपलब्धि के लिए ध्यान पर बल दिया गया है। तत्त्वानुशासन में कहा गया है कि चित्त को एकाग्र करके उसे विचलित न होने देना ही ध्यान है । २४ लेकिन चित्त को शुभऔर अशुभ दोनों पर ही केन्द्रित किया जा सकता है। प्रशस्त ध्यान, वह ध्यान है जो समत्व के शुभ परिणाम हेतु होता है। प्रशस्त ध्यान की साधना समत्व लाभ के लिए ही होती है। क्या समत्व साधना (सामायिक) एक आध्यात्मिक साधना मात्र है ? अथवा इसका कोई व्यवहार पक्ष भी हैं? डॉ० सागरमल जैन कहते हैं कि समत्वयोग का तात्पर्य चेतना का संघर्ष या द्वन्द्व से ऊपर उठ जाना है। यह जीवन के विविध पक्षों में एक ऐसा सांग सन्तुलन है जिसमें न केवल चैतसिक एवं वैयक्तिक जीवन के संघर्ष समाप्त होते हैं, वरन् सामाजिक जीवन के संघर्ष भी समाप्त हो जाते हैं, शर्त यह है कि समाज के सभी सदस्य उसकी साधना में प्रयत्नशील हों । २५ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ सन्दर्भ १. एस० चन्द्र एण्ड कं०, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित, १९९३, देखें शब्द कंफ्लिक्ट, पृ० १२८ २. अहमदाबाद / वाराणसी से प्रकाशित, १९८७ देखें, शब्द 'दंद' पृ०-४४८। ३. हिन्दी विश्व कोश, खण्ड ६, 'द्वन्द्व-युद्ध, पृ० १४३-१४४। ४. लाभालाभे, सुहे दुक्खे जीविए मरणो तहा । समो निन्दापसंसासु तहा माणावमाणओ ।। - समणसुत्तं, गाथा, ३४७ ५. आयारो, लाडनूं, सं २०३१, पृ० ८०-८१, गाथा, ४९-५१ । वही, पृष्ठ १२२, गाथा १। ७. वही, पृष्ठ १२४, गाथा ८। ८. देखें समणसुत्तं, गाथा-१३५-१३६ । ९. वही, गाथा, १२३-१२७। १०. जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ। जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ।। -आचारांग गाथा, १/७/५७। ११. देखें- कैट्स और लॉयर: कंफ्लिक्ट रेसोलुशन, सेज, कैलीफोर्निया, १९९३, पृ० १०। १२. वही, पृ० २९। १३. आयारो (पूर्वोक्त), पृ० १२२, गाथा, १। १४. यहाँ ध्यातव्य है कि आयारो (पूर्वोक्त) के तीसरे अध्ययन का शीर्षक 'शोतोष्णीय' है जो स्पष्ट ही सभी प्रकार के द्वन्द्व की ओर सङ्केत करता है। १५. नियमसार, १२२। १६. समणसुत्तं गाथा, १३५। १७. दशवैकालिक, ८/३८। १८. समणसुत्तं गाथा, ८८। १९. वही, गाथा, ९१। २०. वही, गाथा, ३४२।। २१. वही, गाथा, २७५। २२. वही, गाथा, ३४२। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वन्द्व और द्वन्द्व निवारण (जैन- दर्शन के विशेष प्रसंग में) २३. वही, गाथा, ३४७। २४. तत्त्वानुशासन, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट दिल्ली, श्लोक ५६ । २५. देखें, डॉ० सागरमल जैन-जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग, १९८२ पृ० १६-१७। रे मन ! अपने पर कर अनुशासन पंचेन्द्रियों पर हो जायेगा तेरा शासन | ? ? 1 पर तू बैठा-बैठा ही न जाने, कहाँ-कहाँ भागता रहता है याचक बन, न जाने क्या-क्या माँगता रहता है ऐसा अनन्तकाल से, करता-करता आया है । पुण्य-पाप, सुख-दुःख के झूले में अपने को सदा झुलाया काम, क्रोध, मान, माया, लोभ में तू भरमाया है अनमोल रतन चिंतामणि आत्मा को तूने भुलाया है समय रहते संयम, तप, त्याग के लिए कर जतन जिनवाणी का स्वाध्याय, कर चिन्तन मनन 1 मिथ्यात्व के अंधकार को चीर, सम्यक्त्व से कर मिलन । क्षयोपशम की प्रक्रिया से आगे आत्मोत्थान का कर सृजन । कर्मों के बंधन स्वयं टूटेगें, बस रहेगा ज्ञान का गगन बिना छुटाये छूटेगा सब मुक्ति करेगी स्वयं वंदन फिर सयोग से होगा अयोग की ओर कदम मोक्ष तू ही बंधन सभी शास्त्र-पुराण कहते, तू ही सम्यक् दर्शन ज्ञान - चारित्र मोक्ष पाने के साधन फिर भक्त नहीं भगवान् बन, सब करेगें तुझे नमन - रे मन ! - : १३ १. मन, वचन, काय की प्रवत्ति सहित योग / तेरहवाँ गुणस्थान (सयोगकेवली) २. जिसमें योगों का सर्वथा अभाव / चौदहवाँ गुणस्थान (अयोगकेवली) डॉ० (श्रीमती) मुन्नी जैन जयपुर Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता डॉ. विजय कुमार अनेकान्तवाद जैनधर्म दर्शन के प्रमुख सिद्धान्तों में से एक हैं, जो आग्रही मंतव्यों वैचारिक संघर्षों के समाधान की संजीवनी है। आज का जनजीवन संघर्ष से आक्रान्त है, विश्व में द्वेष और द्वन्द्व का दावानल सुलग रहा है। मानव अपने ही विचारों के कटघरे में आबद्ध है, आलोचना और प्रत्यालोचना का दुश्चक्र तेजी से चल रहा है। वह एकान्त पक्ष का आग्रही होकर अंधविश्वासों के चंगुल में फँसता जा रहा है। क्षुद्र व संकुचित मनोवृत्ति का शिकार होकर एक दूसरे पर छींटाकसी कर रहा है। वह अपने मन्तव्यों को सत्य और दूसरे के विचारों को मिथ्या सिद्ध करने पर तुला रहता है। "सच्चा सो मेरा'' सिद्धान्त को भूलकर "मेरा सो सच्चा' सिद्धान्त की घोषणा कर रहा है, जिसके परिणामस्वरूप समाज में अशान्ति की लहर दौड़ रही है। इतना ही नहीं, जब मानव में संकीर्णवृत्ति से उत्पन्न हए अहङ्कार, असहिष्णता आदि का चरमोत्कर्ष होता है तब धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में भी रक्त की नदियाँ बहने लगती हैं। ऐसी परिस्थितियों से उबरने के लिए ही जैन धर्म-दर्शन ने अनेकान्त का सिद्धान्त विश्व को प्रदान किया है। अनेकान्तवाद वह सिद्धान्त है जो ‘अनेक' में विश्वास करता है। अनेक का तात्पर्य है--- अनेक धर्म (लक्षण), अनेक सीमाएँ, अनेक अपेक्षाएँ, अनेक दृष्टियाँ आदि। जो किसी एक धर्म, एक सीमा, एक अपेक्षा तथा एक दृष्टि को सत्य मानता है और अन्य दृष्टियों को गलत कहता है, वह एकान्तवादी कहलाता है तथा जो अनेक धर्मों या अपेक्षाओं को मान्यता प्रदान करता है, वह अनेकान्तवादी कहलाता है। जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा से ऐसा ही ज्ञात होता है कि वह अनेक में विश्वास करता है। इसीलिए उसका तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त अनेकान्तवाद (Pluralism) अथवा सापेक्षतावाद (Theory of Relativity) के नाम से जाना जाता है। *. प्रवक्ता, अहिंसा, शांति और मूल्य-शिक्षा विभाग, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी-२२१००५। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता : १५ 'अनेकान्त' का शाब्दिक अर्थ 'अनेकान्त' शब्द दो शब्दों के योग से बना है- 'अनेक' + 'अन्त'। 'अन्त' शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ बताते हुए कहा गया है कि वस्तु में अनेक धर्मों के समूह को जानना अनेकान्त है।' 'न्यायदीपिका' में अनेकान्त को परिभाषित करते हुए कहा गया है- जिसके सामान्य-विशेष पर्याय व गुणरूप अनेक अन्त या धर्म हैं, वह अनेकान्त रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार 'समयसार' में कहा गया है- जो तत् है वही अतत् है, जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य है। ___इस प्रकार एक वस्तु में वस्तुत्व को उपजाने वाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकान्त है। अत: स्पष्ट है कि अनेकान्तवाद वह सिद्धान्त है जो अनेक अन्त या अनेक धर्मों में विश्वास करता है। यदि दूसरे शब्दों में कहें तो अनेकान्तवाद का अर्थ है- प्रत्येक वस्तु का भिन्न-भिन्न दृष्टियों से विचार करना, परखना, आदि। अनेकान्तवाद का यदि हम एक ही शब्द में अर्थ समझना चाहें तो उसे अपेक्षावाद कह सकते हैं। जैन दर्शन में सर्वथा एक ही दृष्टिकोण से पदार्थ का अवलोकन करने की पद्धति को अपूर्ण एवं अप्रामाणिक समझा जाता है और एक ही वस्तु में विभिन्न धर्मों को विभिन्न दृष्टिकोणों से निरीक्षण करने की पद्धति को पूर्ण एवं प्रामाणिक माना जाता है। यह पद्धति ही अनेकान्तवाद है। अनेकान्तवाद के प्रवर्तक यहाँ हमारे समक्ष दो दृष्टिकोण उपस्थित होते हैं- इतिहास और परम्परा। यदि हम परम्परा की दृष्टि से विचार करते हैं तो पाते हैं कि अनेकान्त के उद्भावक प्रथम तीर्थंकर आदिपुरुष ऋषभदेव हैं, जिन्होंने सर्वप्रथम यह उपदेश दिया। ऋग्वेद में ऋषभ और नेमिनाथ आदि तीर्थंकरों के नाम आये हैं, जिससे यह प्रतीत होता है कि अनेकान्त का प्रवर्तन वैदिक काल के पहले का है। परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से अनेकान्त के प्रवर्तक के रूप में जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थकर भगवान् महावीर का नाम आता है। जैसा कि भगवतीसूत्र से ज्ञात होता है कि महावीर ने स्वप्न में एक चित्र-विचित्र पुंस्कोकिल को देखा, जिसके कारण वे स्व-पर सिद्धान्तों से प्रेरित हुए। उन्होंने अपने मत के साथ अन्य मतों को भी उचित सम्मान दिया। उन्होंने जिस पुंस्कोकिल को देखा वह अनेकान्तवाद या सापेक्षवाद का प्रतीक था। उसके विभिन्न रंग, विभिन्न दृष्टियों को इंगित कर रहे थे। कोकिल का रंग यदि एक होता तो सम्भवतः महावीर एकान्तवाद का प्रतिपादन करते। किन्तु बात ऐसी नहीं थी, उन्हें तो अनेकान्तवाद को प्रतिष्ठित करना था और उन्होंने वैसा ही किया। परन्तु आचार्य बलदेव उपाध्याय के अनुसार अनेकान्तवाद के उद्भावक तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ हैं।' Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर / १९९६ अनेकान्तवाद की आवश्यकता ई० पूर्व छठी शताब्दी भारतीय इतिहास में वैचारिक क्रान्ति का काल माना जाता है। इसमें आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक आदि सभी प्रकार के परिवर्तन देखे जाते हैं । खासतौर पर धर्म-दर्शन के क्षेत्र में मानो जैसे परिवर्तन की होड़ सी लग गयी थी, जिसकी जानकारी जैनागमों तथा त्रिपिटकों से होती है। जैनागमों से ज्ञात होता है कि महावीर के समय में उनके मत को छोड़कर ३६३ मतों का प्रचार-प्रसार था। बौद्ध त्रिपिटकों में भी वर्णन मिलता है कि बुद्ध के समय बौद्धमत के अलावा ७२ चिन्तन प्रणालियाँ थीं । किन्तु सभी मत एकान्तवादी थे। हर व्यक्ति अपने विचार के अलावा अन्य व्यक्ति के विचार को गलत समझता था । तत्त्व के सम्बन्ध में भी भिन्न-भिन्न मान्यताएँ देखी जा रही थीं। कोई तत्त्व को एक मानता था तो कोई अनेक, कोई नित्य मानता था तो कोई अनित्य, कोई कूटस्थ मानता था तो कोई परिवर्तनशील समझता था। किसी ने तत्त्व को सामान्य घोषित कर रखा था तो किसी ने विशेष । इस प्रकार के मत-मतान्तर से दर्शन के क्षेत्र में आपसी विरोध तथा अशान्ति की स्थिति थी और वैचारिक अशान्ति से व्यावहारिक जगत् भी प्रभावित था। एकान्तवाद के इस पारस्परिक शत्रुतापूर्ण व्यवहार को देखकर महावीर के मन में विचार आया कि इस क्लेश का कारण क्या है ? सत्यता का दंभ भरने वाले प्रत्येक दो विरोधी पक्ष आपस में इतने लड़ते क्यों हैं? यदि दोनों पूर्ण सत्य हैं तो फिर दोनों में विरोध क्यों ? इसका अभिप्राय है दोनों पूर्णरूपेण सत्य नहीं हैं। तब प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या दोनों पूर्णरूपेण मिथ्या हैं? ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि ये दोनों जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं, उसकी प्रतीति होती है। बिना प्रतीति के किसी भी सिद्धान्त का प्रतिपादन असम्भव है । अतः ये दोनों सिद्धान्त अंशतः सत्य हैं और अंशत: असत्य । एक पक्ष जिस अंश में सच्चा है, दूसरा पक्ष उसी अंश में झूठा है। दोनों के आपसी कलह का मुख्य कारण यही है । दूसरा पक्ष भी यही ठीक समझता है। अतः महावीर ने वैचारिक जगत् के दोषों को दूर करने का प्रयास किया। एक बार गणधर गौतम भगवान् महावीर के साथ विचारों के सागर में डूबे हुए थे कि एकाएक गौतम की निगाह सन्निकटवर्ती वृक्ष के एक भंवरे पर पड़ी। उन्होंने तत्क्षण महावीर से प्रश्न कियाभगवन्! यह जो भँवरा उड़ रहा है, उसके शरीर में कितने रंग हैं? भगवान् ने गौतम की जिज्ञासा को शान्त करते हुए कहा गौतम ! व्यवहार नय की दृष्टि से भँवरा एक ही रंग का है और वह रंग काला है, किन्तु निश्चय नय की दृष्टि से शरीर में पाँच वर्ण हैं। ठीक इसी प्रकार गौतम गणधर ने गुड़ के सम्बन्ध में भी प्रश्न उपस्थित किया- भगवन् ! गुड़ में कितने वर्ण, कितने गंध, कितने रस और कितने स्पर्श हैं? भगवान् महावीर ने कहा- गौतम! व्यवहार नय की दृष्टि से तो गुड़ मधुर है, किन्तु निश्चय नय की दृष्टि से इसमें पाँच वर्ण, दो गंध और आठ स्पर्श हैं । " Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता : १७ अत: निश्चय नय से वस्तु के वास्तविक स्वरूप का परिज्ञान होता है और व्यवहार नय से बाह्य स्वरूप का। इस तरह वस्तु के अनन्त धर्म होते हैं। इसलिए किसी भी वस्तु के एक धर्म को सर्वथा सत्य मान लेना और दूसरे धर्म को सर्वथा मिथ्या कहना दोषयुक्त है। ऐसा कहना वस्तु-पूर्णता को खंडित करना है। परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले धर्म एक-दूसरे के विरोधी अवश्य हैं, परन्तु सम्पूर्ण वस्तु के विरोधी नहीं हैं। वस्तु में दोनों समान रूप से आश्रित होते हैं। दुनियाँ का कोई भी पदार्थ या कोई भी व्यक्ति अपने आप में भला या बुरा नहीं होता है। बदमाश, गुण्डा या दुराचारी मनुष्य का अन्तरात्मा भी अनन्त-अनन्त गुणों से युक्त होता है क्योंकि प्रत्येक आत्मा अनन्त-अनन्त गुणों से युक्त है। दुनियाँ में जड़ पदार्थ भी अनन्त है। सत्य भी अनन्त है। असत्य भी अनन्त है। धर्म भी अनन्त है और अधर्म भी अनन्त है। प्रकाश भी अनन्त है और अंधकार भी अनन्त है। एक छोटा सा जलकण भी अनन्त गुणसम्पन्न है और महासागर भी अनन्त गुणसम्पन्न है। उपाध्याय अमरमुनिजी ने वस्तु की अनन्तधर्मता को एक लघु कथा के माध्यम से बड़े ही सरल एवं सहज ढंग से प्रस्तुत किया है- एक राजा अपने नगर के आस-पास पर्यटन कर रहा था। साथ में मन्त्री भी था। घूमते-घूमते दोनों उस ओर निकल पड़े जिस ओर शहर का गंदा पानी एक खाई में भरा हुआ था, सड़ रहा था, कीड़े बिल-बिला रहे थे। उसे देखते ही राजा का मन ग्लानि से भर गया। वह नाक-भौं सिकोड़ने लगा। पास ही खड़े राजा के सुबुद्धि नामक मंत्री ने कहा_ “महाराज इस जलराशि से घृणा क्यों कर रहे हैं? यह तो पदार्थों का स्वभाव है कि वे प्रतिक्षण बदलते रहते हैं। जिनसे आज आप घृणा कर रहे हैं, वे ही पदार्थ एक दिन मनोमुग्धकारी भी बन सकते हैं।" इस तरह बातचीत करते हुए दोनों राजभवन में लौट आये और अपने-अपने कार्य में लग गए। कुछ दिनों के उपरान्त राजा के मन्त्री सुबुद्धि ने राजा के सम्मान में एक भोज का आयोजन किया। अपने घर बुलाकर सुन्दर एवं स्वादिष्ट भोजन कराया और पात्र में पीने के लिए पानी दिया। वह पानी इतना स्वादिष्ट एवं सरस था कि राजा पानी पीता ही गया, फिर भी उसके मन में पानी पीने की लालसा बनी रही। अंतत: राजा ने मन्त्री से पूछा"तुमने मुझे आज जो पानी पिलाया, ऐसा स्वच्छ, सुवासित एवं स्वादिष्ट जल मैंने आज तक नहीं पिया। तुमने यह जल किस कुएँ से मंगवाया था, मुझे भी बताओ? मंत्री ने कहा- राजन् यह पानी तो सर्वत्र सुलभ है। यही निकट जलाशय से मँगवाया है। महाराज ने जब जलाशय का नाम बताने का आग्रह किया तो मन्त्री ने कहा- महाराज यह मधुर एवं सुवासित जल उसी गंदी खाई का है जिसकी दुर्गन्ध से आप व्याकुल हो गये थे और नाक को बन्द कर लिया था।११ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ राजा ने साश्चर्य मुद्रा में मन्त्री से कहा- तुम मजाक तो नहीं कर रहे हो। मन्त्री ने विनम्र भाव से कहा- नहीं, मैं मजाक नहीं कर रहा हूँ, जो कुछ भी कह रहा हूँ वह सत्य है। यह कहते हुए मन्त्री ने इस गन्दे पानी को साफ करने की प्रक्रिया भी बतायी। अब राजा को विश्वास हो गया कि संसार का हर पदार्थ अत्यन्त गुण सम्पन्न है। यही अनेकान्तवाद है। अनेकान्तवाद के मौलिक आधार अनेकान्तवाद जैन दर्शन की आधारशिला है। जैन तत्त्वज्ञान का महल इसी अनेकान्त के सिद्धान्त पर टिका है। वस्तु के अनन्त धर्म होते हैं। इन अनन्त धर्मों में से व्यक्ति अपने इच्छित धर्मों का समय-समय पर कथन करता है। वस्तु के जितने धर्मों का कथन हो सकता है वे सब वस्तु के अन्दर होते हैं। व्यक्ति अपनी इच्छा से उन धर्मों का पदार्थ में आरोपण नहीं कर देता है। अनन्त या अनेक धर्मों के कारण ही वस्तु अनन्तधर्मात्मक कही जाती है। वस्तु के इन अनन्त धर्मों के दो प्रकार होते हैं- गुण और पर्याय। जो धर्म वस्तु के स्वरूप का निर्धारण करते हैं अर्थात् जिनके बिना वस्तु का अस्तित्व कायम नहीं रह सकता उन्हें गुण कहते हैं। यथा-मनुष्य में 'मनुष्यत्व', सोना में 'सोनापन'। मनुष्य में यदि 'मनुष्यत्व' न हो तो वह और कुछ हो सकता है, मनुष्य नहीं। वैसे ही यदि सोना में 'सोनापन' न हो तो वह अन्य कोई द्रव्य होगा, सोना नहीं। गुण वस्तु में स्थायी रूप से रहता है। वह कभी नष्ट नहीं होता और न बदलता ही है। क्योंकि उसके नष्ट हो जाने से वस्तु नष्ट हो जायेगी। गुण वस्तु का आन्तरिक धर्म होता है। जो धर्म वस्तु के बाह्याकृतियों अर्थात् रूप-रंग को निर्धारित करते हैं, जो बदलते रहते हैं, उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं, उन्हें पर्याय कहते हैं। जैसे- मनुष्य कभी बच्चा, कभी युवा और कभी बूढ़ा रहता है। गुण जो वस्तु में स्थायी रहता है जैसेमनुष्य बच्चा हो या बूढ़ा, स्त्री हो या पुरुष, मोटा हो या पतला, उसमें मनुष्यत्व रहेगा ही। किन्तु जब कोई व्यक्ति बालक से युवा होता है तो उसका बालपन नष्ट हो जाता है और युवापन उत्पन्न होता है। ठीक इसी प्रकार सोना कभी अंगूठी, कभी माला, कभी कर्णफूल के रूप में देखा जाता है जिसमें सोना का अंगूठी वाला रूप नष्ट होता है तो माला का रूप बनता है, माला का रूप जब नष्ट होता है तो कर्णफूल का रूप बनता है। ये बदलने वाले धर्म हमेशा उत्पन्न एवं नष्ट होते रहते हैं और गुण स्थिर रहता है। अत: जगत् के सभी पदार्थ उत्पत्ति, स्थिति और विनाश इन तीन धर्मों से युक्त होते हैं। एक ही साथ एक ही वस्तु में तीनों धर्मों को देखा जा सकता है। मिशाल के तौर पर, एक स्वर्णकार स्वर्णकलश तोड़कर मुकुट बना रहा है। उसके पास तीन ग्राहक पहुँचते हैं। जिनमें से एक को स्वर्ण घट चाहिए, दूसरे को स्वर्ण मुकुट चाहिए और तीसरे को केवल सोना। लेकिन स्वर्णकार की प्रवृत्ति देखकर पहले ग्राहक को दुःख होता है, दूसरे को हर्ष और तीसरे को न तो दुःख ही होता है और न ही हर्ष अर्थात् वह मध्यस्थ भाव Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता : १९ की स्थिति में होता है। तात्पर्य यह है कि एक ही समय में एक स्वर्ण में विनाश, उत्पत्ति और ध्रुवता देखी जा सकती है। इसी आधार पर जैन दर्शन में तत्त्व को परिभाषित करते हुए कहा गया है- सत् उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य यानी स्थिरता से युक्त है।१२ ___ जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा से जो लोग परिचित नहीं हैं, वे तुरन्त यह प्रश्न उपस्थित कर सकते हैं कि एक ही वस्तु में ध्रुवता तथा उत्पत्ति और विनाश कैसे हो सकता है? क्योंकि स्थायित्व और अस्थायित्व दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं। अत: एक ही वस्तु में परस्पर विरोधी धर्मों का समन्वय कैसे हो सकता है, किन्तु जैन दर्शन इसका समाधान करते हुए कहता है कि कोई भी वस्तु गुण की दृष्टि से ध्रुव है, स्थायी है तथा पर्याय की दृष्टि से अस्थायी है, उसमें उत्पत्ति और विनाश है। अनेकान्तवाद और स्याद्वाद अनेकान्तवाद के व्यावहारिक पक्ष को स्याद्वाद के नाम से विभूषित किया जाता है। स्याद्वाद अनेकान्तवाद का ही विकासमात्र है। ‘स्यात्' शब्द अनेकान्त का द्योतक है। १३ स्याद्वाद और अनेकान्तवाद दोनों एक ही हैं। इसका कारण यह है कि स्याद्वाद में जिस पदार्थ का कथन होता है, वह अनेकान्तात्मक होता है। दोनों में यदि कोई अन्तर है तो मात्र शब्दों का। स्यादवाद में स्यात् शब्द की प्रधानता है तो अनेकान्तवाद में अनेकान्त की। किन्तु मूलत: दोनों एक ही हैं। आचार्य प्रभाचन्द्र ने 'न्यायकुमुदचन्द्र' में कहा हैअनेकान्तात्मक अर्थ के कथन को स्याद्वाद कहते हैं। १४ 'स्यात्' शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ बताते हुए कहा गया है- स्यादिति वादः स्याद्वादः।१५ यहाँ हमें ‘स्यात्' शब्द के दो अर्थ देखने को मिलते हैं- पहला अनेकान्तवाद और दूसरा अनेकान्त के कथन करने की भाषा-शैली। जैन दार्शनिकों ने 'अनेकान्त' एवं 'स्यात्' दोनों शब्दों का एक ही अर्थों में प्रयोग किया है। इन दोनों शब्दों के पीछे एक ही हेतु रहा है और वह हैवस्तु की अनेकान्तात्मकता। यह अनेकान्तात्मकता अनेकान्तवाद शब्द से भी प्रकट होती है और स्याद्वाद से भी। अत: स्याद्वाद और अनेकान्तवाद दोनों ही एक हैं। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अन्तर है तो इतना कि एक प्रकाशक है तो दूसरा प्रकाश्य है, एक व्यवहार है तो दूसरा सिद्धान्त। एक और अनेक जैन दर्शन ने अपनी तत्त्वमीमांसा में यह प्रतिपादित किया है कि वस्तु के अनन्त धर्म होते हैं, किन्तु किसी वस्तु के अनन्त धर्मों को जानना हमारे लिए सम्भव नहीं है? अनन्त को तो कोई सर्वज्ञ ही जान सकता है, जिसे पूर्ण ज्ञान की उपलब्धि रहती है। सामान्यजन तो अनन्त धर्मों में से कुछ धर्मों को अथवा एक धर्म को ही जानते हैं। जैन दर्शन की भाषा में कुछ को यानी एक से अधिक धर्मों को जानना प्रमाण है तथा एक धर्म को जानना नय है। इस प्रकार नय न प्रमाण के अन्तर्गत आता है, न अप्रमाण के। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ जैसे समुद्र का एक अंश न समुद्र है और न असमुद्र बल्कि समुद्रांश है, उसी प्रकार नय भी प्रमाणांश है।१६ नय को परिभाषित करते हुए कहा गया है- प्रमाण से स्वीकृत वस्तु के एकदेश का ज्ञान कराने वाले परामर्श को नय कहते हैं।१७ ___ आचार्य प्रभाचन्द्र ने कहा है- प्रतिपक्ष का निराकरण करते हुए वस्तु के अंश को ग्रहण करना नय है। १८ प्रमाण, नय और दर्नय के भेद को स्पष्ट करते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने 'अन्य योग व्यवच्छेदद्वात्रिंशिका' में लिखा है '९ – वस्तु का कथन तीन प्रकार से होता है- 'सदेव' अर्थात् सत् ही है, 'सत्' अर्थात् सत् है, 'स्यात् सत्' अर्थात् कथंचित् सत् है। सत् ही है में भाषा में निश्चयात्मकता आ जाने से अन्य धर्मों का निषेध हो जाता है। “सत् है' में अन्य धर्मों के प्रति उदासीनता रखकर कथन की अभिव्यक्ति होती है। "स्यात् सत् है' में सत् को किसी अपेक्षा से माना गया है, क्योंकि वह ‘स्यात्' पद से युक्त है। उपर्युक्त तीनों कथनों में पहला प्रकार दुर्नय है, दूसरा प्रकार नय तथा तीसरा प्रकार प्रमाण यानी अनेकान्त है। नय ज्ञाता का एक विशिष्ट दृष्टिकोण है। एक ही वस्तु के विषय में अनेक दर्शकों के अनेक दृष्टिकोण होते हैं, जो परस्पर मेल खाते हुए प्रतीत नहीं होते तथापि उन्हें असत्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उनमें भी सत्य का अंश रहता है। २० जैन दर्शन यह मानता है कि प्रत्येक वस्तु में एकता तथा अनेकता है। जीव द्रव्य की एकता और अनेकता का प्रतिपादन करते हुए महावीर ने कहा है- सोमिल! द्रव्य दृष्टि से मैं एक हूँ। ज्ञान और दर्शन की दृष्टि से मैं दो हूँ। न बदलने वाले प्रदेशों की दृष्टि से मैं अक्षय हूँ, अव्यय हूँ, अवस्थित हूँ। बदलते रहने वाले उपयोग की दृष्टि से मैं अनेक हूँ। २१ इसी प्रकार अजीव द्रव्य की एकता और अनेकता का स्पष्टीकरण करते हए उन्होंने कहा है- हे गौतम! धर्म स्तिकाय द्रव्य दृष्टि से एक है, इसलिए वह सर्वस्तोक है। वहीं धर्मास्तिकाय में प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यात् गुण भी हैं। २२ अधर्मास्तिकाय आकाश आदि द्रव्य दृष्टि से एक और प्रदेश दृष्टि से अनेक हैं। एक अनेक के सिद्धान्त को और भी सरल तरीके से इस प्रकार समझा जा सकता है कि मान लें राम एक व्यक्ति है। उसकी ओर इशारा करते हुए हम कई लोगों से पूछते हैं- यह कौन है? हमारे इस प्रश्न के उत्तर में क्रमश: प्रत्येक व्यक्ति कहता है- पहला-राम जीव है। दूसरा-राम मनुष्य है। तीसरा- राम क्षत्रिय है। चौथा- राम मेरा पिता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि उत्तरों में विभिनता है, फिर भी वे सब सत्य हैं। प्रथम व्यक्ति राम को एक पूर्ण द्रव्य के रूप में देखता है। दूसरा पयार्य के रूप में। तीसरा भी पर्याय के रूप में तथा बाकी के उत्तरदाता और अधिक सूक्ष्मता से पर्याय के भिन्न-भिन्न रूपों को देखते हैं। अत: प्रथम व्यक्ति को राम कहने का अधिकार है किन्तु राम मनुष्य नहीं है, कहने का अधिकार नहीं है। इसी तरह दूसरे व्यक्ति को 'राम मनुष्य है' कहने का अधिकार है किन्तु राम जीव नहीं है, कहने का अधिकार नहीं है, क्योंकि राम में जीव एवं मनुष्यत्व दोनों विद्यमान हैं। इस तरह Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता : २१ हम देखते है कि द्रव्यार्थिक रूप में जीव में एकता है, परन्तु पर्यायार्थिक दृष्टि से अनेकता है। नित्यता और अनित्यता सत् के विषय में विद्वानों में मत-भिन्नता देखी जाती है। कोई इसे नित्य मानता है तो कोई अनित्य। इस सम्बन्ध में वेदान्त दर्शन अपरिवर्तनशीलता को स्वीकार करता है तो बौद्ध दर्शन परिवर्तनशीलता को। यहाँ जैनदर्शन की मान्यता है कि प्रत्येक वस्तु नित्य और अनित्य दोनों है। गुण की दृष्टि से वस्तु में नित्यता देखी जाती है और पर्याय की दृष्टि से अनित्यता। यथा-आम्रफल हरा रहता है किन्तु कालान्तर में वह पीला हो जाता है। फिर भी वह रहता आम्रफल ही है। वस्तु का पूर्व पर्याय नष्ट होता है और उत्तर पर्याय उत्पन्न होता है किन्तु वस्तु का मूल रूप सदा बना रहता है। अत: सत्य नित्य भी है और अनित्य भी है। मिट्टी का एक घड़ा जो आकार, स्वरूप आदि से ही विनाशशील लगता है क्योंकि वह बनता और बिगड़ता रहता है। घड़े का अस्तित्व न तो पहले था और न बाद में रहेगा। किन्तु मूल स्वरूप में मिट्टी मौजूद थी और घड़े के बनने के बाद भी तथा घड़े के नष्ट हो जाने पर भी मौजूद रहेगी। अतः प्रत्येक वस्तु नित्य एवं अनित्य है। साधारणत: दीपक के विषय में ऐसी धारणा है कि इसमें अनित्यता होती है, क्योंकि वह बुझ जाता है। दीपक के विषय में अन्य दर्शनों की भी यही धारणा है। लेकिन जैन दर्शन का कहना है कि अग्नि या तेज की दो पर्यायें होती हैं- प्रकाश और अंधकार। जब एक पर्याय नष्ट होती है तो दूसरी पर्याय आती है। प्रकाश के नष्ट होने पर अंधकार आता है और अंधकार के नष्ट होने पर प्रकाश आता है। पर्यायें बदलती रहती हैं। परन्तु अग्नि का अग्नित्व या तेजत्व नष्ट नहीं होता। अभिप्राय यह है कि दीपक जिसे हम अनित्य मानते हैं वह मात्र अनित्य ही नहीं, बल्कि नित्य भी है। इसी प्रकार आकाश को सामान्यत: नित्य माना जाता है। अन्य दर्शन भी ऐसा मानते हैं क्योंकि आकाश अपने गुण के कारण नित्य तथा पर्याय के कारण अनित्य है। जैन दर्शन में आकाश को अजीव माना गया है। इसका सामान्य धर्म आश्रय देना है। यह इसका गुण है। किन्तु विशेष व्यक्ति अथवा वस्तु को जो आश्रय इसके द्वारा दिये जाते हैं, वे उत्पन्न एवं नष्ट होते हैं। यथा- एक व्यक्ति कमरे में बैठा है। इस समय वह आकाश के अन्दर एक निश्चित आश्रय को प्राप्त कर रहा है लेकिन थोड़ी देर बाद वह कमरे से निकलकर मैदान में बैठ जाता है तो ऐसी स्थिति में उसका आश्रय जो कमरे में था, नष्ट हो गया और मैदान में उत्पन्न हो गया। पहले उसकी उपस्थिति कमरे में थी अब मैदान में हो गयी। यही आकाश के द्वारा दिए गये आश्रय का उत्पन्न तथा नाश होना है। आकाश का पयार्य आकाश की अनित्यता है तथा सामान्य रूप से सबको आश्रय देना आकाश का गुण है जो आकाश की नित्यता है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ इसी प्रकार जीव की नित्यता एवं अनित्यता के विषय में भगवान् महावीर ने कहा है गौतम! जीव किसी दृष्टि से शाश्वत है तो किसी दृष्टि से अशाश्वत। गौतम! द्रव्यार्थिक दृष्टि से जीव शाश्वत है तो भावार्थिक दृष्टि से अशाश्वत।२३ अर्थात् जीव में जीवत्व का कभी अभाव नहीं होता। जीव चाहे किसी भी अवस्था में हो, जीव ही होता है। यह द्रव्यार्थिक दृष्टि है। इस संदर्भ में जीव नित्य है। जीव किसी न किसी पर्याय में होता है। एक पर्याय को छोड़कर दूसरी पर्याय को ग्रहण करता है। यह पर्यायार्थिक दृष्टि है। इस सन्दर्भ में जीव अनित्य है। लोक की सीमितता और असीमितता के सवाल का समाधान भी इसी प्रकार किया है लोक द्रव्य दृष्टि से सान्त है, क्षेत्र दृष्टि से सान्त है, काल दृष्टि से अनन्त है और भाव (प्रक्रिया) दृष्टि से अनन्त है।२४ लोक को चार प्रकार से जाना जाता है- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप से। द्रव्य की दृष्टि से लोक सान्त है, क्योंकि वह संख्या में एक है। क्षेत्र की दृष्टि से भी सान्त है, क्योंकि सम्पूर्ण आकाश के कुछ क्षेत्र में ही लोक का वास है। काल की दृष्टि से लोक अनन्त है क्योंकि वर्तमान, भूत और भविष्य का कोई क्षण ऐसा नहीं जिसमें लोक का अस्तित्व न हो। ऐसे ही भाव की दृष्टि से भी लोक अनन्त है, क्योंकि एक लोक के अनन्त पर्याय हैं। इस तरह जैन दर्शन नित्यता एवं अनित्यता के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है। यही अनेकान्तवाद है। सामान्य और विशेष सामान्य और विशेष के विषय में भी मतमतान्तर पाये जाते हैं। कोई सिर्फ सामान्य की सत्ता को स्वीकार करता है तो कोई केवल विशेष की सत्ता को। वेदान्त, सांख्य, मीमांसा आदि सामान्य की सत्ता को स्वीकार करते हैं। इन लोगों का कहना है कि जो कुछ भी है सामान्य है, सामान्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यदि सामान्य न हो तो विशेष का अस्तित्व ही न हो। 'मनुष्यत्व' सामान्य है और मनुष्यत्व के बिना राम, मोहन, सोहन आदि विशेष मनुष्यों का अस्तित्व नहीं हो सकता है। अत: सामान्य की ही सत्ता है। ठीक इसके विपरीत बौद्ध दर्शन की मान्यता है। बौद्ध दर्शन विशेष की सत्ता में विश्वास करता है। विशेष के कारण ही किसी की सत्ता होती है। सामान्य की सत्ता विशेष से अलग नहीं हो सकती। क्या मनुष्यत्व राम, श्याम आदि मनुष्यों से अलग पाया जा सकता है? नहीं! अत: तत्त्व सामान्य नहीं बल्कि विशेष है। वैशेषिक दर्शन सामान्य और विशेष दोनों की सत्ता में विश्वास करता है, लेकिन दोनों को अलग-अलग मानते हुए कहता है कि सामान्य-विशेष दोनों ही समवाय सम्बन्ध से सम्बन्धित हैं। जैन दर्शन का कथन इन सब मान्यताओं से बिल्कुल अलग है। जैन दर्शन वैशेषिक दर्शन की भाँति सामान्य और विशेष दोनों की सत्ता मानता है, परन्तु अलग-अलग नहीं। दोनों ही सापेक्ष हैं। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता : २३ मनुष्यत्व के बिना किसी मनुष्य विशेष का बोध नहीं हो सकता और मनुष्य विशेष के बिना मनुष्यत्व (सामान्य) कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। अत: सामान्य और विशेष दोनों ही सापेक्ष हैं, एक दूसरे पर आधारित हैं। इस तरह सामान्य और विशेष दोनों सापेक्षतः देखे जाते हैं। यही जैन दर्शन का अनेकान्तभाव है। अस्ति और नास्ति अस्ति-नास्ति दो एकान्तवादी पक्ष हैं। एक पक्ष कहता है कि सर्व अस्ति तो दूसरा पक्ष कहता है कि सर्व नास्ति। इस तरह दोनों पक्षों में संघर्ष होता है, क्योंकि दोनों ही एकान्तवादी हैं। अनेकान्तवाद ही सही अर्थों में इस संघर्ष का एक मात्र समाधान है। भगवान् महावीर ने सर्व अस्ति एवं सर्व नास्ति दोनों पक्षों का अनेकान्त द्वारा समर्थन किया है। उन्होंने कहा है कि जो अस्ति है, वही नास्ति है। 'भगवतीसूत्र' में२५ कहा गया है- हम जो अस्ति है उसे अस्ति कहते हैं, जो नास्ति है, उसे नास्ति कहते हैं। प्रत्येक पदार्थ है भी और नहीं भी है। अपने निज स्वरूप से है और परस्वरूप से नहीं। अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता, पितारूप में सत है और पर रूप की अपेक्षा से पिता, पितारूप में असत् है। यदि पर-पुत्र की अपेक्षा से पिता ही है तो वह सारे संसार का पिता हो जायेगा, जो असम्भव है। इसे और भी सरल भाषा में हम इस तरह कह सकते हैं- गुड़िया चौराहे पर खड़ी है। एक ओर से छोटा बालक आता है, वह उसे माँ कहता है। दूसरी ओर से एक वृद्ध आता है, वह उसे पुत्री कहता है। तीसरी ओर से एक युवक आता है, वह उसे पत्नी कहता है। इसी तरह कोई ताई, कोई मामी, तो कोई फूफी और कोई दीदी कहता है। सभी एक ही व्यक्ति को विभिन्न नामों से सम्बोधित करते हैं तथा परस्पर संघर्ष करते हैं कि यह तो माँ ही है, पुत्री ही है, पत्नी ही है, दीदी ही है आदि.....। अब प्रश्न उठता है कि आखिर गुड़िया है क्या? इस समस्या का समाधान एक ही है और वह हैअनेकान्तवाद। अनेकान्तवाद का कहना है कि यह तुम्हारे लिए माँ है क्योंकि तुम इसके पुत्र हो पर अन्य लोगों के लिए यह माँ नहीं है। वृद्ध से कहता है कि यह पुत्री भी है, आपकी अपनी अपेक्षा से, सब लोगों की अपेक्षा से नहीं। येन-प्रकारेण अपनी-अपनी अपेक्षा से ताई, मामी, दीदी आदि सब कुछ है। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रत्येक वस्तु के दो पहलू हैं-है भी, नहीं भी। दर्शन की भाषा में यही अनेकान्तवाद है। 'ही' वाद और 'भी' वाद संसार में दो वाद पाये जाते हैं- 'ही' वाद और 'भी' वाद। 'ही' वाद कहता है'मैं ही सच्चा हँ' अर्थात् मेरा कथन सत्य है और मेरे सिवा सभी सम्प्रदायों का कथन असत्य हैं। ठीक इसके विपरीत 'भी' वाद वाला कहता है- 'मैं भी सच्चा हूँ' अर्थात् मेरे सिवा दूसरे सम्प्रदायों का कथन भी सत्य है। वह भी किसी एक दृष्टि से सत्यवादी है। दूसरे शब्दों में-ही मत के अनुयायी का कहना है कि दिन ही है और भी मत के समर्थकों Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ का कहना है कि दिन भी है अर्थात जहाँ सर्य नहीं है. वहाँ रात भी है। 'ही' और 'भी' के अभिप्रायों में बहुत ही अंतर है। 'ही' के प्रयोग में एकान्तता का आग्रह समाया हुआ है। वह एक पक्ष के विचारों के समक्ष दूसरे के विचारों की अवहेलना करता है। अपूर्ण ज्ञान को पूर्ण मानकर मनुष्य को दिग्भ्रमित करता है जबकि 'भी' पक्ष अपने विचारों के साथ-साथ दूसरे के विचारों का भी स्वागत करने के लिए सतत् समुद्यत रहता है। यदि हम आम के विषय में कहते हैं कि आम में केवल रूप ही है, रस ही है, गंध ही है, स्पर्श ही है, तब हम मिथ्या एकान्तवाद का प्रयोग करते हैं। यदि इसी को हम इस रूप में कहते हैं कि आम में रूप भी है, रस भी है, गंध भी है, स्पर्श भी है, तब हम अनेकान्तवादी दृष्टिकोण का प्रतिपादन करते है। इस प्रकार 'ही' वाद विचार-वैषम्य एवं संघर्ष की स्थिति उत्पन्न करता है जबकि 'भी' वाद विचार-वैषम्यता एवं संघर्ष को मिटाता है। अनेकान्तवाद और विभज्यवाद विभज्यवाद अनेकान्तवाद का ही एक रूप है। विभज्यवाद का अर्थ होता हैकिसी भी तथ्य को विभाजनपूर्वक कहना या प्रस्तुत करना। सूत्रकृतांग में एक जगह प्रसङ्ग आया है कि भिक्षु को कैसी भाषा का प्रयोग करना चाहिए? इसके उत्तर में कहा गया है कि भिक्षु विभज्यवाद का प्रयोग करे। २६ भगवतीसूत्र में गौतम और जयन्ती के साथ हई भगवान महावीर की बातचीत का उल्लेख है जो अनेकान्तवाद और विभज्यवाद को प्रकाशित करता है, वह निम्नप्रकार हैगौतम - यदि कोई कहे कि मैं सर्वप्राण, सर्वभूत, सर्वजीव, सर्वसत्व की हिंसा का प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूँ तो क्या उसका यह प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है या दुष्प्रत्याख्यान? महावीर - जो व्यक्ति यह नहीं जानता कि ये जीव और ये अजीव हैं और ये त्रस हैं, ये स्थावर हैं, उसका प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है, जो यह जानता है कि ये जीव हैं और ये अजीव हैं, ये त्रस हैं, ये स्थावर हैं उसका प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है, क्योंकि उसका कथन सत्य है। २७ जयन्ती - भगवन्! सोना अच्छा है या जागना? महावीर - जयन्ती! कुछ जीवों के लिए सोना अच्छा है और कुछ जीवों के लिए जागना अच्छा है। जयन्ती - वह किस प्रकार? महावीर - जो अधर्मी हैं, अधर्मानुग हैं, अधर्मिष्ठ हैं, अधर्माख्यायी हैं, अधर्मप्रलोकी हैं, अधर्मप्ररंजन हैं, अधर्म समाचार हैं, अधार्मिक वृत्ति युक्त हैं, उनके लिए सोना अच्छा है क्योंकि वे सोते रहेंगे तो अनेक जीवों को पीड़ा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता : २५ नहीं होगी। वे अपने को तथा अन्य लोगों को अधार्मिक कार्यों में रत नहीं रख पायेंगे। अत: उनके लिए सोना अच्छा है। परन्तु जो जीव धार्मिक हैं, रागी हैं, धार्मिक वृत्ति रखने वाले हैं, उनके लिए जागना अच्छा है क्योंकि वे अनेक जीवों को सुख देते हैं। जब तक वे जागते रहेंगे तब तक अपने को तथा अन्य व्यक्तियों को धार्मिक कार्यों में रत रखेंगे। अत: उनका जागना अच्छा है। २८ ।। जयन्ती - भगवन्! बलवान् होना अच्छा है या निर्बल होना? महावीर - जो जीव धार्मिक हैं अर्थात् धार्मिक वृत्ति वाले हैं, उनका बलवान् होना अच्छा है, क्योंकि वे अपने बल का प्रयोग धार्मिक कार्यों में करेंगे जिससे दूसरे जीवों को सुख की प्राप्ति होगी और, जो जीव अधार्मिक हैं अर्थात् अधार्मिक वृत्ति वाले हैं, उनका निर्बल होना अच्छा है, क्योंकि वे अपने बल का प्रयोग अधार्मिक कार्यों में करेंगे, जिससे अन्य जीवों को कष्ट पहुँचेगा। अनेकान्तवाद की उपयोगिता अनेकान्तवाद कोई कोरी कल्पना नहीं बल्कि एक व्यावहारिक सिद्धान्त है जिसका सम्बन्ध धार्मिक, सामाजिक राजनीतिक, सांस्कृतिक, वैचारिक आदि सभी क्षेत्रों से है। व्यावहारिकता के परिवेश में अनेकान्त का अभिप्राय है- “व्यक्ति को एक ही अनुभव या एक ही ज्ञान पर आग्रहवान् न बनाकर अपने मस्तिष्क को ज्ञान के लिए उन्मुक्त रखना। तात्पर्य है कि हमको एक ज्ञान हुआ या एक अनुभव हुआ, उसी में अपने आपको न समेटकर, अपने मस्तिष्क को हर ज्ञान के लिए खुला रखना चाहिए जिससे कि हम एक दूसरे के विचारों का लेन-देन भली-भाँति कर सकें। दूसरे की बातों को भी हम अच्छी तरह से ग्रहण कर सकें और अपनी बात को भी अच्छी तरह से दूसरों को समझा सकें। यदि हमें किसी वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझना है तो उसके अनेक पहलुओं को देखना होगा। एक पहलू से देखने से वस्तु के एक पहलू का ही ज्ञान होता है। यथा-- किसी मकान का एक तरफ से चित्र लेंगे तो वह चित्र मकान के एक पक्ष का ही ज्ञान करायेगा, जबकि दूसरा पक्ष अछूता ही रहेगा। एक मकान के यथार्थ एवं पूर्ण ज्ञान के लिए हमें मकान के चारों तरफ के अलग-अलग चित्र लेने पड़ेंगे तब जाकर हमें मकान की बाह्याकृति का पूर्ण ज्ञान होगा। फिर भी हम उसके अंतरंग भाग के ज्ञान से वंचित रह जायेंगे। अत: पुनः हमें उसके अंतरंग पक्ष के चित्र लेने पड़ेंगे, तब जाकर मकान का हमें पूर्ण एवं यथार्थ ज्ञान होगा। ठीक यही बात विश्व के सम्बन्ध में भी लागू होती है। जब तक हम विश्व का अनेक बिन्दुओं से, अनेक पहलुओं से सूक्ष्मतापूर्वक निरीक्षण नहीं करते हैं, तब तक हमें उसके सम्बन्ध में पूर्ण एवं यथार्थ ज्ञान होना असम्भव है। व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ विश्व के सम्बन्ध में आज यही अपूर्णता घातक सिद्ध हो रही है। क्योंकि व्यक्ति खुद को एवं समाज को जाने बिना ही राष्ट्र एवं विश्व के प्रति अपना मत व्यक्त करने का प्रयत्न करता है। धर्म और दर्शन, जो सदियों से विविध प्रकार के संतापों से मुक्ति पाने का साधन माना जाता रहा है, मानव हृदय की दुर्बलता एवं संर्कीणता ने उसे भी दूषित कर दिया है। आग बुझाने के लिए जिस पानी का उपयोग अब तक किया जाता रहा है, आज वही पानी आग लगाने का कार्य कर रहा है तो फिर आग कैसे बुझेगी? शान्ति की प्राप्ति के लिए धर्म और दर्शन मानव समाज में आए लेकिन वे ही आज अशान्ति के कारण बन गए हैं। एक ओर मनुष्य, मनुष्य का शोषण कर रहा है, व्यक्ति-व्यक्ति के प्रति मानसिक अन्तर्द्वन्द्व, मन-मुटाव, आशंका के कारण आज राष्ट्र शीतयुद्ध के दौर से गुजर रहा है। ऐसी स्थिति में सर्वत्र ऐसे चिन्तन एवं विचारों की आवश्यकता है जो व्यक्ति-व्यक्ति के बीच, समाज-समाज के बीच, राष्ट्र-राष्ट्र के बीच समरसता, समन्वय एवं सामञ्जस्य स्थापित कर सके। इन सभी समस्याओं के समाधान के लिए दृष्टि एक ही ओर जाती है, और वह है- अनेकान्त का सिद्धान्त। अनेकान्तवाद ही है जो अनेकता में एकता, अनित्यता में नित्यता, असत्व में सत्व को एक सूत्र में पिरो सकने की क्षमता रखता है। आज का युग अन्वेषण एवं परीक्षण का युग है जिससे अनेक आणविक परीक्षण हो रहे हैं। वैचारिक धरातल पर अनेकान्तवाद का स्थान सर्वोपरि है। अनेकान्तवाद की आवश्यकता आज पूरे विश्व को है। चाहे वह दर्शन का क्षेत्र हो या विज्ञान का, चाहे धार्मिक हो या सामाजिक, राजनीतिक हो या सांस्कृतिक, राष्ट्रीय हो या अन्तर्राष्ट्रीय। आज के सन्दर्भ में अनेकान्तवाद की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लग गया है कि क्या अनेकान्तवाद आज की तमाम समस्याओं को सुलझाने में सक्षम है? जहाँ तक प्रासंगिकता का प्रश्न है तो अनेकान्तवाद जितना प्रासंगिक महावीर के काल में था, उससे कहीं ज्यादा प्रासंगिक आज के सन्दर्भ में हो गया है। अत: आज के सन्दर्भ में धार्मिक, वैचारिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में उसकी प्रासंगिकता पर दृष्टिपात करना आवश्यक सा जान पड़ता है। धार्मिक सन्दर्भ में 'धर्म' एक व्यापक शब्द है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति, समाज, जाति, देश आदि सभी अन्तर्भूत हो जाते हैं। धर्म के सन्दर्भ में भिन्न-भिन्न विचारधाराएँ देखी जाती हैं। कोई कहता है कि कर्म ही धर्म है, कोई कहता है जीव पर दया करना धर्म है, किसी के अनुसार परमार्थ पथ पर जीवन की आहुति देना धर्म है, कोई कहता है समाज, देश और जाति की रक्षा के लिए आपत्तिकाल में लड़ना धर्म है। परन्तु सही मायने में देखा जाए तो मानव का सम्पूर्ण जीवन ही धर्म क्षेत्र है। मानव धर्म एक ऐसा व्यापक धर्म है जिसका पालन Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता : २७ करने से मनुष्य अपना तथा सम्पूर्ण विश्व का कल्याण कर सकता है। तात्पर्य यह है कि हमारा सम्पूर्ण जीवन ही धर्म है, सारा विश्व धर्म है। हम जो भी कर्म करते हैं, वे धर्म के अन्तर्गत आ जाते हैं। सब धर्म प्रगतिशील साधनों और अनुभवों से उत्पन्न एक विमल विभूति है जिसके आलिङ्गन से ही मानव उन्नति के पथ पर अग्रसर होने लगता है। धर्म का कार्य एकता, समानता, पुरुषार्थ आदि गुणों से मनुष्यों को दीक्षित करना है, न कि परस्पर विरोधी उपदेशों से समाज में भेद-भाव उत्पन्न करना, किन्तु आज आधिभौतिक सभ्यता की क्रूरता से जितना मन अशांत है उससे भी कहीं अधिक रूढ़ि और वासनाओं की पूजा ने मन को व्यथित कर रखा है। यह सत्य है कि जीवन की यात्रा अतीत को साथ लेकर ही तय की जा सकती है, उसका सर्वथा त्याग करके नहीं । अतीत जीवन को लेकर ही मनुष्य भविष्य की योजनाएँ निर्धारित करता है । किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि हम लौटकर अतीत में ही पहुँच जाएँ । अतीत तो भविष्य की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है। अतः मनुष्य का कल्याण इसी में है कि वह अतीत और वर्तमान के बीच समन्वय स्थापित कर सुन्दर भविष्य का निर्माण करे। जब तक हम प्राचीन आडम्बर एवं आचार-विचारों से चिपके रहेंगे तब तक हमारा वर्तमान भविष्य के निर्माण में समर्थ नहीं होगा। समाज में प्रचलित अंधविश्वासों की विभिन्न भावनाएँ न तो प्राचीन हैं और न अर्वाचीन, बल्कि इनकी जड़ तो समाज में धर्मगुरुओं के सम्प्रदाय व स्वार्थ की लोलुपता से फैली है। प्राचीनकाल में साम्प्रदायिक कट्टरता बहुत बलवती थी । इतिहास इस बात का साक्षी है कि भिन्न-भिन्न युगों में जिन समाजों में लोगों का ध्यान धर्म केन्द्रित रहा है और धर्म का लोगों के जीवन में आधिपत्य रहा है उनके सभी प्रकार के संघर्षों, नृशंसताओं, यंत्रणाओं आदि का मूल कारण केवल भ्रान्ति रही है। धर्म के ठेकेदारों के मस्तिष्क में यह बात घुस गयी कि केवल उन्हीं का धर्म, विश्वास एवं उपासना पद्धति एकमात्र सत्य है, और दूसरे का गलत । केवल वे ही ईमानदार हैं, शेष सभी 'विधर्मी' एवं 'काफिर' हैं। केवल उन्हीं की जीवनपद्धति मोक्षदायिनी है, केवल उन्हीं का ईश्वर सम्पूर्ण विश्व का ईश्वर है, अन्य लोगों के देवगण मिथ्या हैं अथवा उनके ईश्वर के अधीन हैं। इस प्रकार की बातों से मानव स्वभाव का इतिहास भरा पड़ा है। धर्मांधता के पीछे अनेक अमूल्य जाने गयीं, रक्त की नदियाँ बहायी गयीं तथा मानव जीवन को कष्टमय एवं दुःखमय बना दिया गया। आज पुनः वही स्थिति दृष्टिगोचर हो रही है। परस्पर सम्प्रदायों में राग-द्वेष की भावना, खण्डन-मण्डन की बहुलता, खून-खराबा, तीव्र संघर्ष की सम्भावना बहुत अधिक बलवती होती जा रही है। इसका मुख्य कारण है धर्म के यथार्थ स्वरूप को न समझना। सभी धर्मों के अपने मूल सिद्धान्त होते हैं, जिन्हें आदर्श रूप में जाना जाता है। साथ ही उनकी अभिव्यक्ति के लिए विभिन्न प्रतीक भी स्वीकृत होते हैं। यथा- मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा, जिनालय आदि। आदर्श जब पुराना हो जाता है तो प्रतीक प्रबल Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ 40 श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर / १९९६ हो उठता है और समाज में प्रतीकों की ही प्रधानता देखी जाती है। आदर्श के निर्बल और प्रतीक के सबल हो जाने पर धर्मान्धता अपना प्रभाव जमाती है जो समाज के लिए अत्यन्त ही घातक सिद्ध होती है। इसका ज्वलन्त उदाहरण है— मन्दिर - मस्जिद विवाद | यहाँ राम और मुहम्मद के आदर्शों की बात कोई नहीं करता, परन्तु मन्दिर के घण्टे -घड़ियाल तथा मस्जिद के गुम्बद की चर्चा प्रायः सभी लोग करते हैं, जिसका नतीजा हम लोगों के सामने है। इन सारी समस्याओं का समाधान अनेकान्तवाद के पास है। उसके अनुसार महावीर भी हैं, राम भी हैं, मुहम्मद भी हैं, ईसा भी हैं, गुरुनानक भी हैं। एक ओर हम धर्म निरपेक्ष राष्ट्र की बात करते हैं, वहीं दूसरी ओर धर्मान्धता का परिचय देते हैं। राष्ट्र धर्म निरपेक्ष तो तब होगा जब सभी धर्मों को समान आदर प्राप्त होगा। सभी धर्मों को समानता का अधिकार तब मिलेगा जब हम भावात्मक एकता और सहिष्णुता की भावना को अपने अन्दर स्थान देंगे। भावात्मक एकता एवं सहिष्णुता की भावना से हम बड़े प्रेम एवं शान्ति के साथ रह सकते हैं। यदि इस भावना पर हम चलें, दूसरों के वक्तव्य में जो सत्य दबा पड़ा है, उसे स्वीकार करें, अपनी ही बात को सत्य मानकर उसे दूसरों पर दुराग्रहपूर्वक थोपने का दुष्प्रयास न करें तो सम्भवत: व्यावहारिक जीवन में सहिष्णुता जागृत होगी और रोज-रोज के अनेक संकट टाले जा सकेंगे। धर्म निरपेक्षता का सिद्धान्त भी इसी बात पर बल देता है कि मानव को अपनी-अपनी भावना के अनुकूल किसी भी धर्म के अनुपालन की स्वतन्त्रता है। किन्तु सुरसा के मुँह की तरह वर्तमान में फैल रही अशांति और समस्याएँ मानव की मानवता को निगलती जा रही हैं जिसके फलस्वरूप आए दिन होने वाले साम्प्रदायिक संघर्ष, कलह आदि उभर कर सामने आ रहे हैं। आखिर इन समस्याओं का समाधान क्या है ? समाधान यदि कोई है तो वह है- अनेकान्त का मार्ग । अनेकान्त ही एक ऐसा मूलमन्त्र है जो आज की सभी धार्मिक उलझनों को सुलझा सकता है। • सामाजिक सन्दर्भ में सामान्यतः समाज शब्द का विभिन्न अर्थों में प्रयोग है। यथा— मानव समाज, धर्मसेवा समाज, शिक्षक समाज, विद्यार्थी समाज, ब्राह्मण समाज आदि । मानव समाज प्राणियों के एक प्रकार को बताता है। धर्म सेवा समाज, शिक्षक समाज आदि से एक विशेष प्रकार के काम करने वालों का ज्ञान कराता है। इसी तरह ब्राह्मण समाज से एक विशेष वर्ग अथवा विशेष प्रकार की संस्कृति में पले हुए लोगों का बोध होता है । यद्यपि समाज शब्द में प्रस्तुत प्रयोग अलग-अलग अर्थों को इंगित करते हैं किन्तु इनसे इतना स्पष्ट होता है कि 'समाज' शब्द एक प्रकार से रहने वाले अथवा एक तरह का कार्य करने वाले लोगों के लिए व्यवहार में आता है । किन्तु आज समाज शब्द का अर्थ ही बदल गया है। आज का समाज वह समाज है जिसमें घृणा, द्वेष, छुआ-छूत, जाति-पांति, Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता : २९ ऊँच-नीच, अमीर-गरीब के भेद-भाव निवास करते हैं। यह सत्य है कि समाज में विभिन्न विचारधारा के व्यक्ति रहते हैं। उनके रहन-सहन, खान-पान, बोल-चाल आदि अलग-अलग होते हैं, लेकिन इनका मतलब यह तो नहीं है कि मानव, मानव से अलग है। दोनों ही मनुष्य हैं, दोनों में मनुष्यता का वास है, फिर ये भेद-भाव कैसा ? मनुष्य- समुदाय का नाम ही तो समाज है। जमीन के टुकड़े को समाज नहीं कहते, मकानों का, ईंटों का या पत्थरों का ढेर भी समाज नहीं कहलाता और न ही गली-कूचे, दुकान या सड़क आदि का नाम समाज है। यदि हम इलाहाबाद का समाज या वाराणसी का समाज कहते हैं तो इसका अभिप्राय होता है इलाहाबाद या वाराणसी में रहने वाला मानव समुदाय । फिर एक जाति का दूसरी जाति के साथ, एक वर्ग का दूसरे वर्ग के साथ और एक मुहल्ले का दूसरे मुहल्ले के साथ घृणा और द्वेष क्यों ? एक प्रान्त का दूसरे प्रान्त से, एक देश का दूसरे देश से युद्ध क्यों ? आज जातीयता कम करने का जितना ही प्रयास किया जा रहा है वह उतनी ही बढ़ती जा रही है। प्रायः यह सुनने में आता है कि यह ब्राह्मण वर्ग है, यह क्षत्रिय वर्ग है, यह वैश्य वर्ग है तो यह शूद्र वर्ग है। लोग अपना परिचय देते समय भी अपनी जाति का परिचय देने में भी नहीं चूकते। ब्राह्मण यह कहने में गौरव की अनुभूति करता है कि हम ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुए हैं इसलिए हम सर्वश्रेष्ठ हैं । किन्तु ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से निकल पड़े हों बल्कि आप जो चिन्तन और मनन करते हैं उसका प्रयोग मुख से कीजिए । अपनी पवित्र वाणी से मानव समाज को लाभान्वित कीजिए । क्षत्रिय वर्ग, जिसकी उत्पत्ति ब्रह्मा की भुजाओं से मानी जाती है, का यह अर्थ है कि क्षत्रिय वर्ग अपनी भुजाओं के बल पर निर्बलों की रक्षा करे। वैश्य वर्ग की उत्पत्ति इसलिए हुई कि वह कृषि के द्वारा जीवनोपयोगी वस्तुएँ उत्पन्न कर वाणिज्य के द्वारा उन्हें स्थानान्तरित करके सम्पूर्ण समाज को भोजन दे, शक्ति पहुँचाए, लोगों को जीवित रखे। किन्तु यह हमारे समाज का दुर्भाग्य है कि वैश्यवर्ग अपनी प्रतिष्ठा को सुरक्षित नहीं रख सका । अर्थ- पिपासा की लालसा ने उन्हें अन्धा बना दिया है। चौथा वर्ण शूद्र जिसकी उत्पत्ति ब्रह्मा के पैरों से मानी जाती है, आज घृणा एवं तिरस्कार का पात्र बन गया है। शूद्र या अछूत का नाम आते ही लोगों के नाक-भौं सिकुड़ने लगते हैं। ऐसा क्यों? सभी मनुष्य समान हैं। जैन धर्म की मान्यता है कि विश्व के जितने भी मनुष्य हैं, वे सभी मूलतः एक ही हैं। कोई भी जाति अथवा कोई भी वर्ग मनुष्य जाति की मौलिक एकता को भंग नहीं कर सकता। मनुष्य जाति में जो अलग-अलग वर्ग दिखलाई देते हैं; वस्तुतः कार्यों के भेद से या धन्धों के भेद से दिखलाई पड़ते हैं। जैन धर्म में स्पष्ट कहा गया है कि मनुष्य जन्म से ऊँचा या नीचा नहीं होता बल्कि कर्म से होता है। जैन मुनि हरिकेशबल जन्म से चाण्डाल कुल के थे जिसके कारण उन्हें चारों ओर से भर्त्सना और घृणा के सिवा कुछ न मिला। वे Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० : श्रमण / अक्टूबर-दिसम्बर / १९९६ जहाँ कहीं भी गए, वहाँ उन्हें अपमान रूप विष का प्याला ही मिला, लेकिन जब उन्होंने जीवन की पवित्रता का सही मार्ग अपना लिया तो वही वन्दनीय और पूजनीय हो गये । हिन्दू-मुसलमान का झगड़ा सदियों से चला आ रहा है और वर्तमान में भी विद्यमान है । सवाल होता है कि हिन्दू कौन है? मुसलमान कौन है ? क्या मनुष्य की भी कोई जाति होती है? मनुष्यों की कोई जाति नहीं होती । जिस प्रकार पानी की कोई जाति नहीं होती, उसी प्रकार मानव की भी कोई जाति नहीं होती, सभी एक समान हैं। मनुष्यों की दो जातियाँ हो ही नहीं सकतीं। फिर भी मन की संकीर्णतावश उसमें ऊँचता-नीचता खोजी जाती है। इस प्रगतिवादी युग में भी शक्तिशाली लोग अशक्तों एवं असमर्थों का शोषण उसी प्रकार कर रहे हैं जिस प्रकार छोटी मछली को बड़ी मछली निगल जाती है। इसका मुख्य कारण है- आर्थिक विषमता। आर्थिक विषमता मानो भारतीय समाज का अंग बन गयी है । पूँजीपति और मजदूर, धनी-मानी, खेत मालिक और खेतों में काम करने वाले गरीब लोग आज भी हैं। गरीबी हटाओ अभियान चलता आ रहा है, विभिन्न आंकड़े तैयार होते आ रहे हैं, किन्तु हल कुछ भी सामने नहीं आ रहा है, क्योंकि न्यायकर्त्ता जब न्याय करने बैठता है तो तराजूरूपी बुद्धि पर उसका अपना स्वार्थरूपी बाट होता है । अतः वह न्याय कैसे करेगा ? माना कि जीवन में बुराइयाँ होती हैं, भूलें होती हैं और उनका परिमार्जन भी किया जाता है, उन्हें सुधारने का प्रयास भी किया जाता है। यदि रोग है तो उसका उपचार भी होगा । बुराई के साथ संघर्ष करने का मनुष्य का अधिकार है। मानव ने इस संसार में एक महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व तथा कर्तव्य लेकर जन्म लिया है। अतः व्यक्ति को बुराइयों से संघर्ष करना ही पड़ेगा। बुराइयों से इस संघर्ष में अनेकान्तवाद से ज्यादा शक्तिशाली अन्य कोई अस्त्र नहीं होगा। सामाजिक विभिन्नताओं के बीच सामञ्जस्य एवं पारस्परिक स्नेह को कायम रखने में अनेकान्तवाद की अहम भूमिका होगी। राजनीतिक सन्दर्भ में आज के भारतीय समाज एवं प्रजातंत्र को देखने से यह कहावत चरितार्थ होती है — “बंदर के हाथ में नारियल" बंदर के हाथ में नारियल पड़ने से उसकी दुर्दशा होती है। नारियल टूटने का डर रहता है। वही स्थिति आज भारतीय समाज की है। भारतीय प्रजातंत्र को देखते हुए ऐसा ही प्रतीत होता है। प्रजातंत्र के प्रधानतः दो अंग होते हैंअधिकार और कर्तव्य । प्रजातंत्र का वहीं पर समुचित विकास होता है जहाँ लोग अधिकार के साथ-साथ अपना कर्तव्य भी समझते हैं। लेकिन हमारे भारतीय समाज का दुर्भाग्य यह है कि यहाँ के लोग अपने अधिकार तो समझते हैं, परन्तु अपने कर्तव्य को नहीं समझते। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता : ३१ प्रजातंत्र की रीढ़ चुनाव है। प्रजा के प्रतिनिधि प्रजा के द्वारा चयनित होकर विधान सभा और लोक सभा के सदस्य बनते हैं। उनसे यह अपेक्षा होती है कि वे अपने क्षेत्र की समस्याओं को सही रूप में सभा में प्रस्तुत करेंगे तथा समाज के हित के लिए अपने को समर्पित करेंगे। किन्तु बात ऐसी नहीं होती है। तथाकथित जनता के प्रतिनिधि अपनी कुर्सी की रक्षा में लगे रहते हैं और प्रजा को भूल जाते हैं, जिनके वे प्रतिनिधि होते हैं। वे दरअसल यह भी नहीं चाहते कि जनता उनके चुनाव में स्वतन्त्र रूप से अपना मतदान करे। मतदान केन्द्र तो प्रत्याशियों के पालतू गण्डे-बदमाशों द्वारा अधिकार में कर लिये जाते हैं। अत: चुनाव दिखावे का एक ढोल होता है जिसकी तेज ध्वनि समाज में हंगामा मचाती है। इस तरह राजनीति के क्षेत्र में भी एकान्तवाद का बोलबाला देखा जाता है। राजनीति का प्रवेश समाज में समाज के स्तर को ऊँचा उठाने के लिए हुआ किन्तु वही राजनीति आज क्षुद्रता के दायरे में सिमटकर रह गयी है। यद्यपि प्रजातांत्रिक प्रणाली में तो एकान्तवादिता को स्थान ही नहीं मिला है। उसमें न तो हठवादिता है, न दुराग्रह है, न पक्ष प्रतिबद्धता है, न असहिष्णुता है और न अधिनायकवाद ही है। फिर भी आज के समाजनिर्माता अपनी स्वार्थता से वशीभूत होकर प्रजातन्त्र के अनेकांतिक दृष्टिकोण को ऐकांतिक बना दिये हैं। जबकि प्रजातंत्र को सही मायने में क्रियान्वित करने के लिए अनैकान्तिक दृष्टिकोण का होना जरूरी है। यदि प्रजातंत्र की नीव अनैकांतिक है, कहा जाए, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि बिना अनैकान्तिक दृष्टिकोण के प्रजातंत्र एक दिन भी क्रियाशील नहीं रह सकता। प्रजातांत्रिक प्रणाली में तो विरोध में भी अविरोध लाना पड़ता है, विभिन्नता में एकता के सूत्र पिरोने पड़ते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय सन्दर्भ में प्रत्येक देश, सष्ट, दल व गट केवल अपनी और अपने हितों की रक्षा और सरक्षा के बारे में चिन्तित है फिर चाहे उसके लिए दूसरों की बलि क्यों न दे दी जाए? आज भयानक से भयानक अस्त्रों-शस्त्रों का अनुसंधान हो रहा है। कई भयानक संहारक अस्त्र बन चुके हैं। प्रभुता की लालसा विश्व में कभी भी युद्ध की आग को भड़का सकती है। यद्यपि शस्त्र निर्माण की इस होड़ ने शक्ति संतुलन कायम कर दिया है। भयानक अस्त्रों के निर्माण ने सभी राष्ट्रों को सशंकित कर दिया है कि शस्त्रास्त्रों के इस संग्रह से कहीं मानव जाति का सर्वनाश न हो जाए। इतिहास के पन्नों में प्रथम एवं द्वितीय विश्वयुद्ध इसके मुख्य उदाहरण हैं। विश्व अनेक गुटों में बँटा हुआ है- समाजवाद, साम्यवाद, पूँजीवाद, लोकतंत्रवाद आदि। ये सभी प्रशासन प्रणाली और सामाजिक संगठन में सुधार की बात करते हैं और अपने को मानवजाति का परित्राता समझते हैं। प्रत्येक देश का प्रत्येक दल केवल अपने को व अपनी नीति और कार्यक्रमों को सर्वोत्तम मानता है। और एकमात्र उसे ही देश Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ में नवजीवन का सञ्चार करने वाला समझता है। प्रत्येक दल या गुट यह समझता है कि केवल उसके अनुयायी और सदस्य ही देश के प्रशासनिक पदों के योग्य हैं। उसमें इतना धैर्य नहीं कि वह दूसरे दलों के सुझावों एवं गुणों को देख सके। यह एक घातक प्रवृत्ति है। प्रत्येक व्यक्ति यह सोचता है कि वही एकमात्र ऐसा व्यक्ति है जिसके लिए सम्पूर्ण विश्व की सत्ता है और दूसरे लोग उसकी दयालुता, सहानुभूति, स्नेहशीलता आदि के पात्र हैं। लेकिन संघर्ष का कारण यह है कि विश्व में अनगिनत दूसरे लोग भी हैं जो उसी विश्वास और दावे की इच्छा रखते हैं। यहीं से संघर्ष का सूत्रपात होता है। यदि हम सब इस एकान्तवाद के दुष्परिणाम का अनुभव कर सकें और "भी' का प्रयोग कर सकें तथा यह समझें कि प्रत्येक को दूसरों की इच्छाओं, आशाओं और आकांक्षाओं की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, दूसरों के गुणों को खोजना, पहचानना और सराहना चाहिए तथा उनके साथ मित्रता और शान्तिपूर्वक रहना चाहिए, तो विश्व आज जिस रूप में दिखाई दे रहा है, उससे बिल्कुल भिन्न होगा। अनेकान्त की छाया में विकसित सह-अस्तित्व का सिद्धान्त ही विश्व शान्ति का सबसे सुगम एवं श्रेष्ठ उपाय है। सन्दर्भ१. अनेकश्चासो अन्तश्च इति अनेकान्तः। रत्नाकरावतारिका, संपा०पं० दलसुख भाई मालवणिया, लालभाई दलपत भाई ग्रन्थमाला-१६, अहमदाबाद १९६८, पृष्ठ-८९। अनेके अन्ता धर्माः सामान्यविशेषपर्याया: गुणाः यस्येति सिद्धोऽनेकान्तः । न्यायदीपिका, सम्पा०पं० दरबारीलाल कोठिया, वीर सेवा मंदिर ग्रंथमाला-४, सहारनपुर १९४५, अ० ३, श्लो० ७६। यदेव तत्तदेवातत्, यदेवैकं तदेवानेकं, यदेव सत्तदेवासत्, यदेव नित्यं तदेवानित्यसित्येकवस्तुनि वस्तुत्वनिष्पादपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः । समयसार टीका (अमृतचन्द्र) उद्धृत-डॉ० सागरमल जैन, अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और सप्तभंगी-एक चिन्तन, पार्श्वनाथ विद्याश्रम ग्रंथमाला-५२, वाराणसी १९९०, पृष्ठ-८। ४. चिन्तन की मनोभूमि, संपा०-डॉ०बी०एन०सिन्हा, आगरा, १९७०, पृष्ठ-१०६। ५. ऋग्वेद, दयानन्द सरस्वती, दयानन्द संस्थान, नई दिल्ली, म० १०अ०९१सू०१४। ६. वही, १/३२/१५ तथा बृहदारण्यकोपनिषद्, संपा०, काशीनाथ आगाशे, आनन्दाश्रम संस्कृत ग्रन्थावली ग्रंथांक-१५, अ०२, ब्रा०५ श्लो०१५। ७. एगं च णं महं चित्तविचित्तपक्खगं पुंसकोइलगं सुविणे पसित्ता णं पडिबुद्धे ..... Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता : ३३ जण्णं समणे भगवं महावीरे एंग महं चिन्तविचित्त जाव पडि बढे तण्णं समणे भगवं महावीरे विचित्तं ससमयपर समइयं दुवालसंगं गणि पिडगं आघवेइ, पनवेइ परुवेई....। भगवतीसूत्र, संपा० घासीलालजी महाराज, प्र०-अ०भा० श्वे० स्था० जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट, १९६८, श०१६ उ०६ सू०३। भारतीय दर्शन, आचार्य बलदेव उपाध्याय, वाराणसी, १९७९, पृष्ठ-९१। ९. भारतीय दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त, डॉ०बी०एन० सिन्हा, वाराणसी, १९८२, पृष्ठ-७१। १०. गोयमा! एत्थ णं दो नया भवंति तं जहा निच्छइयनए य वावहारियनए य। वावहारियनयस्स गोड्डे फाणियगले नेच्छइयनयस्स पंचवन्ने दुगंधे पंचरसे अट्ठफासे पत्रते। भगवती सूत्र, संपा० - घासीलाल जी महाराज, श०१८उ०६सू०१। ११. साधना के मूलमंत्र, उपाध्याय अमर मुनि, आगरा, पृ०-२८३। १२. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्। -तत्वार्थसूत्र विवे०पं० सुखलाल संघवी, पार्श्वनाथ शोधपीठ ग्रंथमाला-२२, वाराणसी, अ०५, गाथा २९। १३. चिन्तन की मनोभूमि, सम्पा०-डॉ०बी०एन० सिन्हा, पृ० - १११ । १४. अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्याद्वाद: । न्यायकुमुदचन्द्र, भाग-२ संपा०-पं० महेन्द्र कुमार, माणिकचन्द दि० जैनग्रन्थमाला-३८, बम्बई १९४१, पृष्ठ ६८६ । १५. अष्टसहस्त्री, सम्पा०-वंशीधर, शोलापुर, १९१५, पृष्ठ-२८७। १६. नायं वस्तु न चावस्तु वस्त्वंशः कथ्यते बुधैः । ना समुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशो यथैव हि ।। -रत्नकरावतारिका, सम्पा०-५०दलसुखभाई मालवणिया, लालभाई दलपतभाई ग्रंथमाला-२४, अहमदाबाद, १९६८, भाग-३, पृष्ठ-४। १७. प्रमाणप्रतिपत्रार्थेकदेशपरामर्शे नयः। -स्याद्वादमञ्जरी, सम्पा०-डॉ०जगदीशचन्द्र जैन, श्रीमद् रायचंद जैनशास्त्रमाला-१२, अगास १९३५, पृष्ठ २४२। १८. प्रतिपक्षो वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नयः। निराकृतप्रतिपक्षस्तु नयाभासः । इत्यनयो: सामान्यलक्षणम्। प्रमेयकमलमार्तण्ड, अनु० आर्यिका जिनमती, पृष्ठ-६५७। १९. सदेव सत् स्यात्सदिति त्रिधार्थो मीयते दुर्नीतिनयप्रमाणैः। -स्याद्वादमंजरी सम्पा०-डॉ० जगदीशचन्द्र जैन, श्रीमद् रायचंद जैनशास्त्रमाला-१२, श्लो०-२८ । तथा - नीयते परिच्छिधते एकदेशविशिष्टोऽर्थ अभिरिति नीयतो नयाः। दृष्टा नीयतो दुर्नीतयो दुर्नया इत्यर्थः। नया नैगमादयः। प्रमीयते परिच्छिद्यतेऽर्थोऽनेकान्तविशिष्टोऽनेन इति प्रमाणम् स्याद्वादात्मकं प्रत्यक्षपरोक्षलक्षणम्। -वही-पृष्ठ २४०-२४१। २०. तत्वाङ्गव्यवहारा-दयमपि येन प्रमाणतो भजते। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ २३. अंशधिया तु नयत्व-व्यपदेशस्तत्र तन्त्रविदाम् ।। श्रीमार्गपरिशुद्धि, श्री ग्रंथ प्रकाशक सभा, ग्रंथांक ५९-६०, पोल, अहमदाबाद, श्लोक-७। सोमिल! दव्वढयाए एगे अहं, नाणदंसणट्ठयाए दुविहे अहं, पएसट्ठयाए अक्खए वि अहं, अव्वए वि अहं, अवट्ठिए वि अहं उवओगट्ठयाए अणेगभूयभावभविए वि अहं। भगवतीसत्र, सम्पा०-घासी लाल जी महाराज, प्र०-अ०भा० श्वे०स्था० जैनाशास्त्रोद्धार समिति, राजकोट १९६८, श०१,उ०८, सू०१०। २२. गोयमा! सव्वत्थोगे एगे धम्मत्थिकाए दव्वट्ठाए से चेव पएसट्ठाए असंखेज्जगुणे। प्रज्ञापनासूत्र, सम्पा०-घासीलालजी महाराज, पद ३ सू० २६। जीवा णं भंते! किं सासया, असासया? गोयमा! जीवा सिय सासया सिय असासया। से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चई सिय सासया, सिय असासया गोयमा! दव्वट्ठाए सासया, भावट्ठाए असासया। भगवतीसूत्र, सम्पा०-घासीलालजी महाराज, श०७, उ०२, सू०५।। २४. एवं खलु मए खंदया चउविहे लोए पन्नते तं जहा-दव्वओ खेत्तओ कालओ भावओ। दव्वओ णं एगे लोए स अंते, खेत्तओ णं लोए असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ आयामविक्खमेणं, असंखेज्जाओ जोयण केडाकोडीयो परिक्खेणं पण्णत्ताओ। अत्थिपुण स अंते, कालओ णं लोए ण कयाइ न आसी. न कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ भविंसुय भवई य भविस्सइ य धुवेणियए सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए णिच्चे नत्थि पुण से अंते। भावओ णं लोए अणंता वण्णपज्जवा, अणंता गंध पज्जवा, अणंता रसपवज्जा, अणंताफास पज्जवा, अणंता संठाणपवज्जा, अणंता गरुयलहुयपज्जवा, अणंता अगुरूयलहुयपज्जवा, नत्थि पुण से अंते, से तं खंदवा दव्वओ लोए स अंते खेत्तओ, लोए स अंते कालओ लोए अणंते भावओ लोए अणंते। वही- १९६२, श०२, उ०१२, सू०१२। २५. नो खलु वयं देवाणुप्पिया! अत्थिभावं नत्थि-त्ति वयामो, नत्थिभावं अत्थि-त्ति वयामो, अम्हे णं देवाणुप्पिया! सव्वं अत्थिभावं अत्थि-त्ति वयामो, सव्वं नत्थिभावं नत्थि-त्ति वयामो। वही-१९६३, श०७उ०१०सू०१। २६. भिक्खू विभज्जवादं च वियागरेज्जा। -सूत्रकृतांग, सम्पा०मधुकरमुनि, जिनागम ग्रंथमाला, ग्रथांक-९, व्यावर(राज०) १९८२, भा०१, अ० १२, गा०२२। २७. से नूणं भंते! सव्व पाणेहिं, सव्वभूएहिं, सव्वजीवेहिं, सव्वसत्तेहिं, पच्चक्खायमिति वयमाणस्स सुपच्चक्खायं भवइ दुपच्चक्खायं भवई?...........जस्स णं सव्वपाणेहिं जाव-सव्वसत्तेहिं, पच्चक्खायमिति वयमाणस्स एवं अभिसमन्नागयं भवइ-इमे जीवा, इमे अजीवा, इमे तसा, इमे थावरा, तस्स णं सव्वपाणे हिं जाव-सव्वसत्तेहिं Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता : ३५ पच्चक्खायमिति वयमाणस्स सुपच्चक्खायं भवइ,णो दुपच्चक्खायं भवइ एवं खलु से सुपच्चक्खाई सव्वपाणेहिं जाव-सव्व सत्तेहिं पच्चक्खायमितिवयमाणे सच्चं भासं भासइ, णो मोसं भासं भासइ, एवं खल से सच्चवाई सव्वपाणेहिं, जाव-सव्वसत्तेहिं तिविहं-तिविहेण संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खायपावकम्मे, अकिरिए, संवुडे, एगंतपंडिए यावि भवइ। भगवतीसूत्र, सम्पा०-घासीलालजी महाराज, श०७उ०२सू०१। २८. जयंती! जे इमे जीवा अहम्मिया अहम्माणुया, अहम्भिट्ठा, अहम्मक्खाई, अहम्मपलोई, अहम्मपलजमाणा अहम्मसमुदायारा, अहम्मे णं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, एएसिं णं जीवाणं सत्तत्तं साहू ............ जे इमे धम्मिया, धम्माणुया जाव धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, एएसिं णं जीवाणं जागरियत्त साहू,.....जयंती! जे इमे जीवा अहम्मिया जाव विहरंति, एएसि णं जीवाणं दुब्बलियन्तं साहू ......... बलियस्स जहा जागरस्स तह माणियब्बं जाव संजोएत्तारो भवंति। --वही-श०१७, उ०२, सू०३। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण स्थानाङ्ग एवं समवायाङ्ग में पुनरावृत्ति की समस्या डॉ०अशोक कुमार सिंह परम्परा से द्वादशाङ्गों में, किन्तु आज विद्यमान ग्यारह अङ्ग ग्रन्थों में तीसरे और चौथे अङ्ग के रूप में प्रख्यात स्थानाङ्ग एवं समवायाङ्ग संग्रह ग्रन्थ माने जाते हैं। इनकी शैली इसप्रकार है कि प्रथम स्थान में एक पदार्थ अथवा क्रिया आदि का निरूपण है, द्वितीय में दो-दो का और तृतीय में तीन-तीन का वर्णन है। स्थानाङ्ग में दस स्थानों में एक से दस पदार्थों अथवा क्रियाओं का संग्रह है जबकि शैली में इसके ही अनुरूप, समवायाङ्ग में एक से हजारों, करोड़ों और उससे भी आगे की संख्या वाले तथ्यों का निरूपण है। पहले की प्रकरण संख्या दस तक सीमित है जबकि दूसरे की प्रकरण संख्या निश्चित नहीं है। इन दोनों ग्रन्थों की प्रकृति एवं विषय-वैविध्य के सन्दर्भ में जैनविद्या के मूर्धन्य मनीषी पं० बेचरदास दोशी' का यह कथन अत्यन्त प्रासङ्गिक है कि इन दोनों सूत्रों के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि ये संग्रहात्मक कोष के रूप में निर्मित किये गये हैं। अन्य अङ्गों की अपेक्षा इनके नाम एवं विषय सर्वथा भिन्न प्रकार के हैं। इन अङ्गों की विषय-निरूपण शैली से ऐसा भी अनुमान किया जा सकता है कि जब अन्य सब अङ्ग पूर्णतया बन गये होगें तब स्मृति अथवा धारणा की सरलता की दृष्टि से अथवा विषयों की खोज की सुगमता की दृष्टि से पीछे से इन दोनों अङ्गों की योजना की गई होगी तथा इन्हें विशेष प्रतिष्ठा प्रदान करने हेतु इनका अङ्गों में समावेश कर दिया होगा। उक्त कथन के आलोक में यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अङ्गों में विद्यमान समस्त या अधिकांश तथ्यों की सूचना या सूची इन दोनों अङ्गों में उपलब्ध है, साथ ही शेष अङ्गों में प्रदत्त तथ्यों के अतिरिक्त इसमें कोई नवीन तथ्य संगृहीत नहीं होगा। इनको संग्रह ग्रन्थ स्वीकार करने में सबसे प्रमुख आपत्ति इनके क्रम को लेकर होती है यदि ये अन्य अङ्ग ग्रन्थों के निर्मित होने के पश्चात् संगृहीत हुए होते तो इनका क्रम स्वाभाविक रूप से अन्य अङ्गों के बाद होता। इस दृष्टि से अध्ययन क्रम में ही दोनों *. वरिष्ठ प्रवक्ता - पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्ग एवं समवायाङ्ग में पुनरावृत्ति की समस्या : ३७ ग्रन्थों में प्राप्त विषय-पुनरावृत्ति की समस्या का तथ्यगत विवेचन करने की आवश्यकता प्रतीत हुई। सामान्य अवधारणा है कि इन दोनों अङ्गों में पुनरावृत्ति की बहुलता है और यदि पुनरावृत्त विषयों को ग्रन्थ से पृथक् कर दिया जाय तो दोनों ग्रन्थों का कलेवर अत्यन्त छोटा हो जायगा। दोनों ग्रन्थों में बहुत से ऐसे तत्त्व, पदार्थ या प्रकरण संगृहीत या वर्णित हैं जिनका विवरण एक से अधिक स्थानों पर उपलब्ध है। एक तथ्य का एक से अधिक स्थलों पर प्रतिपादन निरर्थक है। स्वाभाविक रूप से पूर्ववर्ती स्थानों या सूत्रों की अपेक्षा पश्चाद्वर्ती स्थानों या सूत्रों का विवरण अधिक पूर्णता लिये हुए है। परिणामतः तथ्य-विशेष से सम्बन्धित अन्तिम विवरण की उपस्थिति में तद्विषयक अन्य सभी पूर्ववर्ती विवरण अप्रासङ्गिक या निरर्थक सिद्ध हो जाते हैं। इन दोनों ग्रन्थों में विषयों का वर्गीकरण, व्यवस्थित योजना के अनुरूप न होना ही मुख्यतः पुनरावृत्ति की समस्या के मूल में हो सकता है। यह भी माना जा सकता है कि ग्रन्थ के आरम्भिक स्थानों में विषय के मुख्य प्रकारों या भेदों को बता दिया गया है। बाद में यथास्थान अवसरानुकल अन्य भेदों या अवान्तर भेद सहित विषयों का वर्णन किया गया है। श्रुतिपरम्परा द्वारा ही श्रुतों का ज्ञान होने से ग्रन्थ रचना में स्वाभाविक रूप से स्मरण सुविधा का विशेष ध्यान रखा जाता था। किसी प्रकरण के कुछ अंशों का स्मरण करने पर सम्पूर्ण प्रकरण का स्मरण हो आता है। सम्भवतः इसलिए भी विषय का पहले आंशिक और बाद में अपेक्षाकृत विस्तृत वर्णन है। विषय-विशेष का क्रमिक विकास भी इन ग्रन्थों में प्राप्त पुनरावृत्ति का कारण हो सकता है। यह भी सम्भव है कि सूत्रकार की शैली ही ऐसी रही हो। परन्तु उक्त सभी तर्कों को स्वीकार करने में प्रमुख बाधा ग्रन्थ में विषय प्रतिपादन प्रणाली की एकरूपता का अभाव है। यदि कुछ विषयों का एक कारण से या उक्त सभी कारणों से पुनरावृत्ति आवश्यक थी या हुई है तो समस्त विषयों की क्यों नहीं? विषय-प्रतिपादन में एकरूपता का यह अभाव ही पुनरावृत्ति को इन ग्रन्थों का निर्बल पक्ष बना देता है। पुनरावृत्ति की दृष्टि से स्थानाङ्ग में एक पदार्थ अथवा क्रिया के दो स्थानों पर प्रतिपादित किये जाने की बहुलता है। कुछ तथ्यों का तीन, कुछ का चार और कुछ का पाँच स्थलों पर भी निरूपण हुआ है। पुद्गल सम्बन्धी विवरण स्थानाङ्ग के दसों स्थानों के अन्त में प्राप्त होता है। जहाँ तक समवायाङ्ग में पुनरावृत्ति का प्रश्न है, निश्चित रूप से इसमें पुनरावृत्त विषयों की संख्या कम है। परन्तु इसमें रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकों आदि का विवरण' एक से ३३ समवाय पर्यन्त सभी समवायों में प्राप्त होता है। पुनरावृत्त पदार्थों की दृष्टि से यह दृष्टान्त सर्वाधिक उल्लेखनीय है। समवायाङ्ग में, रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नारकों, शर्करापृथ्वी के कुछ नारकों, असुरकुमारदेवों, और भवनवासियों असंख्यात वर्ष आयूष्कों, गर्भोपक्रान्तिक संज्ञी मनुष्यों, वाणव्यन्तर देवों, ज्योतिष्कदेवों, सौधर्मकल्पदेवों, ईशानकल्प देवों, की स्थिति प्रथम समवाय में यथाप्रसङ्ग Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ एक कल्प और एक सागरोपम कही गयी है। यही विवरण ३३वें समवाय तक वर्णित है। प्रत्येक समवाय में इन जीवों की स्थिति समवाय की संख्या के अनुरूप बतायी गयी है। यद्यपि जीवों के नाम कहीं पृथक्-पृथक् हैं, कहीं कुछ जीवों को समाविष्ट कर लिया गया है तो कहीं कुछ जीवों को छोड़ दिया गया है। यह सम्पूर्ण विवरण लगभग ७१ सूत्रों या सूत्रांशों में (सूत्रों में पदों की संख्या समान नहीं) वर्णित हैं। तैतीसवें समवाय के दो सूत्रों के विवरण की उपस्थिति में अन्य सभी ६९ सूत्रों के विवरण अनावश्यक से प्रतीत होते हैं। पुनरावृत्ति की दृष्टि से स्थानाङ्ग का पुद्गल सम्बन्धी विवरण भी उद्धृत किया जा सकता है। स्थानाङ्ग के सभी स्थानों- एक से दस तक-के अन्त में 'पुद्गलपद' के अन्तर्गत पुद्गल सम्बन्धी विवरण प्रतिपादित है। प्रथमस्थान में एकप्रदेशावगाढ, एक समय की स्थिति, एक गुण, एक वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले पुद्गल अनन्त कहे गये हैं। इसीप्रकार द्विप्रदेशी आदि से लेकर दस प्रदेशी आदि पुद्गल अनन्त कहे गये हैं। एक से लेकर दस स्थानों में यह विवरण २७ सूत्रों में प्रतिपादित है, जबकि अन्तिम पाँच सूत्रों की उपस्थिति में शेष २२ सूत्र अनावश्यक प्रतीत होते हैं। यद्यपि उक्त दोनों उदाहरण भाव में पुनरावृत्ति के ही निदर्शक हैं परन्तु प्रत्येक समवाय और स्थान में संख्या परिवर्तन से इन्हें पुनरावृत्ति मानने में आपत्ति हो सकती है। इन दोनों उदाहरणों के अतिरिक्त स्थानाङ्ग में बहुत से उदाहरण हैं जिनकी पुनरावृत्ति हुई है। स्थानाङ्ग में पुनरावृत्त सभी पदार्थों का विवरण प्रस्तुत करने से पूर्व, विषय को स्पष्ट करने के लिए कुछ प्रमुख उदाहरणों को प्रस्तुत किया जा सकता है। स्थानाङ्ग में लोकस्थिति का चार, प्रायश्चित्त का पाँच और तृण-वनस्पति का तीन स्थलों पर विवरण संग्रहीत है, जिनको निम्न तालिकाओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है ६/३६ ८/१४ लोकस्थिति विवरण - स्थानाङ्ग ३/२/३/९ (१) आकाश पर वायु (२) वायु पर उदधि (३) उदधि पर पृथ्वी ४/२/२५९ → → → (४) पृथ्वी पर त्रस और स्थावर → (५) अजीव जीव पर प्रतिष्ठित Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त विवरण' ३/४/४४८ १. आलोचना २. प्रतिक्रमण ३. तदुभय स्थानाङ्ग एवं समवायाङ्ग में पुनरावृत्ति की समस्या (६) जीव कर्मों पर प्रतिष्ठित ६/१९ ↑ ↑ ↑ ४. विवेक ५. व्युत्सर्ग ६. तप तृणवनस्पति विवरण स्थानाङ्ग सूत्र ४/१/५७ (१) अग्रबीज (२) मूलबीज (३) पर्वबीज (४) स्कन्धबीज ८/२० 1 1 1 1 1 1 9 j ७. छेद ८. मूल ५/२/१४६ 1111 ९/४२ 11111111 ९. अनवस्थाप्य (७) अजीव जीव द्वारा संगृहीत (८) जीव कर्म द्वारा संगृहीत १०/७३ 111111111 : ३९ १०. पाराञ्चिक w ↑ ↑ ↑ ↑ ६ / १२ -> Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ (५) बीजरुह→ (६) संमूर्छिम उपर्युक्त तालिका से ज्ञात होता है कि लोकस्थिति सम्बन्धी ३/२/३/९ आदि तीन सूत्र, ८/११४ सूत्र की उपस्थिति में अनावश्यक सिद्ध हो जाते हैं। इसीप्रकार १०/७३ (प्रायश्चित्त) और ६/१२ (तृणवनस्पति) की उपस्थिति में क्रमश: ३/४/४४८ आदि चार और ४/१/५७ आदि दो सूत्र निरर्थक सिद्ध हो जाते हैं। __ जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है स्थानाङ्ग में एक पदार्थ या विषय को दो स्थानों पर प्रतिपादित किये जाने की बहुलता है। ऐसे पदार्थों की संख्या लगभग ७० है। इसके अतिरिक्त लगभग दस विषयों का तीन स्थलों पर, चार विषयों का चार स्थलों पर, प्रायश्चित्त का पाँच स्थानों पर और पुद्गल का दस स्थानों पर संग्रह है। दो स्थलों पर पुनरावृत्त तथ्यों का विवरण इस प्रकार है- बोधि के ज्ञानादि, बुद्ध के ज्ञानबुद्धादि, धर्म के श्रुतधर्मादि और प्रत्याख्यान त्याग के मनादि द्वारा, दो और तीन प्रकार, कर्म के प्रदेश कर्मादि११ एवं जम्बूद्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण में हैमवत और उत्तर में हैरण्यवत क्षेत्र में वृत्तवैताढ्य के दो और चार भेद,१२ मन्दरपर्वत से दक्षिण में चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत से ऊपर कूटों की और मंदर पर ही महाह्रदों की संख्या दो और छ: बतायी गई है। औपमिक काल के पल्योपमादि५ तथा दर्शन के सम्यग्दर्शनादि दो और आठ भेद१६ वर्णित हैं। समाधि, उपधान, विवेक आदि बारह प्रतिमाओं का दो स्थलों पर वर्णन है। __पुन: जीव के त्रस और स्थावर के तीन-तीन भेदों की जीव निकाय के ६ भेदों के रूप में पुनरावृत्ति, प्रणिधान१८, सुप्रणिधान१९, और दुष्पणिधान२० के मन, वचन कायादि क्रमश: तीन और चार भेद, देवों के देवलोक से मनुष्यलोक में शीघ्र न आ सकने के तीन और चार कारण, वाचना के अयोग्य और योग्य तीन और चार प्रकार के साध२२, प्रव्रज्या के तीन-तीन के चार वर्ग और चार-चार के पाँच वर्ग२३, वर्णित हैं। मनुष्य लोक और देवलोक में अन्धकार होने और प्रकाश होने , देवों के मनुष्य लोक में आगमन', देवों की सामूहिक उपस्थिति', देवों का कलकल शब्द', देवेन्द्रों का मनुष्य लोक में शीघ्र आगमन", सामानिक आदि देवों के अपने सिंहासन से उठने', - सिंहनाद करने , वस्त्रों के उछालने, देवों के चैत्यवृक्षों के चलायमान होने', और लोकान्तिक देवों के मनुष्यलोक में आने', इनमें से प्रत्येक के तीन और चार कारण बताये गये हैं।२४ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्ग एवं समवायाङ्ग में पुनरावृत्ति की समस्या : ४१ इसी प्रकार शरीर के चार और पाँच प्रकार, क्षुद्रप्राणी के द्वीन्द्रियादि चार और छः२५, जम्बूद्वीप में मेरुपर्वत के समीप चार और छ; अकर्मभूमियाँ,२६ संज्ञा के आहारादि चार और दस प्रकार२७, इन्द्रियों के श्रोत्रेन्द्रियादि पाँच और छ: विषय२८, ऋद्धियुक्त मनुष्यों के पाँच और छ: भेद२९, जम्बूद्वीप में मेरुपर्वत के समीप वर्षों की संख्या और वर्षधर पर्वतों की संख्या छः और सात बतायी गयी है।३१ समस्त जीवों के आभिनिबोधिकादि छ: और आठ प्रकार२२, पृथ्वीकायिक की अप्कायिकादि में गति-आगति छ: और नौ प्रकार की है।३३ दर्शन परिणाम के सम्यग्दर्शनादि,३४ योनिसंग्रह के अण्डजादि, ३५ अण्डज की गति-आगति,३६ एवं पृथ्वी के रत्नप्रभादि, सात और आठ प्रकार के वर्णित हैं।२७ सुषमा के अकाल में वर्षादि न का होना३८ एवं दुषमा के अकालवर्षादि सात और दस लक्षण, जम्बूद्वीप में भारतवर्ष के अतीत उत्सर्पिणी२९ एवं आगामी उत्सर्पिणी में सात और दस कुलकर बताये गये हैं। 'आलोचना देने योग्य साध के आचारादि स्थान १, अपने दोषों की आलोचना करने योग्य साध के स्थानों४२, तण-वनस्पति के मूलादि अवयवों४३ और सूक्ष्मजीवों के प्राणसूक्ष्मादि भेदों की संख्या आठ और दस प्रतिपादित है। समवायांग में प्रयोग५ के तेरह और पन्द्रह भेद वर्णित हैं। इसीप्रकार कुछ विषय तीन स्थलों पर संगृहीत हैं जैसे उपघात के उद्गमोपघातादि,४६ विशोधि के उद्गमविशोधि७ आदि तीन, पाँच और दस प्रकार, तृणवनस्पति के अग्रबीजादि चार, पाँच और छ: प्रकार, जीव के पृथ्वीकायिक आदि, छ:, सात और नौ प्रकार,४८ लोकान्तिक विमान के सारस्वतादि लोकान्तिक देवों के सात, आठ और नौ प्रकार,४९ पृथ्वीकायिकादि विषयक संयम और असंयम* दोनों के सात, दस और सत्रह प्रकार वर्णित हैं।५१ कुछ तथ्य चार स्थलों पर संगृहीत हैं। जैसे लोकस्थिति की आकाश पर वायु आदि तीन, चार, छ: और आठ स्थितियाँ, संसार समापनक जीवों के चार, पाँच, सात और आठ प्रकार५२, संवर के श्रोतेन्द्रिय संवरादि५३ और असंवर* के श्रोत्रेन्द्रिय असंवरादि पाँच, छ:, आठ और दस प्रकार वर्णित हैं। ५४ प्रायश्चित्त के आलोचनादि तीन, छ:, आठ, नौ और दस भेद पाँच स्थलों पर वर्णित हैं। जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि पुद्गलों से सम्बन्धित विवरण सभी दस स्थानों के अन्त में संगृहीत है। इस प्रकार उक्त तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में पुनरावृत्ति के कारण ग्रन्थ की अनावश्यक वृद्धि पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि जिन तथ्यों का विवेचन लगभग ९० सूत्रों या सूत्रांशों में हो सकता था उनके लिए दो सौ से ऊपर लगभग २१० सूत्रों का प्रयोग Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ किया गया है। इस प्रकार अनुमानत: १२० सूत्रों की अधिकता स्थानाङ्ग में पायी जाती है। स्थानाङ्ग में कुल २८३१ सूत्र या अनुच्छेद (मधुकरमुनि संस्करण में) उपलब्ध है। इस दृष्टि से स्थानाङ्ग में पुनरावृत्त अंशो और समस्त सामग्री का अनुपात १ : २५ के लगभग है। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है। समवायांग में पुनरावृत्त प्रकरणों की संख्या अत्यल्प है फिर भी कम से कम ७० सूत्र या अनुच्छेद अनावश्यक माने जा सकते है। विभिन्न प्रकरणों से सम्बन्धित पुनरावृत्त स्थलों की विवेचना करने से ज्ञात होता है कि कुछ पुनरावृत्तियाँ युक्तिसंगत हैं। पूर्ववर्ती स्थान में वर्णित विषय के किसी एक भेद के, परवर्ती स्थान में अवान्तर भेद सम्मिलित किये गये हैं जिससे स्वाभाविक रूप से प्रकरण विशेष के भेदों की संख्या में वृद्धि हो गयी है। उदाहरण स्वरूप स्थानांग के छठे स्थान में ज्ञान की दृष्टि से जीव के छ: भेद मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी और अज्ञानी बताये गये हैं- (६/१) इसी प्रकरण के आठवें स्थान में आठ भेद बताये गये है। वहाँ पर पाँच भेद तो पूर्व के समान ही हैं। छठवें भेद अज्ञानी के स्थान पर इसके तीन अवान्तर भेदों मति अज्ञानी, श्रुत अज्ञानी और विभङ्ग अज्ञानी के सम्मिलित कर देने से ज्ञान की दृष्टि से जीवों के भेद की संख्या आठ हो गयी है। इसी प्रकार पृथ्वीकायिकों की गति-आगति के प्रकरण में दोनों स्थानों के पाँच भेद समान हैं। छठवें स्थान (६/१०) के अन्तिम भेद त्रसकायिकों के बदले ९वें स्थान में (९/८) में उसके चार उपभेदों-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय जीवों की गणना करने से संख्या ९ हो गयी है। ऋद्धिमंत पुरुषों के प्रसङ्ग में इसके पाँचवें भेद भावितात्मा (अनगार तप से ऋद्धि-अलौकिक शक्ति प्राप्त करने वाले) के स्थान पर छठे स्थान में इसके (भावितात्मा अनगार के) दो भेदों जंघाचारण अनगार और विद्याचारण अनगार को समाविष्ट कर लेने से एक वृद्धि हो गयी है। जंघाचारण अनगार को तप के बल से पृथ्वी का स्पर्श किये बिना ही अधर गमनागमन की लब्धि प्राप्त होती है। विद्याचारण वे अनगर कहलाते हैं जिन्हें आकाश में गमनागमन की शक्ति प्राप्त होती है।* उक्त उदाहरणों में पूर्व में वर्णित किसी भेद-विशेष के बदले उसके अवान्तर भेदों को सम्मिलित करने से संख्या में वृद्धि हुई है। इसके अतिरिक्त कुछ विषयों के प्रसङ्ग में पूर्व में वर्णित भेद-विशेष को, बाद में छोड़ दिया गया है, और उसके स्थान पर नये भेदों को समाविष्ट किया गया है, जो तर्कसङ्गत नहीं प्रतीत होता है। सुषमा के ७ और १० लक्षण दो स्थलों पर वर्णित है।' इनमें दोनों स्थलों के विवरण में ५ लक्षण समान हैं। पाँच के अतिरिक्त मन:शुभता और वचःशुभता हैं। सुषमा के दस लक्षणों के प्रसङ्ग में छठवें भेद मनःशुभता के स्थान पर Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्ग एवं समवायाङ्ग में पुनरावृत्ति की समस्या : ४३ इसके पाँच भेदों मनोज्ञ शब्द, मनोज्ञ रूप, मनोज्ञ गन्ध, मनोज्ञ रस और मनोज्ञ स्पर्श को समाविष्ट कर दस संख्या पूर्ण कर ली गई है। इसके सातवें भेद वचःशुभता को छोड़ दिया गया है जो युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता है। इसी प्रकार पृथ्वी के सात और आठ भेदों के प्रतिपादन में सातवें भेद (७/२४) के स्थान पर आठवें स्थान में दो भेदों अध:सत्तमा और ईषत्प्राग्भारा को सम्मिलित किया गया है। सर्वजीवों के प्रसङ्ग में जीव के सात और नौ प्रकार बताये गये हैं। दोनों में पाँच प्रकार समान हैं। सात प्रकारों के विवरण में छठे और सातवें प्रकार के रूप में त्रसकायिक और अकायिक का उल्लेख है। जबकि नौ प्रकारों के उल्लेख में त्रसकायिक के बदले इसके चार उपभेदों द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय को सम्मिलित करना तो तर्कसङ्गत है परन्तु सातवें भेद अकायिक को छोड़ देना समीचीन नहीं प्रतीत होता है। ऐसी ही विसङ्गति जम्बूद्वीप के अतीत उत्सर्पिणी एवं आगामी उत्सर्पिणी के सात और दस कुलकरों की उत्पत्ति के प्रसङ्ग में दिखाई पड़ती है। स्वाभाविक रूप से या तो सात कुलकर उत्पन्न हुए थे और होगें, या दस कुलकर उत्पन्न हुए थे और होंगे। अतः भिन्न-भिन्न संख्याओं के प्राप्त होने का कोई औचित्य नहीं है। २३वें तीर्थंकर पार्श्व के ८ गणधरों की संख्या में भी स्थानाङ्ग एवं समवायांग में अन्तर दिखाई पड़ता है। इसके अतिरिक्त अधिकांश पुनरावृत्त प्रकरणों में अन्तिम विवरण पूर्णता लिये हुए है अत: तत्सम्बद्ध शेष विवरण निरर्थक या अनावश्यक प्रतीत होते हैं और ग्रन्थ के आकार में वृद्धिमात्र करने वाले हैं। सन्दर्भ१. पं०बेचरदास दोशी, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-१, पार्श्वनाथ विद्यापीठ (सं०६) वाराणसी-५, द्वि०सं० १९७९, पृ०-२१३ । २. १/६-७, २/११-१४, ३/१७-१९, ४/२२-२३, ...... ३३/२१७-८ समवायाङ्ग, सम्पा० मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन, समिति, व्यावर। ३. सूत्र : १/२५४-२५६, २/४६३-४६५, ३/५४१-५४२, ४/६५९/ ६६२, ५/२३९-२४०, ६/१२९-१३२, ७/१५४-१५५, ८/१२७-१२८, ९/७३ एवं १०/१७४-१७८। स्थानाङ्ग सूत्र, सम्पा०मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति, व्यावर (जिनागम __ ग्रन्थमाला सं०-७) १९८१। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ * * * ४. तिविधा लोगठिती पण्णत्ता, तं जहा - आगासपइट्ठिए वाते, वातपइट्ठिए उदही, उदही पइट्ठिया पुढवी, - ३/२/३/९, स्थानाङ्ग। चउव्विहा ...... पुढविपतिट्ठिया तसा थावरा पाणा – ४/२/२५९, स्थानाङ्ग। छव्विहा ..... अजीवा जीवपतिट्ठिता, जीवा कम्मपतिट्ठिता - ६/३६, स्थानाङ्ग। अट्ठविधा......अजीवा जीवसंगहीता, जीवाकम्मसंगहीता-८/१४, स्थानाङ्ग। तिविधे पायच्छित्ते पण्णत्ते, तं जहा-आलोयणारिहे, पडिक्कमणारिहे, तदुभयारिहे ३/४/४४८, स्थानाङ्ग। * छव्विहे, ...... विवेगारिहे, विउस्सग्गारिहे, तवारिहे। –६/१९ स्थानाङ्ग। * अट्ठविहे, ...... छेयारिहे, मूलारिहे, ८/२० स्थानाङ्ग। * णवविधे, ...... अणवठ्ठप्पारिहे। –९/४२ स्थानाङ्ग। * दसविधे, ...... पारंचियारिहे । –१०/७३ स्थानाङ्ग। ६. चउव्हिा तणवणस्सतिकाइया पण्णत्ता, तं जहा-अग्गबीया, मूलबीया, पोरबीया, खंधबीया, - ४/१/५७ स्थानाङ्ग। * पंचविहा, ...... खंधबीया, बीयरुहा। - ५/२/१४६ स्थानाङ्ग। * छव्विहा, ....... सँमुच्छिमा- ६/१२ स्थानाङ्ग। ७. णाण बोधी चेव दंसणबोधी चेव। २/४/४२० । * तिविहा ....... चरित्तबोधी- ३/२/१७६। ८. दुविहा बुद्धा पण्णत्ता - तं जहा णाणबुद्धा चेव, दंसणबुद्धाचेव–२/४/४२१। तिविहा ....... चारित्तबुद्धा। -३/२/१७७। ९. दुविहे धम्मे पण्णत्ते, तं जहा सुयधम्मे चेव, चरित्तधम्मे चेव। –२/१/१०७। * तिविहे, ...... अत्थिकायधम्मे, ३/३/४/१०। १०. दुविहे पच्चक्खाणे पण्णत्ते - मणसा वेगे पच्चक्खाति, वयसा वेगे पच्चक्खाति। -२/१/३९। * तिविहे ....... कायसा वेगे पच्चक्खाति। ३/१/२७। ११. दुविहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा—पदेसकम्मेचेव, अणुभावकम्मे चेव।–२/३/ २६५। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्ग एवं समवायाङ्ग में पुनरावृत्ति की समस्या : ४५ * चउव्विहेकम्मे ....... पगडीकम्मे, ठितीकम्मे, ४/४/४०६ । १२. दो वट्टवेयड्डपव्वया पण्णत्ता - बहुसमतुल्लाजाव, तं जहा-गंधावाती चेव, मालवंतपरियाए चेव। -२/२७४। * चत्तारि सद्दावती, वियडावाती, ..... ४/३०७ । १३. जम्बूद्वीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाणेि णं चुल्लहिमवंते, २/२८१, वही समाग्री ६/८६ और ६/८७ में वर्णित है। १४. महाह्रद के सम्बन्ध में जो सामग्री द्वितीय स्थान में २/२८७-२८९ में वर्णित है वही सूचना ६वें स्थान में ८८सूत्र में उपलब्ध है। १५. दुविहे अद्धोवमिए पण्णत्ते तं जहा - पालिओवमे चेव, सागरोवमे चेव, २/४/४०५। * अट्ठविधे, ....... ओसप्पिणी, उस्सप्पिणी, पोग्गलपरियट्टे, तीतद्धा, अणागतद्धा, सव्वद्धा ।-८/३९। १६. दुविहे दंसणे पण्णत्ते तं जहा - सम्मदंसणे चेव, मिच्छादसणेचेव, २/७९ । * अट्ठविधे, सम्मदंसणे मिच्छादसणे, सम्मामिच्छदंसणे, चक्खुदंसणे, अचक्खुदंसणि, ओहिदंसणे, केवलदसंणे, सुविणदंसणे।। -८/३८ । १७. तिविहा तसा पण्णत्ता, तं जहा तेउकाइया, वाउकाइया, उराला, तसा, पाणा। –३/३२६ स्थानाङ्ग। तिविहा थावरा पत्ता, तं जहा-पुढविकाइया, आउकाइया, वणस्सइ काइया। -३/३२७, स्थानाङ्ग। छज्जीवणिकायापण्णत्ता, तं जहा- पुढविकाइया, (आउकाइया, तेउकाइया, वाउकाइया, वणस्सईकाइया)।-तसकाइया। ६/६ स्थानाङ्ग। १८. तिविहे पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा - मणपणिहाणे, वयपणिहाणे, कायपणिहाणे ३/९६, स्थानाङ्ग। * चउबिहे, ....... उवकरणपणिधाणे-४/१/१०४, स्थानाङ्ग। १९. तिविहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा मणसुप्पणिहाणे, वयसुप्पणिहाणे, काय-सुप्पणिहाणे। -३/९७ स्थानाङ्ग । * चउविहे, ....... सुप्पणिहाणे-४/१/१०५। * संजयमणुस्साणं तिविहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते - तं जहा-मणसुप्पणिहाणे, ronal Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ वयसुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे, - ३/९८ । एवं संजयमणुस्साणति-४/१/१०५। २०. तिविहे दुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा - मणदुप्पणिहाणे, वयदुप्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे, ३/९९, स्थानाङ्ग। * चउब्विहे, ....... उवकरणदुप्पणिहाणे-४/१/१०६। १. स्थानाङ्ग, ३/३/३६१ (१-३), ४/१/५८ (१-४)। * तओ अवायणिज्जा पण्णत्ता, तं जहा - अविणीए, विगतीपडिबद्धे, अतिओसवित पाहुडे, ३/४/४७६। * चत्तारि, ...... विपाहुडे, माई, ४/३/४५२। २२. तओ कप्पंति वाइत्तए, तं जहा - विणीए, अविगतीपडिबद्धे, विओसविय पाहुडे। -३/४/४७७ स्थानाङ्ग। * चत्तारि, ....... अमाई, ४/३/४५३। २३. तिविहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं जहा-इहलोगपडिबद्धा, परलोगपडिबद्धा, दुहतो लोग पडिबद्धा, ३/२/१८०। । चउव्विहा, अप्पडिबद्धा-४/४/५७१। * तिविहा, पुरतो पडिबद्धा, मग्गतो पडिबद्धा, दुहओ पडिबद्धा, ३/२/१८१। ___चउव्विहा ....... अप्पडिवद्धा। ४/४/५७२। तिविहा , तुयावइत्ता, पुयावइत्ता, बुआवइत्ता, ३/२/१८२। * चउब्बिहा........ परिपुयाबइत्ता, ४/४/५७४। तिविहा ...... ओवातपव्वज्जा, अक्खातपव्वज्जा, संगारपलज्जा, ३/२/१८३। * चउव्विहा ...... विहगगइपन्वण्णा। –४/४/५७३। * चउव्विहा..... णडखइया, भडखइया, सोहखइया, सियालखइया ४/४/५७५ । २४. स्थानाङ्ग सूत्र ३/१/७४-८६ एवं ४/३/४३५-४४९। २५. चउव्विहा खुड्डपाणा पण्णत्ता, तं जहा - बेदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया, संमुच्छिमपंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया। –४/४/५५२। * छव्विहा ....... तेउकाइया, वाउकाइया। –६/६८ स्थानाङ्ग। २६. चत्तारि अकम्मभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-हेमवते, हेरण्णवते, हरिसवरिसे रम्मगवरिसे। -४/३०७, स्थानाङ्ग। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्ग एवं समवायाङ्ग में पुनरावृत्ति की समस्या * छ देवकुरा, उत्तरकुरा। ६/८३। २७. चत्तारि सण्णाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - आहारसण्णा, भयसण्णा, मेहुणसण्णा, परिग्गहसण्णा । - ४/४/५७८| * दस सण्णाओ, * २८. पंच इंदियत्था पण्णत्ता, तं जहा जिब्भिदियत्थे, फासिंदियत्थे । - णोइंदियत्थे । - - ६ / १४ । * लोगसण्णा, ओहसण्णा । - १० / ११५ स्थानाङ्गः । छ, * ...... * कोहसण्णा, (माणसण्णा, मायासण्णा) लोभसण्णा, - २९. पंचविहा - इड्ढमंता मणुस्सा पण्णत्ता तं जहा - अरहंता, चक्कवट्टी, बलदेवा, भवियप्पाणो, अणगारा ५/२/६७। * छव्विहा चारणा विज्जाहरा, ६/२१। ३०. जम्बूद्वीवे दीवे छव्वसा पण्णत्ता, तं जहा - भरहे, एरवते, हेमवते, हेरण्णवए, हरिवासे, रम्मगवासे - ६ / ८४ | सत्तवासा, महाविदेहे, ७/५०१ ३१. जम्बूदीवे दीवे छ वासाहरपव्वतापण्णत्ता, तं जहा चुल्लहिमवंते, महाहिमवंतो, जिसढे, णीलवंते, रुप्पो, सिंहरी - ६ / ८५ सोतिंदियत्थे, चक्खिंदियत्थे, घाणियित्थे, -५/३/१७६। 4: ४७ ३२. छव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा आभिणिबोहियणाणी, (सुयणाणी, ओहिणीणी, मणपज्जवणाणी), केवलणाणी, अण्णाणी । ६ / ११ । * अट्ठविधा, मतिअण्णाणी, सुतअण्णाणी, विभंगणाणी, ८ / १०६ । ३३. पुढविकाइया छगतिया छ आगतिया पण्णत्ता, तं जहा पुढविकाइए पुढविकाइएसु उववज्जमाणे पुढविकाइएहिंतो वा (आउकाइएहिंतो वा तेउकाइएहिंतोवा, वाउकाइएहिंतो वा, वणस्सइकाइएहिंतो वा), तसकाइएहिंतो वा उववज्जेज्जा । - ६ / ९ स्थानाङ्ग । - पुढविकाइया णवगतिया णवआगतिया पण्णत्ता, तेंइदिएहिंतो वा, चउरिदिएहिंतो वा, पंचिदिए हिंतो वा । — स्थानाङ्ग । से चेवणं से पुढविकाइए पुढविकायत्तं एवमाकाइयावि जाव पंचिंदियत्ति । — ९/९। बेsदिएहिंतो वा, Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/ १९९६ ३४. सत्तविहे दंसणे पण्णत्ते, तं जहा सम्मद्दंसणे, मिच्छद्दंसणे, सम्मामिच्छदंसणे, चक्खुदंसणे, अचक्खुदंसणे, ओहिदंसणे, केवलदंसणे ।। – ७/७६ स्थानाङ्गः। * अट्ठविधे दंसणे पण्णत्ते ,८/३८, स्थानाङ्ग । सुविण दसणे । अंडजा, पोतजा, जराउजा, रसजा, ४८ 1: ३५. सत्तविधे जोणिसंगहे पण्णत्ते, तं जहा संसयेगा, संमुच्छिमा, उब्भिगा ७ / ३ स्थानाङ्गः । उववातिया । ८ / २, स्थानाङ्ग । ३६. अंडगा सत्तगतिया सत्तागतिया पण्णत्ता, तं जहा - अंडगे अंडगेसु उववज्जमाणे, अंडगेहिंतो वा, पातजेहिंतो वा, जराउजेहिंतो वा, रसजेहितो वा संसेयगेहिंतो वा, संमुच्छिमेहिंतो वा, उब्भिगेहिंतो वा, उववज्जेज्जा। सच्चेव णं से अंडए अंडगत्तं वाविप्पजहमाणे अंडगत्ताए वा, पोतगत्ताए वा, (जराउजत्ताए वा, रसजत्ताए वा, संसेयगत्ताए वा, संमुच्छिमत्ताए वा, उब्भिगत्ताए वा गच्छेज्जा । - ७ / ४ स्थानाङ्गः । से चेव णं से पुढविकाइए पुढविकाइयत्तं विप्पजहमाणे, पुढविकाइयत्ताए वा, (आउकाइयत्ताए वा, तेउकाइयत्ताए वा, वाउकाइयत्ताए वा, वणस्सइकाइयत्ताए वा) तसकाइयत्ताए वा अच्छेज्जा । - ६/९/ * अट्टविधे, * * आउकाइया छगतिया छआगतिया एवं चेव जाव तसकाइया । पोतगा सत्तगतिया सत्तागतिया । सत्तण्हवि गतिरागती भाणियव्वा । * अंडगा अट्ठगतिया, ववातिएहिंतो । से चेवणं से अंडए अंडगत्तं विप्पजहमाणे उववालियत्ताए वा गच्छेजा १८/३ । * * * ****... ३७. एतासि णं सत्तण्हं पुढवीणं सत्तगोत्ता पण्णत्ता, तं जहाप्पभारयणप्पभा, सकरप्पभा, वालुअप्पभा, पंकप्पभा, धूमधा, तमा, तमतमा । – ७ / २४ स्थानाङ्गः । अट्ठपुढवीओ पण्णत्ताओ, अहंसत्तमा, ईसिपब्भारा, ८ / १०८ । * - ६ / १० । ३८. सत्तहिं ठाणेहिं ओगाढं सुसमं जाणेज्जा, तं जहा - अकाले ण वरिसइ, काले वरिसइ, असाध ण पुज्जंति, साधु पुज्जंति, गुरूहिं जणो सम्भं पडिवण्णो, मणोसुहता, वहसुहता । —७/७०। -७/५ दसहिं ठाणेहिं ओगाढं सुसमं जाणेज्जा, तं जहा – अकालेण वरिसाते, काले वरिसति, असाहू ण इज्जंति, साहू पुइज्जंति, गुरुसु जणो सम्भं पडिवण्णो, मण्णा सद्दा, भणुण्णा रूवा, मणुण्ण गंधा, मणुण्णरसा, मणुण्णा फासा । – १०/४१| Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्ग एवं समवायाङ्ग में पुनरावृत्ति की समस्या : ४९ *. सत्तहिं ठाणेहिं ओगाढं दसमं जाणेज्जा, तं जहा- अकाले वरिसइ. काले ण वरिसइ, असाधू पुज्जति, साधु ण पुज्जंति, गुरूहिं जणो मिच्छं पडिवण्णे मणोदुहता, वइदुहता। - ७/६९, स्थानाङ्ग। दसहिं ठाणेहिं ओगाढं जाणेज्जा, तं जहा— अकालेवरिसइ, काले ण वरिसइ, असाहू पूइज्जंति, साहूण पूइज्जंति, गुरुसु जणे मिच्छं पडिवणो, अमणुण्णा सद्दा, अभणुण्णा रूवा, आमणुण्णा गंधा, अभणुण्ण रसा, अभणुण्णा, फासा, -१०/१४०। ३९. जम्बूद्दीवे दीवे भारहे वासे तीताए उस्सप्पिणीए सत्तकुलगरा हुत्था, तं जहा मित्तदामे सुदामे य, सुपासे य सयंपभे। विमलघोसे सुघोसे य, महाघोसे य सत्तमे ।। –७/६१ । ___ * जम्बूद्दीवे दीवे भारहे वासे तीताए उस्सप्पिणीए दस कुलगरा हुत्था, तं जहा संयजले सयाऊ अ, अणंतसेणे य अजितसेणे य। कक्कसेणे भीमसेणे, महाभीमसेणे य सत्तमे ।। –१०/१४३। ४०. जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए सत्तकुलकरा भविस्संति मित्तवाहण सुभोमे य, सुप्पभे य सयंपभे। दत्ते सुहुमे सुबंधू य, आगमिस्सेण होक्खती।। –७/६४। * भविस्संति, तं जहा-सीमंकरे, सीमंधरे, खेमंकरे, खंमंधरे, विमलवाहणे, सुमंती, पडिसुते, दढधणू, दसधणू, सतधणू ।। -१०/१४४। ४१. अट्ठहिं ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अरिहति आलोयणं पडिच्छित्तए, तं जहा-आयारवं, आधारवं, ववहारवं, ओवीलए, पकुव्वए अपरिस्साई, णिज्जावए, अवायदंसी। -८/१८ स्थानाङ्ग। * दसहि ठाणेहिं, ....... पियधम्मे दढधम्मे – १०/७२। ४२. अट्ठहिं ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अरिहति अत्तदोसमालोइत्तए, तं जहा-जातिसंपण्णे, कुलसंपण्णे, विणयसंपण्णे, णाणसंपण्णे, दसंणसंपण्णे, चरित्तसंपण्णे, खते, दंते।। -८/१९। * दसहिं ठाणेहिं, ....... अमायी, अपच्छाणुतावी – १०/७१ स्थानाङ्ग। ४३. अट्ठविधा तणवणस्सतिकाइया पण्णत्ता, तं जहा - मूले कंदे खंधे, तया, साले, पवाले, पत्ते, पुप्फे । -८/३२। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर / १९९६ दसविधा, फले, बीये ।। १०/१५५ स्थानाङ्गः । ४४. अट्ठसुहुमा पण्णत्ता, तं जहा पाणसुहुमे, पणगसुहमे, बीयसुहुमे, हरितसुहुमे, पुप्फसुहुमे, अंडसुहुमे, लेणसुहुमे, सिणेहसुमे । - ८ / ३५ स्थानाङ्गः । * दस सुहुमा गणिहुमे, भंग हुमे । - १०/२४ । * * ४५. गब्भवक्कंतिअपंचिंदियतिरिक्खजोणिआणं तेरसविहे पओगे पण्णत्ते तंजहा- सच्चमण पओगे मोसमणपओगे सच्चामोसमणपओगे असच्चामोसमण पओगे सच्चवइपओगे मोसवइपओगे सच्चामोसवइपओगे असच्चामोसवइपओगे ओरालियसरीरकायपओगे ओरालियमीससरीरकायपओगे वेडव्वियसरीरकायपयोगे वेडव्वियमीससरीरकायपयोगे कम्मइयसरीरकायपओगे। - १३/८८ समवाय । *. सच्चवणपओगे (१२) - मणूसाणं पण्णरसविहे पओगे पण्णत्ते आहारायसरीरकायप्पओगे, (१३) आहारयमीससरीरकायप्पओगे । – समवाय- १५ । ४६. तिविधे उवघाते पण्णत्ते, तं जहा - उग्गमोवघाते, उप्पायणोवघाते, एसणोवघाते । - ३ / ४३२, स्थानाङ्गः । पंचविधे, परिकम्मोवघाते परिहरणोवघाते । - ५ / २ /१३१ । दसविधे उवघाते पण्णत्ते, णाणोवघाते, दंसणोवघाते, चरित्तोवघाते, अचियत्तोवघाते, सारक्खणोवघाते । - १०/८४ स्थानाङ्गः । * * : * .. ४७. तिविधा विसोही पण्णत्ता, तं जहा - उग्गमविसोही उप्पायणविसोही, एसणाविसोही । ३ / ४३३ स्थानाङ्गः । * * - पंचविहा परिकम्मविसोही, पिरहरणविसोही । ५/२/१३२, स्थानाङ्गः । दसविधा णाणविसोही, दंसणविसोहि, चरित्तविसोही, अचियत्त विसोही, सारक्खण विसोही | ...... चत्तारि सरीरगा कम्मुमीसगा पण्णत्ता, तं जहा - ओरालिए, वेडव्विए, आहारए, तेयए। ४/४९२। पंच सरीरगा, कम्मए । ५/२५ । * छव्विहा सव्वजीवा, असरीरी । ६ / ११ । ४८. छव्विहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता, तं जहा- पुढविकाइया, आउकाइया, तेडकाइया, वाउकाइया, वणस्सइकाइया, तसकाइया, ७/८ । * सत्तविधा सव्वजीवा पण्णत्ता, अकाइया २७/७३। ..... Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्ग एवं समवायाङ्ग में पुनरावृत्ति की समस्या : ५१ * णवविहा, ..... बेइंदिया, (तेइंदिया, चउरिदिया, पंचिंदिया। -९/७। ४९. सारस्सयमाइच्चाणं (देवाणं) सत्तदेवा सत्तदेवसता पण्णत्ता। ७/१००। एतेसु णं अट्ठसु लोगंतियविमाणेसु अट्ठविधा लोगंतिया देवा पण्णता तं जहासारस्सतमाइच्चा, वण्ही वरुणा य गद्दतोया। तुसिता अव्वाबाहा, अग्गिच्चा चेव बोद्धव्वा ।। ८/४६। णव देवणिकाया पण्णत्ता, ...... चेव रिट्ठा य ।। ९/३४ स्थानाङ्ग। ५०. पण्णत्ते, तं जहा - पुढविकाइय संजमे (आउकाइयसंजमे, तेउकाइयसंजमे, वाउकाइयसंजमे, वणस्सइकाइयसंजमे, तसकाइयसंजमे, अजीवकाइय संजमे। --७/८२ स्थानाङ्ग। दसविधे संजमे, बेइंदियसंजमे, तेइंदियसंजमे, चउरिदियसंजमे, पंचिंदियसंजमे, अजीव कायसंजमे। -१०/८ स्थानाङ्ग। * सत्तरसविहे असंजमे, १७/११८, समवांयाग। ५१. सत्तविधे असंजमे पण्णत्ते, तं जहा - पुढविकाइयअसंजमे, आउकाइय असंजमे, तुउकाइय असंजमे, वाउकाइय असंजमे, वणस्सइकाइय असंजमे तसकाइय असंजमे, अजीवकाइय असंजमे - ७/८३। स्थानाङ्ग। दसविधे असंजमे- १०/९ स्थानाङ्ग। * सत्तरसविहे संजमे पण्णत्ते, पेहासंजमे उवेहासंजमे अवहड्डसंजमे पमज्जणासंजमे मणसंजमे कइसंजमे कायसंजमे ।। -१७/११७ समवायाङ्ग। ५२. चउव्विहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता, तं जहा-णेरइया, तिरिक्खजोणिया, मणुस्सा, देवा। ४/६०८1 * अहवा पंचविधा, ..... सिद्धा - ५/२०८। * सत्तविहा,...... देवीओ। * अट्ठविधा..... सिद्धा, ८/१०६। ५३. पंचविधे संवरे पण्णत्ते तं जहा - सोतिंदियसंवरे, (चक्खिंदिय संवरे, घाणिंदिय संवरे, जिभिंदियसंवरे, फासिंदिय संवरे ५/२/१३७। छव्विहे, ....... णोइंदियसंवरे, ६/१५ । * अट्ठविहे, ...... मणसंवरे वइसंवरे, कायसंवरे।-८/११। * दसविधे संवरे पण्णत्ते, ..... उवकरणसंवरे, सूची कसग्गसंवरे, १०/१०। * दसा Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ ५४. पंचविधे असंवरे पण्णत्ते, तं जहा – सोतिंदिय असंवरे (चक्खिदियअसंवतरे, घाणिंदियअसंवरे, जिब्भिदियअसंवरे, फासिंदियअसंवरे, ५/५/१३८, छव्विहे..... णोइंदियअसवरे।-६/१६ स्थानाङ्ग। अट्ठविहे, ..... मणअसंवरे, वइ असंवरे, कायअसंवरे । -- ८/११ स्थानाङ्ग। * दसविधे, ...... उवकरणअसंवरे सूचीकुमसग्गअसंवरे ।। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण तित्थोगाली (तिर्थोद्गालिक) प्रकीर्णक की गाथा संख्या का निर्धारण अतुल कुमार प्रसाद सिंह जैन आगम साहित्य मुख्यत: दो वर्गों में विभक्त है- अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य। अंग प्रविष्ट में प्राचीन परम्परा के अनुसार और वर्तमान में भी (बारहवें दृष्टिवाद अंग के विलुप्त होने से) आचारांग आदि ग्यारह अंग-ग्रन्थों का समावेश है। परन्तु अंग बाह्य के भेद-विभेद की कई परम्परायें दृष्टिगत होती हैं। नंदीसूत्र' में अंग बाह्य आगम के दो भेद किये गये हैं- आवश्यक तथा आवश्यक-व्यतिरिक्त। आवश्यक के सामायिक आदि छ: भेद हैं तथा आवश्यकव्यतिरिक्त को पुन: कालिक और उत्कालिक दो भागों में विभक्त किया गया है। कालिक के अन्तर्गत उत्तराध्ययन आदि ३३ ग्रन्थों को ग्रहण किया गया है और उत्कालिक में दशवैकालिक, औपपातिक तथा अनेक प्रकीर्णक समाविष्ट हैं। उक्त विभाजन अंग बाह्य आगम के वर्गीकरण की प्राचीन परम्परा के अनुसार है। वर्तमान में आगमों का विभाजन छ:भागों में किया जाता है- (१) अंग-११, (२) उपांग-१२, (३) छेद सूत्र-६, (४) मूलसूत्र-४, (५) प्रकीर्णक-१० एवं (६) चूलिका सूत्र-२। इसमें सबसे अधिक मतभेद प्रकीर्णकों की संख्या के विषय में है। सामान्यत: श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में १० प्रकीर्णक ही आगमों के अन्तर्गत माने जाते हैं, किन्तु इसकी अधिकतम संख्या वर्तमान में ३० तक मानी जाती है। मुनि पुण्यविजय जी ने पइण्णयसुत्ताई नामक ग्रन्थ में २२ प्रकीर्णकों को संग्रहीत किया है। * इस नाम पर विद्वानों में मतभेद है। विद्वानों ने इसका नाम तित्थोगाली (मुनिपुण्यविजय जी) तित्थुग्गालिय (तिर्थोद्गार) (प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास - डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री) और तित्थुगालिय (तीर्थोद्गालिक) (अर्धमागधी कोश) ने स्वीकार किया है। ** शोधछात्र - प्राच्यविद्या धर्मविज्ञान संकाय, का०हि०वि०वि०, वाराणसी। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ जैन वाङ्मय में 'प्रकीर्णक' एक पारिभाषिक शब्द है। इसका अभिप्राय हैविविध विषयों पर रचित स्वतन्त्र ग्रंथ या मुक्तक वर्णन। नन्दीसूत्रवृत्ति (मलयगिरि) के अनुसार तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करके श्रमण प्रकीर्णकों की रचना करते हैं। परम्परागत मान्यता यह है कि प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में श्रमणों की संख्या के बराबर ही प्रकीर्णकों की संख्या होती है। समवायांगसूत्र में “चौरासीइं पइण्णगं सहस्साइं पण्णत्ता' कहकर आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के चौरासी हजार शिष्यों तथा प्रत्येक के एक-एक, इस प्रकार चौरासी हजार प्रकीर्णकों का उल्लेख किया गया है। इसी प्रकार अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के तीर्थ में चौदह हजार श्रमणों के चौदह हजार प्रकीर्णक माने जाते हैं। परन्तु यह केवल मान्यता है। अधिकतम मान्य ३० प्रकीर्णकों में से केवल ९ प्रकीर्णकों का उल्लेख नंदीसूत्र में प्राप्त आगमों की सूची में है। अत: स्वाभाविक रूप से प्रकीर्णकों की संख्या नंदीसूत्र में उपलब्ध प्रकीर्णकों की संख्या से अधिक है। प्रस्तुत लेख तित्थोगाली प्रकीर्णक से सम्बन्धित है। इसका सर्वप्रथम उल्लेख व्यवहार भाष्य (जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, सातवीं शती) में प्राप्त होता है। तित्थोगाली प्रकीर्णक का उल्लेख नन्दीसूत्र (रचनाकाल तीसरी शती) में अनुपलब्ध होने और व्यवहारभाष्य में उपलब्ध होने से इसकी समय सीमा तीसरी शताब्दी के बाद और सातवीं शताब्दी के पूर्व निश्चित की जा सकती है। इसके रचनाकार अज्ञात हैं। यह मुख्यत: जैन धर्म सम्मत इतिहास, भूगोल, खगोल आदि का वर्णन करता है। प्रस्तुत शोध-पत्र में इसकी गाथा संख्या के विषय में प्राप्त अंतर्विरोध पर विचार प्रस्तुत किया जा रहा है। ___ मुनि पुण्यविजय जी द्वारा संपादित पइण्णयसुत्ताई भाग-१ में संग्रहीत तित्थोगाली प्रकीर्णक में १२६१ गाथाएँ उपलब्ध हैं। परन्तु अंतिम १२६१ वी गाथा में इसकी गाथा संख्या १२३३ बतायी गयी है, "तेत्तीसं गाहाओ दोन्नि सता ऊ सहस्समेगं च। तित्थोगाली संखा एसा भणिया उ अंकेण ।।" वस्तुत: पूर्व के किसी अज्ञात सम्पादक ने (ग्रन्थ के पादटिप्पण में सम्पादक कल्पित उल्लिखित है, लेकिन हम यह मान कर चल रहे हैं कि यह सम्पादक मुनि पुण्यविजय जी नहीं बल्कि पूर्व के कोई अज्ञात सम्पादक हैं।) विषय की क्रमबद्धता को अविच्छिन्न रखने के लिए कई स्वकल्पित गाथाओं को ग्रहण किया है तथा कई गाथाओं के दूसरे श्वेताम्बर आगमों से ग्रहण करने का उल्लेख किया है। अन्य आगमों से गृहीत तित्थोगाली की गाथाएँ इसप्रकार हैं . Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तित्थोगाली (तिर्थोद्गालिक ) प्रकीर्णक की गाथा संख्या का निर्धारण तित्थोगाली गाथा : १४४. १४७. १५३. १५७. १५९. ४२६. ५३४. ५३५. ८४८. ८४९. ८५०. ८५२. मेहकर १ मेहवई २ सुमेह ३ तह मेहमालिणि ४ विचित्ता ५ । तत्तो य तोयधारा ६ बलाहका ७ वारिसेणा ८ य । । भोगंकरं १ भोगवती २, सुभोग ३ तह भोगमालिणि ४ सुवच्छ ५, तत्तो चेव सुमित्ता ६ अनिंदिया ७ पुप्फमाला ८ य । । नंदुत्तरा १ य नंदा २ आणंदा ३ नंदिवद्धणा ४ चेव । विजया ५ य वेजयंती ६ जयंति ७ अवराइअट्ठमिया ८ ।। देवीओ चेव इला१ सुरा २ य पुहवी ३ य एगनासा ४ य । पउमावई ५ य नवमी ६ भद्दा ७ सीया य अट्टमिया ८ ।। तत्तो अलंबुसा १ मिसकेती (सी) २ तह पुंडरिगिणी ३चेव । वारुणि ४ आसा ५ सव्वा ६ सिरी ७ हिरी ८ चेव उत्तरओ ।। बेंट्ठाई सुरभि जल-थलयं दिव्वकुसुमनीहारिं । पयरेंति समंतेण दसद्धवन्नं कुसुमवासं ।। भरहे सेज्जंसजिणो, एरवए जुत्तिसेणजिणचंदो | दस वि सवणजोएणं सिद्धिगया पुव्वसूरम्मि । । - सम्पादक कल्पित । एवमसीति जिनिंदा अट्ठमयट्ठाणनिट्टवियकम्मा । दससु वि खेत्तेसेए सिद्धिगया पुव्वसूरम्मि ।। -सम्पादक कल्पित । गुणभवणगहण ! सुयरयणभरिय ! दसंणविसुद्धरच्छागा ! | संघनगर ! भद्दं ते अक्खंडचरित्तपागारा ! ।। भदं सीलपडागूसितस्स तवनियमतुरगजुत्तस्स । संघरहस्स भगवतो सज्झायसुनंदिघोसस्स ।। संजम - तवतुंबारयस्स नमो सम्मत्तपारिअल्लस्स । अप्पsिचक्कस्स जतो होउ सता संघचक्कस्स ।। ८५१. कम्मजलविसोहिसमुब्भवस्स सुयरयणदीहनालस्स । पंचमहव्वयथिरकण्णियस्स गुणकेसरालस्स ।। : सावगजणमहुयरिपरिवुडस्स जिणसूरतेयबुद्धस्स । संघपउमस्स भदं समणगणसहस्सपत्तस्स ।। ५५ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ भोगंकरा भोगवती, सुभोगा भोगमालिणी। सुवच्छा वच्छमित्ता य, वारिसेणा बलाहगा।। स्थानांग, संपा० - मुनि मधुकर-अष्टम स्थान-९९/१ मेधंकरा मेधवती, सुमेघा मेघमालिणी। तोयधारा विचित्ता य, पुष्फमाला अणिंदिता।। -वही-१००/१ णंदुत्तरा च णंदा, आणंदा णंदिवद्धणा। विजया य वेजयंती, जयंती अपराजिया।। -वही-९५/२ इलादेवी सुरादेवी, पुढवी पउमावती। एगणासा णवमिया, सीता भद्दा य अट्ठमा।। -वही-९७/२। अलंबुसा मिस्सकेसी, पोंडरिगी य वारुणी । आसा सव्वगा चेव, सिरी हिरी चेव उत्तरतो।। -वही-९८२ वेंदृट्ठाइं सुरभिं जलथलयं दिव्वकुसुमणीहारिं। पइरंति समन्तेणं दसद्धवण्णं कुसुमवासं।।-आवश्यक नियुक्ति ५४६ । गुण-भवणगहण! सुय-रयणभरिय! दंसण-विसुद्धरत्थागा। संघनगर! भदं ते, अखण्ड-चारित्त-पागारा।। -नंदीसूत्र, मुनि मुधकर-४ भह सीलपडागूसियस्स, तव-नियम-तुरगजुत्तस्स। संघ-रहस्स भगवओ, सज्झाय-सुनंदिघोसस्स।। -वही-६ संजम - तव - तुंबारयस्स, नमो सम्मत्त - पारियल्लस्स। अप्पडिचक्कस्स जओ, होउ सया संघ-चक्कस्स।। -वही-५ कम्मरय - जलोह - विणिग्गयस्स, सुय - रयण - दीहनालस्स। पंचमहव्वय - थिरकन्नियस्स, गुण - केसरालस्स।। -वही-७ सावग - जण - महुअरि - परिवुडस्स, जिणसूरतेयबुद्धस्स। संघ - पउमस्स भई, समणगण - सहस्सपत्तस्स ।।-वही-८ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तित्थोगाली (तिर्थोद्गालिक) प्रकीर्णक की गाथा संख्या का निर्धारण : ५७ ९४६. सोलसवासा मणुया पणत्तुए णत्तुए य दच्छिंति । ऊणगछव्वरिसाओ तदा पयाहिंति महिलाओ ।। - सम्पादक कल्पित ९८६. तेण हरिया य रुक्खा तण-गुम्म- लया वणप्फतीओ य । अमियस्स किरणजोणी पंचत्तीसं अहोरत्ता ।। - सम्पादक कल्पित १०६०. वरवरिया घोसिज्जइ किमिच्छगं दिज्जए बहुविहीयं । सुरअसुर-देव-दाणव-नरिंदमहियाण निक्खमणे।। १०६१. एगा हिरन्नकोडी अट्ठेव अणूणागा सयसहस्सा । सूरोदयमाईअं दिज्जइ जा पायरासाओ ।। १०६२. तिन्नेव य कोडिसया अट्ठासीइं च हुंति कोडीओ। असिइं च सयसहस्सा एअं संवच्छरे दिण्णं ।। १११५. महापउमे १ य सुरदेवे २ सुपासे ३ य सयंपभे ४ । सव्वाणुभूति अरहा ५ देवगुत्तो ६ य होहिही ।। १११६. उदगे ७ पेढालपुत्ते ८ य पोट्टिले ९ सयगे १० त्ति य । मुणिसुव्वते य अरहा सव्वभावविहंजणे ११ ।। १११७. अममे १२ निक्कसाए १३ य निप्पुलाए १४ य निम्ममे १५। चित्तगुत्ते १६ समाही १७ य आगमेसाए होहिति ।। . १११८. संवरे १८ अणियट्टी १९ य विवागे २० विमले २१ त्ति य । देवोववायए अरहा २२ अणंत २३ विजए २४ ति य ।। १११९. एते वुत्ता चउव्वीसं भरहे वासम्मि केवली । आगमेसाए होहिंति धम्मतित्थस्स देसगा ।। । ११२१. सिद्धत्थे १ पुन्नघोसे २ य केवली सुयसागरे ३ । (?पुप्फकेऊ ४) य अरहा समाहिं पडिदिसंतु मे ।। ११२२. सुमंगले ५ अत्थसिद्धे ६ य नेव्वाणे ७ य महायसे ८ । धम्मज्झए ९ य अरहा समाहिं पडिदिसंतु मे ।। ११२३. सिरिचंदे १० दढकेत्ते (? कित्ती) ११ महाचंदे १२ य केवली । दीहपासे १३ य अरहा समाहिं पडिदिसंतु मे ।। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ५८ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ वरवरिया घोसिज्जइ किमिच्छगं दिज्जए बहुविहीयं । सुरअसुर-देव-दाणव-नरिंदमहियाणनिक्खमणे ।। -आवश्यक नियुक्ति २१९ एगा हिरनकोडी अट्टेव अणूणगा सयसहसा । सूरोदयमाईअं दिज्जई जा पायरासाओ ।। -आवश्यक नियुक्ति २९७ तिन्नेव य कोडिसया अट्ठासीइंच हुंति कोडीओ। असिइं च सयसहस्सा एअं संवच्छरे दिण्णं ।। -वही-२२० महापउमे सूरदेवे सूपासे य संयपभे। सव्वाणुभूई अरहा देवस्सुए य होक्खई।। उदए पेढालपुत्ते य पोट्टिले सत्तकित्ति य। मुणिसुव्वए य अरहा सव्वभावविऊ जिणे।। अममे निक्कसाए य निप्पुलाए य निम्ममे। चित्तउत्ते समाही य आगमिस्सेण होक्खइ।। संवरे अणियट्टी य विजए विमले ति य । देवोववाए अरहा अणंतविजए इ य ।। एए वुत्ता चउव्वीसं भरहे वासम्मि केवली। आगमिस्सेण होक्खंति धम्मतित्थस्स देसगा।। -समवायांग, संपा० - मुनि मधुकर, ६६७/७४-७८ सुमंगले य सिद्धत्थे णिव्वाणे य महाजसे। धम्मज्झए य अरहा आगमिस्साण होक्खई।। सिरिचंदे पुष्फकेऊ महाचंदे य केवली। सुयसागरे य अरहा आगमिस्साण होक्खई।। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तित्थोगाली (तिर्थोद्गालिक) प्रकीर्णक की गाथा संख्या का निर्धारण : ५९ ११२४. सुव्वए १४ य सुपासे १५ य अरहा य सुकोसले १६। अणंतपासी १७ य अरहा समाहिं पडिदिसंतु मे।। (? पुण्णघोसे १८ महाघोसे १९ सव्वाणंदे २० य केवली। सच्चसेणे २१ य अरहा समाहिं पडिदिसंतु में) ११२५. विमले २२ उत्तरे चेव अरहा य म (? हाब) ले २३ । देवाणंदे २४ य अरहा समाहिं पडिदिसंतु में।। ११४७. नंदी १ य नंदिमित्ते २ सुंदरबाहू ३ य तह महाबाहू ४। अइबल ५ महब्बले ६ या भद्द ७ दिविठू ८ तिविठू ९ य।। ११४८. कण्हा उ, जयंति (तs) जिए १-२ (भद्दे ३) सुप्पभ ४ सुदंसणे ५ चेव। आणंदे ६ नदंणे ७ पउमे नाम ८ संकरिसणे ९ चेव।। इस प्रकार अन्य ग्रन्थों से तथा कल्पना से रचित कुल ३० गाथाएँ शामिल किये जाने का उल्लेख प्राप्त होता है। इनको निकाल देने के बाद शेष गाथाओं की संख्या १२३३ न रहकर १२३१ ही होती है। इनकी गाथा संख्या के निर्धारण के लिए दूसरी दृष्टि से विचार करने पर समाधान प्रतीत होता है। तित्थोगाली प्रकीर्णक के गाथाओं की पुनरावृत्ति इसी ग्रन्थ में अधिक हुई है। इसके अलावा अन्य प्रकीर्णंकों में भी इसकी गाथाएं मिली हैं। तित्थोगाली प्रकीर्णक में इसकी २७ गाथाओं की पुनरावृत्ति हुई है। जिनमें से एक-८४८ वी गाथा नंदीसूत्र से भी समान है। इसका उल्लेख पहले आ चुका है। इस प्रकार पुनरावृत्त गाथाओं की संख्या २६ है। मूलाचार की एक तथा तिलोयपण्णत्ति की एक गाथा तित्थोगाली में प्राप्त होती है। अन्य पूर्ववर्ती प्रकीर्णकों से इसमें २७ गाथाएँ ली गई हैं ये हैं- देवेन्द्रस्तव से १६ मरणविभक्ति से ५ तंदुलवैचारिक से २, चंदावेज्झय से ३ तथा दीवसागरपण्णत्ति और महापच्चक्खाण से मिलाकर १। आदि मंगल और अंतिम मंगल में कुल दस गाथाएं हैं जिसे इसमें से हटा देने पर कुल ९५ गाथाएं कम हो जाती हैं । इसके बाद प्रस्तुत प्रकीर्णक में मूलरूप से कुल ११६६ गाथाएं रह जाती हैं। इन Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ सिद्धत्थे पुण्णघोसे य महाघोसे य केवली। सच्चसेणे य अरहा आगमिस्साण होक्खई ।। सूरसेणे य अरहा महासेणे य केवली। सव्वाणंदे य अरहा देवउत्ते होक्खई ।। सुपासे सुव्वए अरहा अरहे य सुकोसले। अरहा अणंतविजए आगमिस्साण होक्खई।। विमले उत्तरे अरहा अरहा य महाबले । देवाणंदे य अरहा आगमिस्साण होक्खई।। एए वुत्ता चउव्वीसं एरवयम्मि केवली। आगमिस्साण होक्खंति धम्मतित्थस्स देसगा।। __-समवायांग, संपा० मुनि मधुकर, ६७४/८९-९५ नंदे य नंदमित्ते दीहबाहू तहा महाबाहू। अइबले महाबले बलभद्दे य सत्तमे ।। दुविठू य तिवठूय आगमिस्साण वण्हिणो। जयंते विजये भद्दे सुप्पभे य सुदंसणे।। आणदे नंदणे पउमे संकरिसणे अ अपच्छिमे। - वही ६७२।८५-८६,V आगत गाथाओं का विवरण निम्न प्रकार है(क) पुनरावृत्त गाथाओं की संख्या ५५ + ११६३ - मणिगण १ दीवसिहा २ गाहा० । ५८ + ११६५ कोवीणे आभरण गाहा० ।। ५९ + ११६६ चित्तरसेसु य इट्ठा गाहा० ।। ६१ + ११६८ - दोगाउपमुव्विद्धा गाहा० ।। ६७ + ११५८ मूल-फल कंद० गाहा ।। ६८ + ११५९ संच्छंदवण विहारी ते० गाहा।। १३४ + १०३५ - नाणारयणविचित्ता ० गाहा ।। . २७५ + १०४८ - असितसिरतो सुनयणो ० गाहा।। ३७३ + ३७७ - चुलसीती १ बावत्तरि २ गाहा० ।। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तित्थोगाली (तिर्थोद्गालिक ) प्रकीर्णक की गाथा संख्या का निर्धारण एवमसीती जिणिदा० गाहा ।। ऐते खलु पडिसत्तू गाहा ० 11 किं तूरसि मरिडं गाहा ० । । आलोइयनिस्सल्ला गाहा ० 11 ५३५ + ५४९ ८११ + ११५१ ६५६ + ६८४ ६६४ + ६६७ + ६७० ६६६ + ६६९ ८८० + १०४४ ८८१ + १०४५ ८८३ + ११०५ ८८४ + ११०६ ९५७ + ९७२ ९५८ + ९७३ १०२६ + १०२९ १०२७ + १०३० १०५० + १०५२ ११६२ + ११६७ + ११७१ - - - - सामियसणकुमारा गाहा ० || रिद्वित्थिमियसमिद्धं गाहा० 11 गामा य नगरभूया गाहा ० ।। धमाधम्मविहन्नू गाहा ० ।। अप्पर य सविण्णाणो गाहा० ।। सेसं तु बीयमेत्तं गाहा० ।। रहयहमेत्तं तु जलं गाहा० ।। गय १ उसभ २, ० गाहा ।। एते चोद्दस सुमि ० गाहा ।। अहं तं अम्मा पितरो ० गाहा । । (ख) अन्य प्रकीर्णकों में से ली गई गाथाएँ तित्थोगाली गाथा १५३ नंदुत्तरा १ य नंदा २ आणंदा ३ ० गाहा ।। ९२४ - एव परिहायमाणे ० गाहा० ।। १९९३ - जड्डाणं चड्डाणं ० गाहा ।। १२०० - सामण्णमणुचरंतस्स ० गाहा ।। १२०१ - जं अज्जियं चरितं ० गाहा ।। १२०३ - जह - जहदोसोवरमो ० गाहा ।। जह-जह वड्डति कालो ० गाहा । । : ६१ कुल २६ गाथा - दीवसागरपण्णत्ति १२८। - तंदुलवैचारिक ७५। -तंदुलवैचारिक १६८। -चंदावेज्झय १४२। -चंदावेज्झय १४३। -मरणविभक्ति ६३२ । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर / १९९६ १२०४ - दुग्ग भवकंतारे ० गाहा ।। १२०५ - इणमोसुगतिगतिपहो ० गाहा । १२०६ - जाहे य पावियव्वं ० गाहा । । १२१७ भट्टेण चरित्ताओ • गाहा ।। १२२३ जं अन्नाणी कम्मं ० गाहा ।। १२२६ - असरीरा जीवधणा • गाहा ।। १२२८ - निम्मलदगरयवन्ना • गाहा ।। १२३० - पणयालीसं आयाम ० गाहा ।। १२३१ - एगा जोयणकोडी ० गाहा ।। १२३६ - कहिं पडिहया सिद्धा • गाहा ।। १२३७ - अलोच पडिहयासिद्धा • गाहा।। १२३९ - जं संठाणं तु इहं ० गाहा ।। १२४२ - चत्तारि च रमणीओ ० गाहा ।। १२४४ - जत्थ य एगो सिद्धो ० गाहा ।। १२४५ - फुसइ अणंते सिद्धे० गाहा ।। १२४६ - केवलनाणुवउत्ता • गाहा ।। १२४७ - न वि अत्थि माणुसाण० गाहा ।। १२४८ - सुरगणसुहं समत्तं • गाहा ।। १२४९ - सिद्धस्स सुहो रासी ० गाहा ।। १२५० - जहनाम कोई मेच्छो ० गाहा ।। १२५२ - जह सव्वकामगुणितं ० गाहा ।। प्रकीणेत्तर गाथाएँ तित्थोगाली गाथा ४४८ -सपडिक्कमणो धम्मो ० गाहा ।। मूलाचार १/६२८ -मरणविभक्ति ६३३ - मरणविभक्ति ६३०| - मरणविभक्ति ६३१। - चंदावेज्झय ६०० | -मरणविभक्ति १३५ । -देवेन्द्रस्तव २९४। -देवेन्द्रस्तव २७८। -देवेन्द्रस्तव २७९। - देवेन्द्रस्तव २८०। - देवेन्द्रस्तव २८५। -देवेन्द्रस्तव २८६। -देवेन्द्रस्तव २८७। -देवेन्द्रस्तव २९०। -देवेन्द्रस्तव २९३। -देवेन्द्रस्तव २९५। -देवेन्द्रस्तव २९६। -देवेन्द्रस्तव २९९। -देवेन्द्रस्तव २९८। - देवेन्द्रस्तव ३००। -देवेन्द्रस्तव ३०१। - देवेन्द्रस्तव ३०३। कुल २७ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तित्थोगाली (तिर्थोद्गालिक) प्रकीर्णक की गाथा संख्या का निर्धारण : ६३ ५७५ अहेव गया मोक्खं, सुहुमोबंभो० गाहा।। -तिलोयपण्णति । - १४१०। कुल - २ १ से ६ -आदि मंगल तथा १२५८ से १२६१ -अंतिम मंगल । इस प्रकार कुल ९५ गाथाएँ कम करने पर बाकी ११६६ गाथाएँ शेष रहती हैं। इस समस्या के समाधान के लिए गाथा संख्या को निर्देशित करने वाली गाथा का अर्थ दूसरे तरह से किये जाने पर उपरोक्त ११६६ संख्या पूरी हो जाती है। गाथा और इसका अर्थ इस प्रकार किया जा सकता हैगाथा : तेत्तीसं गाहाओ दोनि सता ऊ सहस्समेगं च । तित्थोगालीए संख्या एसा भणिया उ अंकेणं ।। १२६१।। तेत्तीसं गाहाओ दोनि अर्थात् तेंतीस गाथा का दोगुना = ६६ सता अर्थात् १०० →. सहस्समेंग अर्थात् १००० → इसके साथ एक तथ्य यह है कि जो गाथाएँ दूसरे ग्रन्थों से प्रक्षिप्त नहीं मानी गई हैं उसे ग्रन्थ में से कम नहीं किया जा सकता है। इस दृष्टि से विचार करने पर उपरोक्त गाथाओं में से केवल तित्थोगाली प्रकीर्णक में ही पुनरावृत्त गाथाएँ ही कम करने को बच जाती हैं। जिनकी संख्या २७ है। (इनमें ८४८ वी गाथा की पुनरावृत्ति १२५८वीं गाथा है, जो एक बढ़कर २७ होती है) इसके साथ अंतिम गाथा जो संख्या बताती है, मिलाकर २८ हो जाती है, जिसे १२६१ में से कम करने पर १२३३ गाथाएं शेष रह जाती हैं, इस तरह ग्रन्थ की अंतिम गाथा की पुष्टि भी हो जाती है। सन्दर्भ ग्रन्थ१. नन्दीसूत्र मुनि मधुकर, सूत्र - ७९, पृष्ठ-१६० २. पइण्णयसुत्ताइं भाग १ एवं २ संपा० - मुनि पुण्यविजय महावीर जैन विद्यालय बम्बई ३. समवायांगसूत्र, संपा० - मुनि मधुकर - समवाय - ८४ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४: श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१६६६ ४. नंदीसूत्र, मुनि मधुकर 10--.१, पृष्ठ १६२-१६३ ५. व्यवहारसूत्र भाष्य, उद्देशक १० गाथा ७०११ RATNA .. worie पार्श्वनाथ विद्यापीठ की मासिक संगोष्ठी (१२ अक्टूबर, १६६६) को अपना शोध-पत्र प्रस्तुत करते हुए डॉ० नपेन्द्र प्रसाद मोदी। संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे डॉ० सागरमल जैन मख्य अतिथि डॉ० राम सिंह, निदेशक, गांधी विद्या संस्थान राजघाट, वाराणसी एवं संयोजक डॉ० अशोक कुमार सिंह । (ऊपर क्रमशः दाहिने से बायें) एवं संगोष्ठी में उपस्थित शिक्षकगण एवं छात्र-छात्राएं (नीचे) - A R AAP www.jainelibrary. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण) पिप्पलगच्छ का इतिहास डॉ. शिवप्रसाद निर्ग्रन्थ धर्म के श्वेताम्बर आम्नाय के अन्तर्गत पूर्वमध्यकाल और मध्यकाल में विभिन्न गच्छों के रूप में अनेक भेद-प्रभेद उत्पत्र हुए। चन्द्रकुल (बाद में चन्द्रगच्छ) के आचार्य उद्योतनसूरि ने वि०सं० ९९४/ई० सन् ९३८ में अर्बुदगिरि की तलहटी में स्थित धर्माण (वरमाण) नामक सनिवेश में वटवृक्ष के नीचे अपने आठ शिष्यों को आचार्य पद प्रदान किया, जिनकी शिष्यसंतति वटवृक्ष के कारण वडगच्छीय कहलायी। इसी गच्छ में विक्रम सम्वत् की १२वीं शती के मध्य में आचार्य सर्वदेवसूरि, उनके शिष्य आचार्य शांतिसूरि और प्रशिष्य विजयसिंहसूरि हुए। पिप्पलगच्छ से सम्बद्ध उत्तरकालीन साक्ष्यों के अनुसार आचार्य शांतिसूरि ने पीपलवृक्ष के नीचे विजयसिंहसूरि आदि ८ शिष्यों को आचार्य पद दिया, इसप्रकार वडगच्छ की एक शाखा के रूप में पिप्पलगच्छ का उद्भव हुआ। अन्यान्य गच्छों की भाँति पिप्पलगच्छ में भी अवान्तर शाखाओं का जन्म हुआ। . विभिन्न साक्ष्यों से इस गच्छ की त्रिभवीयाशाखा और तालध्वजीयाशाखा का पता चलता है। पिप्पलगच्छ के इतिहास के अध्ययन के लिये साहित्यिक और अभिलेखीय दोनों प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध हैं। साहित्यिक साक्ष्यों के अन्तर्गत इस गच्छ के परवर्ती मुनिजनों के द्वारा रची गयी कुछ कृतियों की प्रशस्तियों में उल्लिखित गुरु-परम्परा के साथ-साथ इसी गच्छ के धर्मप्रभसूरि नामक मुनि के किसी शिष्य द्वारा रचित पिप्पलगच्छगुर्वावली तथा किसी अज्ञात कवि द्वारा अपभ्रंश भाषा में रचित पिप्पलगच्छगुर्वावली-गुरहमाल का उल्लेख किया जा सकता है। अभिलेखीय साक्ष्यों के अन्तर्गत इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित जिन प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों की चर्चा की जा सकती है। ऐसे लेख बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं। ये वि०सं० १२०८ से वि०सं० १७७८ तक के हैं। प्रस्तुत निबन्ध में उक्त साक्ष्यों के आधार पर इस गच्छ के इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। पिप्पलगच्छ का उल्लेख करने वाला सर्वप्रथम साहित्यिक साक्ष्य है विक्रम संवत् की पन्द्रहवीं शती के तृतीय चरण के आस-पास इस गच्छ के धर्मप्रभसूरि के किसी शिष्य द्वारा *. प्रवक्ता - पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ रचित पिप्पलगच्छगुरु-स्तुति' या पिप्पलगच्छगुर्वावली। संस्कृत भाषा में १८ श्लोकों में निबद्ध इस कृति में रचनाकार ने पिप्पलगच्छ तथा इसकी त्रिभवीया शाखा के अस्तित्व में आने एवं अपनी गुरु-परम्परा की लम्बी तालिका दी है, जो इसप्रकार है : सर्वदेवसूरि नेमिचन्द्रसूरि शांतिसूरि महेन्द्रसूर विजयसिंहसूरि देवचन्द्रसूर पदचन्दसून पूर्णचन्द्रसूर जयदेवसूर हेमप्रभसूर जिनेश्वरसूर देवभद्रसूरि धर्मघोषसूरि शीलभद्रसूरि परिपूर्णदेवसूरि विजयसेनसूरि धर्मदेवसूरि (त्रिभवीयाशाखा के प्रवर्तक) धर्मचन्द्रसूरि धर्मरत्नसूरि धर्मतिलकसूरि धर्मसिंहसूरि धर्मप्रभसूरि धर्मप्रभसूरिशिष्य -(नाम-अज्ञात) (पिप्पलगच्छगुरु-स्तुति के रचनाकार) पिप्पलगच्छीय सागरचन्द्रसूरि ने वि०सं० १४८४/ई० सन् १४२८ में सिंहासनद्वात्रिंशिका' की रचना की। कृति के अन्त में प्रशस्ति के अन्तर्गत उन्होंने स्वयं को जयतिलकसूरि का शिष्य बतलाया है : Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयतिलकसूरि सागरचन्द्रसूरि वस्तुपालतेजपालरास विद्याविलासपवाडो कलिकालरास जम्बूस्वामीनुंविवाहलु दर्शाणभद्ररास पिप्पलगच्ट्रीय हीराणंदसूरि की कई कृतियाँ मिलती हैं, जैसे रचनाकाल वि०सं० १४८४ । रचनाकाल वि० सं० १४८५ । रचनाकाल वि० सं० १४८६ । रचनाकाल वि० सं० १४९४ । रचनाकाल अज्ञात । स्थूलभद्रबारहमास रचनाकाल अज्ञात । अपनी कृतियों की प्रशस्तियों में उन्होंने अपने को पिप्पलगच्छीय वीरदेवसूरि का प्रशिष्य और वीरप्रभसूरि का शिष्य बतलाया है : —— गुणरत्नसूरि आनन्दमेरु पिप्पलगच्छ का इतिहास [वि० सं० १४८४ / ई० सन् १४२८ में सिंहासनद्वात्रिंशिका के रचनाकार ] वीरदेवसूरि I : ६७ इसी गच्छ के आनन्दमेरुसूरि ने वि०सं० १५१३ / ई० सन् १४५७ में कालकसूरिभास की रचना की । इसकी प्रशस्ति मेंउन्होंने खुद को गुणरत्नसूरि का शिष्य बतलाया है वीरप्रभसूरि I हीराणंदसूरि [ ग्रन्थकार ] [वि० सं० १५१३ / ई० सन् १४५७ में कालकसूरिभास के रचनाकार ] Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ कल्पसूत्रआख्यान के रचनाकार भी यही आनन्दमेरुसूरि माने जाते हैं। पिप्पलगच्छीय नरशेखरसूरि ने वि०सं० १५८४/ई० सन् १५२८ में पार्श्वनाथपत्नीपद्मावतीहरण की रचना की। इसकी प्रशस्ति में उन्होंने खुद को शांति (प्रभ) सूरि का शिष्य बतलाया है : शान्तिप्रभसूरि नरशेखरसूरि [वि० सं० १५८४/ई० सन् १५२८ मों पार्श्वनाथपत्नीपद्मावतीहरण के रचनाकार] २१ श्लोकों की अज्ञातकृतक पिप्पलगच्छगुर्वावली' नामक एक रचना भी उपलब्ध हुई है। श्री भंवरलाल नाहटा ने इसे प्रकाशित किया है। इसमें उल्लिखित गुरु-परम्परा इसप्रकार शांतिसूरि विजयसिंहसूरि देवभद्रसूरि धर्मघोषसूरि शीलभद्रसूरि परिपूर्णदेवसूरि विजयसेनसूरि धर्मदेवसूरि [त्रिभवीयाशाखा के प्रवर्तक] धर्मचन्द्रसूरि धर्मतिलकसूरि धर्मसिंहसूरि धर्मप्रभसूरि Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिप्पलगच्छ का इतिहास - धर्मशेखरसूरि | धर्मसागरसूरि 1 धर्मवल्लभसूरि यही इस गच्छ से सम्बद्ध प्रमुख साहित्यिक साक्ष्य हैं। धर्मप्रभसूरिशिष्यविरचित पिप्पलगच्छगुरु- स्तुति और पिप्पलगच्छीय उपरोक्त गुर्वावली में धर्मप्रभसूर तक पट्टधर आचार्यों की नामावली और उनका क्रम समान रूप से मिल जाता है। जैसा कि इन दोनों गुर्वावलियों के विवरण से स्पष्ट होता है ये पिप्पलगच्छ की त्रिभवीयाशाखा से सम्बद्ध हैं। अभिलेखीय साक्ष्य यद्यपि पिप्पलगच्छ से सम्बद्ध उपलब्ध सर्वप्रथम अभिलेखीय साक्ष्य वि०सं० १२९१/ई० सन् १२३५ का है, किन्तु वि०सं० १४६५ / ई० सन् १४०९ के एक प्रतिमालेख से ज्ञात होता है कि इस गच्छ के (पुरातन) आचार्य विजयसिंहसूरि ने वि० सं० १२०८ में डीडिला ग्राम में महावीर स्वामी की प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी जिसे वि० सं० १४६५ में वीरप्रभसूरि ने पुनर्स्थापित की। " वर्तमान में यह प्रतिभा कोरटा स्थित एक जिनालय में संरक्षित है। यदि उक्त प्रतिमालेख के विवरण को सत्य मानें तो पिप्पलगच्छ से सम्बद्ध प्राचीनतम साक्ष्य वि०सं० १२०८ का माना जा सकता है। इस गच्छ के कुल १७२ लेख मिले हैं जो वि० सं० १७७८ तक के हैं। इनमें १६वीं शती के लेख सर्वाधिक हैं जब कि १७वीं शती का केवल एक लेख मिला है। इनका विस्तृत विवरण इसप्रकार है:पिप्पलगच्छीय मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमाओं पर उत्कण लेखों का विवरण -- ६९ क्रमश:. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक सम्वत् तिथि/मिति आचार्य या मुनि लेख का स्वरूप प्रतिष्ठास्थान का नाम प्रतिमालेख/शिलालेख सन्दर्भ ग्रन्थ ७० : १२०८ -- विजयसिंहसूरि महावीर की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख जैन मंदिर, कोटरा, सिरोही २. श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ १२९१ माघ सुदि ५ गुरुवार सर्वदेवसूरि युगलजिनप्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख वीर चैत्य, थराद ३. १३७१ तिथिविहीन विबुधप्रभसूरि वासुपूज्य की की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख अस्पष्ट आदिनाथ जिनालय, मांडवीपोल, रखंभात चिन्तामणिपार्श्वनाथ जिनालय, बीकानेर पूरनचन्द्र नाहर, सम्पादकजैनलेखसंग्रह, भाग १, लेखाङ्क ९६६ दौलतसिंह लोढा, सम्पादकश्रीप्रतिमालेखसंग्रह , लेखाङ्क ३४ मुनि बुद्धिसागरसूरि, संपा. जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग-२, लेखाङ्क ६३३ अगरचन्द्र नाहटा, सम्पा०बीकानेरजैनलेखसंग्रह लेखाङ्क २८५ वही, लेखाङ्क २९७ ४. १३८०(?) ज्येष्ठसुदि१० रविवार धर्मरत्नसूरि ५. १३८३ आदिनाथ की माघ वादि ११ बुधवार विबुधप्रभसूरि धातु की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ १३८६ वैशाख वदि १२ धर्मदेवसूरि -- चिन्तामणिपार्श्वनाथ जिनालय, बीकानेर नाहटा, पूर्वोक्त-लेखाङ्क ३११ ७. १३८९ ज्येष्ठ वदि २ सोमवार पद्मचन्द्रसूरि वही, लेखाङ्क ३३२ पार्श्वनाथ की धातु की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख महावीर की धातुप्रतिमा पर उत्कीर्ण १३९० वही, लेखाङ्क ३४० लेख १३९६ वैशाख वदि ११ गुणाकरसूरि शनिवार के शिष्य रत्नप्रभसूरि -- जिनदत्तसूरि के शिष्य आमदेवसूरि ज्येष्ठ वदि ३ विबुधप्रभसूरि मुनि बुद्धिसागरसूरि, पूर्वोक्त, भाग-२, लेखाङ्क ४७ १०. १३...१ वही, भाग-२, लेखाङ्क ८१८ । तीर्थङ्कर की धातु महावीर जिनालय, प्रतिमा पर उत्कीर्ण बडोदरा लेख शांतिनाथ की चिन्तामणिपार्श्वनाथ धातुप्रतिमा पर देरासर, चौकसीपोल, उत्कीर्ण लेख रवंभात पार्श्वनाथ की धातु चन्द्रप्रभ जिनालय, की प्रतिमा पर जैसलमेर उत्कीर्ण लेख पिप्पलगच्छ का इतिहास गुरुवार १४०४ वैशाख सुदि १२ विबुधप्रभसूरि नाहर, पूर्वोक्त-भाग ३, लेखाङ्क २२६४ : ७१। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २ ७२ : १४०६ फाल्गुन सुदि ११ विबुधप्रभसूरि गुरुवार मुनि विशालविजय,संपा०राधनपुरप्रतिमालेखसंग्रह, लेखाङ्क ५७ १३. १४१४ वैशाख...... वीरदेवसूरि विजयधर्मसूरि, सम्पादकप्राचीनलेखसंग्रह, लेखाङ्क ७३ लोढा, पूर्वोक्त,लेखाङ्क १३ । वासुपूज्य की चन्द्रप्रभ जिनालय, पंचतीर्थी तंबोलीशेरी, राधनपुर प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख आदिनाथ की धातु जैन देरासर, लींच की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख वासुपूज्य की धातु वासुपूज्यजिनालय, प्रतिमा पर उत्कीर्ण थराद । लेख पार्श्वनाथ की धातु शांतिनाथजिनालय, की प्रतिमा पर शांतिनाथ पोल, उत्कीर्ण लेख थराद आदिनाथ की गूढमण्डप, पित्तलहर, प्रतिमा पर उत्कीर्ण आबू लेख श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ १४१७ वैशाख सुदि २ उदयानन्दसूरि रविवार के पट्टधर गुणदेवसूरि ज्येष्ठ सुदि १० पद्मप्रभसूरि शुक्रवार १५. १४१७ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त-भाग-१, लेखाङ्क १३३१ १६. १४२० वैशाख सुदि १० वीरदेवसूरि शुक्रवार मुनि जयन्तविजय, संपा० - अर्बुदप्राचीनजैनलेखसंदोह (आबू, भाग-२) लेखाङ्क ४२४ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ १४२० वैशाख सुदि १० गुणसमुद्रसूरि शुक्रवार ४४३ १८. १४२२ मुनिप्रभसूरि ज्येष्ठ सुदि २ शुक्रवार १९. १४२४ वैशाख वदि ५ धर्मतिलकसूरि शनिवार आदिनाथ की चिन्तामणि पार्श्वनाथ नाहटा, पूर्वोक्त-लेखाङ्क प्रतिमा पर जिनालय, बीकानेर उत्कीर्ण लेख विमलनाथ की विमलनाथ चैत्य, लोढा, पूर्वोक्त-लेखाङ्क प्रतिमा पर देसाई शेरी, थराद २४५ उत्कीर्ण लेख आदिनाथ की चिन्तामणिपार्श्वनाथ मुनि विशालविजय, धातु की प्रतिमा जिनालय, चिन्तामणिशेरी पूर्वोक्त, लेखाङ्क ६६ पर उत्कीर्ण लेख राधनपुर | शांतिनाथ की चिन्तामणिपार्श्वनाथ नाहटा, पूर्वोक्त-लेखाङ्क धातु की पंचतीर्थी जिनालय, बीकानेर ४८१ प्रतिमा का लेख आदिनाथ की वीरचैत्यार्तगत लोढा, पूर्वोक्त - लेखाङ्क प्रतिमा पर उत्कीर्ण आदीश्वरचैत्य, लेख थराद शांतिनाथ की धातु नेमिनाथ जिनालय, ___मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्तकी प्रतिमा पर ___मेहतापोल, बड़ोदरा भाग - २, लेखाङ्क १७५ उत्कीर्ण लेख २०. १४२६ माघ सुदि.... पिप्पलगच्छ का इतिहास २१. १४३० रत्नप्रभसूरि के शिष्य गुणसमुद्रसूरि धर्मदेवसूरि के संतानीय प्रीतिसूरि राजशेखरसूरि माघ वदि ८ सोमवार १०५ २२. १४३१ ज्येष्ठ सुदि ८ शुक्रवार : ७३ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. २४. २५. २६. २७. २ १४३४ १४३६ १४३७ १४३७ १४४० ३ वैशाख वदि २ बुधवार वैशाख सुदि ६ रविवार वैशाख वदि ११ विजयप्रभसूरि मंगलवार के पट्टधर उदयानंदसूर धर्मतिलकसूरि वैशाख सुदि ११ सोमवार ४ पौष सुदि १२ बुधवार मुनिप्रभसूरि जय (धर्म) तिलकसूरि उदयानन्दसूरि शांतिनाथ की धातु की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख पार्श्वनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख वासुपूज्य की धातु की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख आदिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख शांतिनाथ की धातु प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख ६ वीर चैतन्यार्न्तगत आदीश्वरचैत्य, थराद " पार्श्वनाथ जिनालय, माणेक चौक, खंभात वीरचैत्यार्न्तगत आदीश्वरचैत्य, थराद जैन देरासर, पाटडी ७ लोढा, पूर्वोक्त-लेखाङ्क १०२ वहीं, लेखाङ्क ११२ बुद्धिसागरसूरि, पूर्वोक्तभाग- २, लेखाङ्क ९३१ लोढ़ा, पूर्वोक्त लेखाङ्क २०२ विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त लेखाङ्क ८५ ७४ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर / १९९६ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ । १४४२ २९. १४४७ ३०. १४५४ वैशाख वदि १० सागरचन्द्रसूरि आदिनाथ की वीरचैत्यार्तगत लोढा, पूर्वोक्त - लेखाङ्क रविवार धातु की प्रतिमा आदीश्वरचैत्य, १६१ पर उत्कीर्ण लेख थराद । फाल्गुन सुदि ९ जय.......सूरि " गौड़ी पार्श्वनाथ मुनि विशालविजय,पूर्वोक्त सोमवार जिनालय, गौडीजी लेखाङ्क ८१ खड़की राधनपुर वैशाख वदि ११ गुप्त (गुण) अजितनाथ की धर्मनाथदेरासर, । मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त रविवार समुद्रसूरि के धातु की पंचतीर्थी डभोई भाग-१, लेखाङ्क ५३ पट्टधर शांतिसूरि प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख माघ सुदि १३ राजशेखरसूरि पार्श्वनाथ की धातु चिन्तामणि पार्श्वनाथ- नाहटा, पूर्वोक्त-लेखाङ्क शनिवार की प्रतिमा का लेख जिनालय, बीकानेर ५७४ ज्येष्ठ सुदि १० वीरप्रभसूरि पद्मप्रभ की पञ्चतीर्थी शांतिनाथ जिनालय, नाहर, पूर्वोक्त - भाग-२, प्रतिमा का लेख फैजाबाद लेखाङ्क १६७५ शांतिनाथ की धातु- चिन्तामणिपार्श्वनाथ ___नाहटा, पूर्वोक्त - लेखाङ्क प्रतिमा पर उत्कीर्ण जिनालय, बीकानेर लेख ३१. १४५६ पिप्पलगच्छ का इतिहास ३२. १४६१ शुक्रवार ३३. १४६१ .. ५९८ ७५ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. ३५. ३७. ३८. ३९. २ ४०. १४६१ ३६. १४६४ पौष वदि ११ शुक्रवार माघ सुदि ६ रविवार १४६१ १४६९ १४६७ १४७६ ३ ज्येष्ठ सुदि १० शुक्रवार १४७८ "3 चैत्र वदि १ शनिवार ४ उदयचन्द्रसूरि सागरचन्द्रसूरि वीरप्रभसूरि मुनिचन्द्रसूरि के पट्टधर सोमचन्द्रसूरि वैशाख सुदि १३ कमलचन्द्रसूरि सोमवार के पट्टधर प्रभानन्दसूरि पार्श्वनाथ की धातु की प्रतिमा का लेख वासुपूज्य की धातु की प्रतिमा का लेख महावीर स्वामी की धातु की प्रतिमा का लेख शांतिनाथ की धातुप्रतिमा का लेख पार्श्वनाथ की धातुप्रतिमा का लेख शान्तिनाथदेरासर, अहमदाबाद शान्तिनाथदेरासर, कनासानो पाडो, पाटण चिन्तामणिपार्श्वनाथ जिनालय, बीकानेर "" शांतिनाथ जिनालय, लिंबडीपाड़ा, पाटण जैन देरासर, लींच शंखेश्वरपार्श्वनाथ देरासर, वीरमगाम ७ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त - भाग १, लेखाङ्क ११४४ वही, भाग- १, लेखाङ्क ३६६ नाहटा, पूर्वोक्त - लेखाङ्क ६११ वही, लेखाङ्क ६४३ मुनिबुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग - १, लेखाङ्क २६६ विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्तलेखाङ्क ११६ मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्तभाग - १, लेखाङ्क १५०७ ७६ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/ १९९६ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७८ -- -- शत्रु ४२. १४८२ वैशाख वदि ४ गुरुवार सागरचन्द्रसूरि त्रुटित परिकर का जिनदत्तसूरि दादाबाडी, मुनि कान्तिसागर, सम्पा०का लेख पालिताना शत्रुञ्जयवैभव, लेखाङ्क ६३ संभवनाथ की वीरचैत्यार्तगत लोढ़ा, पूर्वोक्त - लेखाङ्क प्रतिमा पर उत्कीर्ण आदीश्वरचैत्य, थराद १६४ लेख धर्मनाथ की धातु- चिन्तामणिपार्श्वनाथ नाहटा, पूर्वोक्त - लेखाङ्क प्रतिमा का उत्कीर्ण जिनालय, बीकानेर लेख संभवनाथ की धातु- चन्द्रप्रभ जिनालय, नाहर, पूर्वोक्त- भाग-३ प्रतिमा पर उत्कीर्ण जैसलमेर लेखाङ्क २२९७ ४३. १४८२ तिथिविहीन वीरप्रभसूरि ७२१ १४८४ वैशाख वदि ११ धर्मशेखरसूरि रविवार लेख ४५. पिप्पलगच्छ का इतिहास धर्मसागरसूरि १४८४ कुन्थुनाथ की प्रतिमा वीरचैत्यान्तर्गत लोढा, पूर्वोक्त - लेखाङ्क पर उत्कीर्ण लेख आदीश्वर चैत्य, थराद १८६ आदिनाथ की धातु- शांतिनाथ देरासर, मुनि बुद्धिसागर - पूर्वोक्त, प्रतिमा पर उत्कीर्ण कनासानो पाडो, पाटण भाग-१, लेखाङ्क ३६४। ४६. १४८४ वैशाख सुदि ८ शुक्रवार सोमचन्द्रसूरि लेख : ७७ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ १४८९ ३ वैशाख सुदि १ सोमवार ७८ : ४७. लोढ़ा, पूर्वोक्त - लेखाङ्क १९८ ४८. १४८९ वैशाख सुदि ३ बुधवार मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्तभाग १, लेखाङ्क १३१० १४८९ श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ ४ ५ सोमचन्द्रसूरि शांतिनाथ की वीरचैत्यार्तगत प्रतिमा पर उत्कीर्ण आदीश्वरचैत्य, थराद लेख शांतिसूरि के धर्मनाथ की धातु शांतिनाथ जिनालय, पट्टधर मुनिशेखर- की चौबीसी प्रतिमा शांतिनाथ पोल, सूरि पर उत्कीर्ण लेख अहमदाबाद पद्मचन्द्रसूरि पार्श्वनाथ की धातु चिन्तामणि पार्श्वनाथ की प्रतिमा का लेख जिनालय, बीकानेर ललितचन्द्रसूरि संभवनाथ की धातु राजसी सेठ का की प्रतिमा का लेख शांतिनाथ देरासर, जामनगर सोमचन्द्रसूरि के वासुपूज्य की पंचायती जैन मन्दिर पट्टधर उदयदेवसूरि प्रतिमा का लेख मिर्जापुर संभवनाथ की धातु चिन्तामणि पार्श्वनाथ -प्रतिमा पर उत्कीर्ण देरासर, खंभात नाहटा, पूर्वोक्त - लेखाङ्क ज्येष्ठ वदि.... सोमवार फाल्गुन वदि २ सोमवार ७४१ विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त - लेखाङ्क १५४ ५१. १४९१ " नाहर, पूर्वोक्त, भाग - १, लेखाङ्क ४३० बुद्धिसागर,पूर्वोक्त-भाग-२, लेखाङ्क ५३६ ५२. १४९५ माघ वदि ८ शनिवार लेख Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ १४९६ ज्येष्ठ सुदि ५ शुक्रवार वीरप्रभसूरि ७९० ५४. १४९६ फाल्गुन वदि ३ प्रीतिरत्नसूरि रविवार वैशाख सुदि १० धर्मशेखरसूरि बुधवार ५५. १४....? ५६. १४९९ माघवदि ९ वीरप्रभसूरि आदिनाथ की चिन्तामणिपार्श्वनाथ ___नाहटा, पूर्वोक्त - लेखाङ्क धात्-प्रतिमा पर जिनालय, बीकानेर उत्कीर्ण लेख कुन्थुनाथ की वीरचैत्यार्तगत लोढ़ा, पूर्वोक्त - लेखाङ्क प्रतिमा का लेख आदीश्वर चैत्य, थराद १८५ संभवनाथ की नवपल्लव पार्श्वनाथ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त-भाग-२, धातु-प्रतिमा का जिनालय, बोलपीपलो, लेखाङ्क १०९५ लेख खंभात पद्मप्रभ की धातु- चिन्तामणिपार्श्वनाथ ___नाहटा, पूर्वोक्त - लेखाङ्क प्रतिमा का लेख जिनालय, बीकानेर ८०८ महावीर की धातु वही, लेखाङ्क ८५४ प्रतिमा का लेख धर्मनाथ की धातु आदिनाथ जिनालय, आबू,भाग-५,लेखाङ्क५३४ की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख तीर्थंकर की धातु- जैन मंदिर, वणा विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त - प्रतिमा का लेख लेखाङ्क १९१ गुरुवार ५७. १५०१ फाल्गुन वदि ७ बुधवार पिप्पलगच्छ का इतिहास ५८. १५०३ ज्येष्ठ सुदि ११ वीरप्रभसूरि एवं हीरसूरि वासा : मार्गशीर्ष सुदि ८ धर्मशेखरसूरि शनिवार ७९ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ ८० : १५०३ माघ वदि ५ सोमचन्द्रसूरि के पट्टधर उदयदेव- सूरि ६१. १५०३ माघ सुदि....? विजयदेवसूरि ६२. श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ १५०४ उदयदेवसूरि सुविधिनाथ की पार्श्वनाथ देरासर, नाहटा, पूर्वोक्त - लेखाङ्क चौबीसी प्रतिमा भीनासर, बीकानेर २१९२ ।। का लेख आदिनाथ की धातु शांतिनाथजिनालय, मुनि विशालविजय,पूर्वोक्त, की पंचतीर्थी प्रतिमा खजूरीनी शेरी, लेखाङ्क १३९ का लेख राधनपुर वासुपूज्य की धातु- जैन मंदिर, ऊंझा बुद्धिसागर,पूर्वोक्त-भाग-१, प्रतिमा का लेख लेखांक १८७ आदिनाथ की धातु संभवनाथ देरासर, वही, भाग-१, लेखाङ्क की पंचतीर्थी प्रतिमा झवेरीवाड़, अहमदाबाद ८०८ का लेख . संभवनाथ की धातु चिन्तामणिपार्श्वनाथ ___मुनि विशालविजय,पूर्वोक्त, की पंचतीर्थी प्रतिमा देरासर, चिन्तामणि- लेखाङ्क १४५ का लेख खड़की, राधनपुर आदिनाथ की धातु- आदिनाथजिनालय, विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त, प्रतिमा का लेख जामनगर लेखाङ्क २१८ ज्येष्ठ सुदि ९ रविवार वैशाख सुदि २ शुक्रवार ६३. १५०५ धर्मशेखरसूरि ६४. १५०५ उदयदेवसूरि पौष सुदि १५ गुरुवार १५०६ माघ सुदि ५ शनिवार विजयदेवसूरि Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ur लोढ़ा, पूर्वोक्त-लेखाङ्क ७७ १५०६ माघ सुदि १० शुक्रवार १५०६ " ६७. वही, लेखाङ्क १५६ ६८. १५०७ वैशाख वदि ४ सोमवार विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्तलेखाङ्क २३१ ६९. १५०८ चैत्र सुदि ५ शुक्रवार चन्द्रप्रभसूरि शीतलनाथ की वीरचैत्यान्तर्गत प्रतिमा का लेख आदीश्वरचैत्य, थराद धर्मशेखरसूरि के संभवनाथ की पट्टधर विजयदेव- प्रतिमा का लेख सूरि गुणरत्नसूरि वासुपूज्य की जैन मंदिर, प्रांतिज धातु-प्रतिमा का लेख सागरचन्द्रसूरि शीतलनाथ की वीरचैत्यान्तर्गत के पट्टधर चौबीसी प्रतिमा आदीश्वरचैत्य, शुभचन्द्रसूरि का लेख थराद उदयदेवसूरि संभवनाथ की शांतिनाथ देरासर, धातु की चौबीसी मांडल प्रतिमा का लेख गुणरत्नसूरि संभवनाथ की वीर जिनालय, धातु की चौबीसी गीपटी, खंभात प्रतिमा का लेख लोढ़ा, पूर्वोक्त - लेखाङ्क ७४ ७०. १५०९ ज्येष्ठ वदि ९ शुक्रवार विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त - लेखाङ्क २५५ पिप्पलगच्छ का इतिहास ७१. १५०९ ज्येष्ठ सुदि ५ रविवार मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त - भाग २, लेखांक ७०० : ८१ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____ २ ३ १५०९ माघ सुदि २ ... गुरुवार ८२ : ७२. ४ सोमचन्द्रसूरि के पट्टधर उदयदेवसूरि धर्मनाथ की धातु-प्रतिमा का पद्मप्रभजिनालय, दलालनो टेकड़ा, वही, भाग २, लेखाङ्क ४३५ लेख खेड़ा ७३. १५०९ माघ सुदि १० शनिवार वासुपूज्य जिनालय, थराद लोढ़ा,पूर्वोक्त-लेखाङ्क-२२ ७४. श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ १५१० कार्तिक वदि ४ रविवार नाहटा, पूर्वोक्त - लेखाङ्क ९३९ जिनालय, बीकानेर शीतलनाथ की धातु की चौबीसी प्रतिमा का लेख धर्मनाथ की धातु-प्रतिमा का लेख आदिनाथ की धातु-प्रतिमा का लेख नमिनाथ की प्रतिमा का लेख गुणदेवसूरि के पट्टधर चन्द्रप्रभसूरि गुणरत्नसूरि. फाल्गुन वदि ३ शुक्रवार लोढण पार्श्वनाथदेरासर, डभोई मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग १, लेखांक ३७ ७६. १५११ ज्येष्ठ वदि ९ रविवार उदयदेवसूरि वीरचैत्यार्तगत आदीश्वरचैत्य, थराद लोढ़ा,पूर्वोक्त-लेखाङ्क ११८ क्रमशः श्रमण के अगले अङ्क में - Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ŚRAMANA Thirtd Monthly Research Jornal of Parávanátha Vidväpitha Volume 10-12] [October-December, 1996 General Editor Prof. Sagarmal Jain Editors Dr. Ashok Kumar Singh Dr. Shriprakash Pandey For Publishing Articles, News, Advertisement and Membership, Contact General Editor Śarmaņa Pārsvanātha Vidyāpitha I.T.I. Road. Karaundi P.O. : B.H.U. Varanasi - 221 005 Phone : 316521 Fax : 0542 - 316521 Annual Subscription For Instituitions : Rs. 60.00 For Individual : Rs. 50.00 Single Issue : Rs. 15.00 Life Membership For Institutions : 1000.00 For Individual : 500.00 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ŚRAMAŅA English Section Articles of this Volume Pages 1. 83-100 2. SPIRITUAL PRACTICES OF LORD MAHĀVĪRA Yvacharya Dr. Shiv Muni RELEVANCE OF NON-VIOLENCE IN MODERN LIFE Dulichand Jain 101-109 3. BOOK REVIEW 110-111 Dr. S.P. Pandey ४. 4. पुस्तक समीक्षा # NCE ११२-११४ ११५-१२० Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ STATUT SPIRITUAL PRACTICES OF LORD MAHĀVĪRA Yvacharya Dr. Shiv Muni Our experiences in life are limited to material accomplishments alone and we may be compared to a frog in a well, that has not visited to the vast and unlimited sea and thinks that the well is the world. Our existence too is limited as we are unaware of aim of our life and the limitations that we have imposed on ourselves due to the clouds of ignorance that are hanging over us. Even if we were alert or informed about the same, it would be futile, for we are helpless and defenseless. To break the fetters of ignorance and limitations, one needs proper guidence it was important that someone from the beyond called upon us and guided us. Only a call from the unknown could truly free us from the limitations and clear the clouds of ignorance. The matchless, excellent and perfect life of Lord Mahāvīra inspires and leadsus to the way of perfection. It comes in hand, at this stage as that 'call from the beyond'. It doesn't matter if we are unable to strike at metaphors while pronouncing the excellence of Lord Mahāvīra, however, we need to understand the same for our betterment. Such an understanding inspires us to give up our worldly inclinations for a more fulfilled and developed personality whose source is within us. Innumerable mysteries of existence are unfolded in the divine life of Lord Mahāvīra, when one has a practical and experimental encounter with the accomplished life of Lord Mahāvīra. So friends! let us have a glimpse of the spiritual life of that great way-farer who become Mahāvīra from Vardhamana and who is worshipped by the Lord of Lords. Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ There are two kinds of people, namely Anusrotagāmi and Pratisrotagāmi. Anusrotagāmi are those who flow with the current and Pratisrotagāmi are those who either change the existing current and flow with it or flow against the current and achieve landmarks in life. The question that arises next is what is this current in question? there is a current of water, of tradition and also of sense pleasures. Whether a person flows in the direction of the current or against it, the focus of his consciousness is this current, for example, when we are friendly or hostile to a person, that person becomes the focus of our mind. The third option is that of Upekšā i.e. indifference, where one is neither friendly nor hostile to a person but being indiffernt he witnesses only unmoved by any kind of passion. Such a person understands his true self and brings it into manifestation. The society benefits from his search and manifestation of the self just as a ray of light pierces the darkness and spreads light everywhere. He neither accepts nor rejects the norms of society but an insight into truth and his power of discrimination forms the foundation of his life abiding which he conducts himself. And when his path is in accordance with the social traditions and customs, people call him Anuśrotagāmi and if it is against the trend, people call him Pratisrotagāmi. But the fact is that he is neither the former nor the latter but is an Antargāmi i.e. one who follows his own self. One such personality was that of Śramaņa Mahāvīra. His life was a proclamation of revolution, a divine song of liberation, a fabricated Sūtra of Ahiṁsā and a vast laboratory of truth. His life was an experiment with truth and he knew and lived life in its totality. The foundation of all his spiritual practices was meditation, accompanied with Kāyotsarga' i.e. firm body postures. These embellished his personality, cleansed his self and enabled him to reach the great heights of renunciation. Penances like fasting and other yogic postures inspired and complimented his spiritual practices. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SPIRITUAL PRACTICES OF LORD MAHĀVĪRA VA His practices were sometimes supported by external objects and sometimes not. After offering his humble salutations to the Siddhas, Sramaņa Mahāvīra moved to Kurmagrama on foot and observed himself in meditation as Ācārya Hemachandra remarks : नासाग्रन्यस्तनयनः प्रलम्बित भुजद्वयः । प्रभुः प्रतिमया तत्र तस्थौ स्थाणुरिव स्थिरः ।। - Frofeo 20/3/89 i.e. He fixed his concentration on the tip of his nose, his hands were stretched and his body was as firm as a rock. His eyes were semiclosed i.e. half-opened and half closed. Generally our eyes are either closed or they are opened. But this description of semi closed eyes is a different kind of an experience. Eyes remain opened when we are awake and when they are closed they symbolize slumber. When a person closes his eyes the tendons of the eye become inert and then the person falls asleep. And when the person opens his eyes the tendons become active and this state is an awakened state. Very often we come across people who fall asleep while reading a book and this is because the tendons of the eye are subject to much strain and so the person falls asleep. But meditation is a third state which is different from the states of sleep and wakefulness. In such a state of meditation, a person is conscious as in the state of wakefulness and relaxed as he is during sleep. Hence there is a natural co-ordination of consciousness of awakened state and relaxation of slumber in meditation and this co-ordination is easily brought out when one concentrated on the tip of the nose. It is assumed that owing to the above fact, Lord Mahāvīra practiced this kind of concentration. His body was totally stable with his hands stretched down, feet closed and his face a little bent in the front. Attracted to this image of Lord Mahāvīra, Ācārya Hemacandra remarked, "O Lord! Your image engrossed in meditation, lotus like body and eyes fixed on the tip of the nose holds the secret of spiritual practices, which is worth practicing by one and all". Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ The pre-requisite for a peaceful mind is a relaxed body. While meditating the body should be firm as a rock and all the organs like the back, the chest, the arms and so on should be completely relaxed. To control the mind and to absorb it in the self, the aspirant first brings his body to a steady position and this is possible when he is totally detached. In the presence of attachments for the body etc., it is not possible for the mind to become stable and absorbed in the self. Hence to remove all considerations for the body it is important to make it steady and clear all harmless conditions. Only with this aim in view the body should be totally relaxed in the first place as done by Lord Mahāvīra. Ācārya Hemacandra in his Yogaśāstra says that a person should accept that posture only for meditation in which he can remain steady and relaxed for a long time. Another reason to fix one's concentration on the tip of the nose is to watch the breath that one exhales and inhales and develop the ability of being a witness. In this way one can control one's mind and conquer the passions. The same sentiment is echoed in the Sramaņasuttas, "The aspirant should stop all the activities of the mind, body and speech and fix his eyes on the tip of the nose and breathe slowly. Further, it is said "अदु पोरिसिं तिरियंभित्तिं चक्खुमासज्ज अंतसो झाति ।। 36 gerent afgert a " CAT'' age all" 31ERIT, 8/814 i.e. Lord Mahāvīra used to be absorbed in the self and used to fix his eyes on the wall because of which the children got scared and used to throw stones at him. When one fixes his concentration on a particular object or on a particular point, his thought activity is controlled and gradually the self gets absorbed in it. Looking at a person in bed, you can tell whether he is fast asleep or in a dreaming state. If the eye balls Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SPIRITUAL PRACTICES OF LORD MAHAVIRA : CO behind the eyelids are rotating, the person is either dreaming or pondering over some matter. On the contrary if his eyes are stable and calm, he is said to be in deep sleep. Eyes will be unstable when a person is pondering over something. Hence by fixing our concentration on a particular spot, we can actually control our mind and develop our power of concentration. Lord Mahāvīra experimented with this kind of practice, and his personality emitted a powerful aura which scared the children to run away. Such a practice was observed by the followers of Buddha too. It is stated in the Ācārārga commentary that mentions that Lord Mahāvīra fasted for three days in Polasa Caityā situated in Pedhāla village. He took to the Käyotsarga image, his body slightly bent, his eyes fixed on a particular object, body completely still, his senses well under control himself engrossed in meditation. He took to the 'Mahāpratimā' of one night in this image. Further the author of Avasyaka Niryukti states that Lord Mahāvīra practiced Bhadra Pratimā, Mahābhadra Pratimā and Sarvato Bhadra Pratimă in the Sanulashti village. In Bhadra Pratimā, he meditated for hours in each of the four directions i.e. on the first day in the eastern direction, in the night in the southern direction, on the second day in the western direction and in the night in the northern direction. Similarly, he practiced Mahābhadra Pratimā for four days and nights, after which he started the Sarvatobhadra Pratimā which was completed in ten days and ten nights. Thus Lord Mahāvīra fasted for sixteen days and nights and stood in constant meditation. Only continuous practice enables the aspirant to achieve the desired goal of self-realization and enlightenment. Lord Mahāvīra did not take up this kind of spiritual practice as a special ritual, but it was an essential and inseparable part of his personality. The Agamas further maintain : Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ "अप्पं तिरियं पेहाए अप्पं पिट्ठओ उपेहाए । अप्पं बुइएऽपडिभाणी पंथपेही चरे जतमाणे ।।" आचारांग १९/१/२१ i.e. while walking Lord Mahāvīra never looked sideways and turned behind. He did not answer anybody but always observed the silence of speech and carefully treaded on the chosen path. The aim of all spiritual practice is to achieve the stability of the Yoga i.e. the activities of mind, body and speech. Samiti i.e. vigilant conduct and gupti i.e. right regulation of the activities of mind, body and speech are to be practiced to achieve the same. A person cannot retire from his day to day activities and so he should conduct himself adhering to the concept of Samiti. Such a practice enables one to lead a life of self-control and self-contemplation amidst all disturbances and conflicts imposed in one's life. Conducting all the duties in our day to day life and simultaneous absorption in Self-contemplation can be achieved by the aspirant by being attentive to the duties performed in his life. Lord Mahāvīra practiced the samitis well same When he was walking, all his attention was only on his activity of walking. He did not stand and stare at the roadside things or passers by. Even when people questioned him, he remained silent. Describing his deep-rooted spiritual practices the Agamas have used the term "Ayatyoga" and interpreted it as restrained activities of mind, body and speech. In this context it would be appropriate to define "Ayatyoga" as concentrated activity of mind, body and speech. Whatever activities Lord Mahāvīra performed, he became engrossed in it and hence there was neither any impression of the past nor any imagination of the future, for he lived in the present moment in totality. While walking, eating, drinking, sitting etc. the was always alert and practiced 'Ayatyoga'. He was totally dedicated to the act that he was transacting. He used to be so absorbed in his self, that he never experienced hunger or thirst, heat or cold. He diverted his entire attention towards the self. His mind, intellect, Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SPIRITUAL PRACTICES OF LORD MAHAVIRA : 28 senses, his concerns all moved in one direction of 'the self for selfrealization and emancipation. The above is a bird's eye view of the spiritual practices of Lord Mahāvīra and the following is a brief description of the various aspects of the spiritual practices that he undertook:I. FOOD Lord Mahāvīra was not obstinate about his food habits and hence he was called as 'Apadinne'. (3TGIFT) He accepted any kind of food that is acceptable by a monk (17). He had no reservations about the kind of food that was to be acepted or given up. When He felt that he could continue his practices without any distractions he went on fast and when he felt his body required it, He accepted Nirvadya food i.e. food acceptable by a monk. he never gave up food for the sake of giving it up, instead he continued with his penances to serve the purpose of self-contemplation. During twelve and half long years of vigorous practices, out of 4515 days, he took food only 341 days and on other days he observed complete fast. It is not that during these days he never felt hungry or subsided his hunger, but he was so engrossed in the contemplation of the self that he never experienced hunger and so, various spiritual practicers became natural to him. Fasting was not a ritual; for him as people generally accept it today, but it complimented his search and was an outcome of his spiritual engrossment. He once remained without food and water for six consecutive months. This is quite surprising, for medical experts say that a person can be without food and water for not more than 18 days. But from the extra-ordinary life of Lord Mahāvīra, we understand that man has a greater potential than that is assumed. In the Yoga-Sūtra of Patañjali it is said that the cessation of hunger, thirst takes place in an ascetic by performing his restraint with regard to the well of the thro at (Kamthakūpa) which causes the manifesfation of hunger, thirst etc. Determination, concentration and Absorption-these three together make self-control possible. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ Lord Mahāvīra took only Prāsuka and Niravadya food i.e. food that is not cooked for him and is given to him totally in a non-violent way. Irrespective of the caste and creed of the people who offered him food, he accepted the food that is acceptable by a Jaina monk. While searching for food he was careful not to harm or obstruct the livelihood of other hermits, sramaņas, guests, beggars and even animals. He took care not to cause fear and unpleasantness to other living beings and treaded carefully on the chosen path. He never satisfied his hunger at the cost of others. While walking, he was careful not to tread upon and harm the water, earth, fire, air, bodied souls and other creatures. He knew them to be living i.e. having life and so was ever vigilant. Through out his life, he was compassionate and looked upon his own self and never indulged in any kind of violence to other creatures. The kind of fasting that Lord Mahāvīra undertook was marvellous. Once He took only dry and tasteless food for eight consecutive months and consumed very little water during that time. "आयावई य गिम्हाणं अच्छति उक्कुडए अभिवाते । अदु जावइत्थ लूहेणं ओयणमंथु - कुम्मासेणं ।।" 37TORTUI 88/8/81 i.e. During the summer season Lord Mahāvīra exposed his body to the sun and sometimes sat in the Ukudu Āsana i.e. posture of sitting on the arms with the soles of the feet touching the ground and facing the sun. Most of the time he ate dry food only to satisfy his hunger. When one takes tasteless food and little water, the taijasa body becomes strong and the person becomes energetic than before. On the contrary when one takes tasty food and drinks plenty of water, his strength and valour remain on the decline. Owing to the above facts Lord Mahāvīra must have accepted dry and tasteless food so that his spiritual energy remained intact. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SPIRITUAL PRACTICES OF LORD MAHĀVĪRA : 98 II. SLEEP Our sleep is directly proportional to the type and amount of food that we take. If the food that we take is delicious and heavy, we go to sleep for long hours and on the contrary if we take light and tasteless food, we are able to sleep less. It is a matter of common experience that after we have our lunch, we are inclined to take some rest. Even to digest the food that we consume, energy is required; so after lunch the blood circulates from the head to the stomach alongwith the energy to digest the food consumed and so we are tempted to take a nap. In contrast to this when we observe a fast, we sleep less or never get a sound sleep. And people who fast for a long time hardly get any sleep and this is because in the absence of food the energy of our body circulates in the head and the person does not get sleep. It is necessary to sleep. Medical experts say that we may live without food and water at a stretch for 18 days, but it is difficult to remain mentally fit after 3 days in the absence of sleep. While studying the life of Lord Mahāvīra we see that the above fact is disapproved as he slept only for 3 hours in 4515 days and was physically and mentally fit and was also engrossed in the self contemplation. This was possible because he had a strong will-power and a great spiritual potential. Yogis and spiritual practioners not only give up all worldly desires but also limit their necessities in life and attain complete self-control. Thus Lord Mahāvīra became extra ordinary even while moving amidst ordinary people. Lord Mahāvīra did not force himself to go without sleep at other times. Constant practice, strong will power and self contemplation inspired him to conquer -the sleep. In the Ācārānga Cūrņi it is stated that Lord Mahāvīra never experienced a deep sleep. Whenever he felt sleepy he neither avoided it nor engrossed himself in deep contemplation and also did not waste his time caring for the same. He would sleep for a moment and again continue with his meditation. At times when he felt sleepy, he would walk for some time and again engross himself in meditation. In this way Lord Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर / १९९६ Mahāvīra awakened his self by constant meditation. He had not accepted any vow as to not to sleep, only constant practice enabled him to conquer sleep and manifest this extra-ordinary quality in life. " प्रमादमेव शत्रुः उद्यमेव मित्रम् ।" ९२ Carelessness and negligence is the greatest foe of a person observing spiritual practices. Besides sleep, Lord Mahāvīra never indulged in sense pleasures, passions, gossip and other types of negligence. This kind of vigilance provided the required momentum and so he was able to progress steadily on the chosen path. III. MAUNA i.e. SILENCE The most important aspect of Lord Mahāvira's spiritual practice was the silence of that he observed. If we fail to adopt right speech in life, it may become the root cause of many evils and conflicts. There is inflow of karmic matter through the channels of mind, body and speech and for the stoppage and destruction of Karma it is important to control the activities of the same. Mind is the most subtle and volatile of the three instruments of Yoga viz-mind, body and speech and it can be controlled when the other two instruments are controlled. It is stated in canons that when the mind is controlled, the power of concentration is enhanced and self-control comes effortlessly. When the silence is observed the self becomes unblemished and flawless. Through the control of body, there is the stoppage of inflow of karmas. Through the purity of mind, right knowledge of reality is acquired and false perception is removed. Through the purity of speech, faith and vision become right and clear. There upon the aspirant destroys four ghāti karmas namely knowledge obscuring, vision obscuring, delusion producing and power obscuring karmas and finally destroys the other four aghāti karmas and becomes liberated. Thus by controlling the activities of mind, body and speech, the self becomes pure and perfect. Owing to these facts Lord Mahāvīra practised silence which does not signify silence alone, but is accompanied with self contemplation. But often people Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SPIRITUAL PRACTICES OF LORD MAHĀVĪRA : 83 adopt other means like nodding, signalling and substitute this silence which is improper and the purpose with which silence of speech is observed is not at all served. To give up all types of contacts with people and external objects cum circumstances and to contemplate on the true nature of the self is indeed 'Mauna.' The Āgamas have given the epithet 'Abahuvāi' (3146915) to Lord Mahāvīra. He observed silence most of the time and never spoke when spoken to. When he was questioned about his where abouts, the answer that they got from him was, "I am a Bhikṣu". By practising silence of speech, lot of energy was saved and his spiritual practice became all the more radiant and noble. The great Acryā Šri Ātmärāmji has said "the power of silence is immense. The scientists too have proved that lot of energy is exhausted while talking and a talkative person meets his death early. According to Jaina agamas, the age of a person is not measured by years, months, days and minutes but by the number of breaths he takes. A person who walks fastly, talks loudly and hastily, sleeps longer, is engrossed in sense pleasures, breathes heavily and so his life span gets exhausted in a short time and he dies soon. On the other hand a person who is calm and composed in life, lives longer. Hence practice of silence paves the way for a healthy life. From the scriptural and scientific point of view, silence is healthy and a talkative nature is very harmful. Besides loss of energy one lacks concentration when he talks too much and on the contrary when he practices silence of he is able to concentrate and progress steadily on the path of perfection. Hence silence is instrumental in self-realization." IV. PLACE Lord Mahāvīra generally stayed on the out-skirts of cities and villages, in forests or in deserted places. He even stayed in villages amidst people but never developed any contacts with them. Unlike other Bhikṣus, he never resided in a lovely place. He was also not on foot constantly but maintained a balance between travel and stay. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 : $7407/3Targa-fehlape/888€ For four months during the cāturmāsa he stayed in one place and at other times wandered in those places which were favourable and conducive to his practices. This kind of practice is called 'Vivikta Śayyāsana', which means lives in solitude. In solitude a person is able to progress steadily on the path of perfection. The Uttaradhyayana Sūtra says that in solitude, a person is able to practice perfect code of conduct, is nearer to perfection and in due course destroys the Karmas. Lord Mahāvīra generally stayed in deserted places, workshops, guest houses, grave yards, and under the trees. He never stayed in those places which caused unpleasantness to others and he was careful not to become the target of hatred of others. Once Lord Mahāvīra moved from the society of kollāga to the Moraka region. There was a hermitage in that region where some heretics called 'Durjantaka' lived. The patriarch of the hermitage was a friends of King Siddhārtha, Lord Mahāvīra's father. Lord Mahāvīra spent a night there and when he was about to move elsewhere the head of the hermitage persuaded him to stay there. Lord Mahāvīra came there again for the cãturmāsa period, stayed in a small hut and spent his entire time meditating. The cows of the village used to enter the hermitage and eat the grass of the huts in the monastery. The hermits used to beat and drive away the cows. But Lord Mahāvīra, engrossed in meditation was unaware of the happenings in the hermitage. When the hermits saw the indifferent nature of Lord Mahāvīra, they went upto the head of the hermitage and complained to him about Mahāvīra and his unforgivable nature. There upon the head man approached Lord Mahāvīra and said "O Prince! Even a bird safeguards and protects, its nest. You are a prince, you ought to protect the hermitage where you are staying." On hearing these words Lord Mahāvīra thought, the inmates of the hermitage are troubled by my presence as my behaviour is not in accordance with theirs and I do not associate myself with their activities. Hence I should not stay here any longer". After which, Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ during the cãturmãsa itself Lord Mahāvīra moved elsewhere and took the following vows: SPIRITUAL PRACTICES OF LORD MAHĀVĪRA 1. "Now onwards I shall not stay in such places where people feel uneasy by my presence. 2. I shall be constantly engrossed in meditation. I shall observe silence of speech. Use my hands only as the bowel and eat from my hands only. I shall not do any favours to any house holders." From the above incident in the life of Lord Mahāvīra, a monk is instructed not to stay in those places which cause uneasiness to the people of that place. He is advised to abandon that place even before the landlord asks him to vacate it. If the place is favourable for him as well as for others he may stay there and continue his spiritual practices bearing all trials and tribulations. 3. 4. ९५ 5. V. POSTURE Lord Mahāvīra was not adamant and particular about any single posture. Most of time he stood and meditated in the Kayotsarga posture. He also experimented with postures like Vīrāsana, Goduhikāsana, Utkutāsana, etc. He attained Kevala Jñana in the Goduhikāsana. He adopted those postures which were conveniet and suitable for spiritual progress. VI. REFLECTION ON BEING ALONE i.e. EKATVA BHĀVANĀ When a person is alone, only then he can realize the truth, We can see the manifestation of the above fact, in the life of Lord Mahāvīra and so the commentators of the Agamas have, called him 'Agatigate' (f) which means a person who knows that no one belongs to him and he too belongs to none. Lord Mahāvīra reflected upon this truth, before renouncing the world. He did not entertain any friends and was never found in the company. He was all alone and always engrossed in meditation. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/ १९९६ VII. SELF RELIANT AND INDEPENDENT A person can be totally self-reliant only when he is dependent on his self. The self reliance of Lord Mahāvīra was remarkable and unparalleled. Even when he was subject to innumerable and actute ordeals during his days of spiritual practices, he did not take refuge any where, but was constantly in the company of his own self. He declined the offers of the celestial beings who offered to serve him. An illustration of the first hardship that he overcame is as follows: The day Lord Mahāvīra renounced the world a shephered hit him with a sling. At that time, Indra, the king of gods appeared before Lord Mahāvīra and requested to allow him to be at his service and guard him against all afflictions to be caused in 12.5 years by demons, animals and uncivilized human beings. Lord Mahāvīra declining his services said, "Oh Indra! All the Tīrthankaras and omniscients destroyed their heap of karmas by themselves. Every soul has to destroy all the karmas to attain enlightenment and nobody can share his work-load and bear the fruits of his karmas. If you remain with me people will be scared by you and I will not be able to destroy the Karmas resulting from their actions. Hence no Arhata takes the assistance of any celestial being to destroy the heap of karmas. They depend upon their potential to destroy the karmas to become liberated". If anybody offered any help, he did not condemn them. He neither expected any external aid nor did he desire it, but was always engrossed in meditation. If some one realized his divine nature and helped him, he did not bless him and on the contrary if someone harmed him, he never cursed that person. Lord Mahāvīra was totally independent and was able to become the master of all beings. A person who takes refuge in his self alone can become the master. A person who is attracted and engrossed in enjoying the sense pleasures is dependant on them for happiness and so he cannot become a master but remains a slave to them. Many a times Lord Mahāvīra never got the kind of food that a monk could take, still he remained calm and undisturbed. Once when Sangama (a celestial being) Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SPIRITUAL PRACTICES OF LORD MAHĀ VĪRA subjected Lord Mahāvīra to many hardships, he fasted for six months, but never felt miserable and begged for alms in that state. This magnificent nature of his, made him manifest infinite spiritual potential and grandeur. The self-reliance of Lord Mahāvīra indicates that the ultimate truth and refuge can be none other than the self. All other associations and material inclinations are false and keep us deprived of the infinite treasure of bliss that is latent in each one of us and these material attachments are also an hindrance to the manifestation of that perfection. VIII. UPEKŞĀ i.e. INDIFFERENT ATTITUDE Meditation means a search for one's true self and this is possible only when we adopt an attitude of indifference towards all external objects and incidents. Being indifferent means being a mere witness to all favourable and unfavourable happenings. Any person thing, or incident tends to become more important when we pay more and more attention to them and only when we adopt an indifferent attitude towards them the self gains prominence and importance. Only then we are able to contemplate on the self and dive deep into its realm. The next question arises that towards which we have to develop an indifferent attitude. Besides our external possessions, Our kith and Kin, body, mind and thoughts are different from our true self, hence Upekṣā means being indifferent to all people, things, circumstances, to one's body and to one's thoughts. Lord Mahāvīra adopted and developed this attitude of indifference. This inspired him to be more spiritually inclined and the search of the self became extensive. In this context the Āgamas have stated that "फरिसाइ दुत्तितिक्खाइं अति अच्च मुणी परक्कमाणे । 31UIG-UTE- Tag dsgesig egts l'" आचारांग प्रथम श्रुत स्कन्ध ९/१/९ । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8C : $907/3tare care farat/888€ i.e. Lord Mahāvīra tolerated all kinds of abuses and attacks of uncivilized people in various regions. He was patient and tolerant towards them. He was not attracted to the enchanting music recitals, delightful dance performances, wrestling, gambling and other sports. "नातण्णे असणपाणस्स पाणुगिद्धे रसेसु अपडिण्णे । अच्छि पिणो पमज्जिया णो वि य कंड्यए मुणी गातं।।" आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध ९/१/२०/ i.e. Lord Mahāvīra knew the accurate amount of food and water to be taken. He was never tempted by tasty food. Neither did he remove the dust particles that fell in his eyes nor did he scratch his body when there was any itching sensation. He did not desire any kind of medical treatment in case of illhealth. The more indifferent we are, the more detached we become and the more detached we are, our attitude of indifference becomes more firm as these two are complimentary to each other. IX. INOBSTINATE NATURE (3TATUE OFT) The most important aspect of his spiritual practices was his inobstinate nature. He was not particular about the time, place, food etc. during his practices. Irrespective of them he was engrossed in his practices. The 'Apadinne' i.e. inobstinate nature of Lord Mahāvīra spells that he accepted all those practices that inspired and enhanced his spiritual practices. A glimpse of his submissive and flexible nature can be seen in the context of his giving up clothes. While renouncing the world, Lord Mahāvīra wore a very precious cloth on his body, called Devdūșya, but he vowed that he would not use that cloth to protect and cover his body, but keeping in view the tradition of the previous Tirthankaras and for the others to follow the same, he wore that precious cloth. All aspirants do not have the same degree of temperament and potential for forbearance. Lord Mahāvīra wore that cloth in order to Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SPIRITUAL PRACTICES OF LORD MAHĀVĪRA : 89 lay the code of conduct of monks called sthavira. The aim of all spiritual practices is to purify the soul and destroy attachment and aversion and so it is immaterial if a person wears clothes or gives them up. Hence Lord Mahāvīra did not stress on the wearing of clothes or their being abandoned. After some time that previous cloth discarded naturally. Once while walking on the shores of the Swarna Bālukā river, that cloth struck some thorns and due to the current in the river got separated from Lord Mahāvīra's person. He made no attempt to pick it up and let it go. Life, as such, was a laboratory for Lord Mahāvīra. His living style was in-consistence with his spiritual practices, free from prejudices and rigidity. This kind of simplicity and flexibility is the basic requirement for spiritual progress. If a person is stern and rigid, his progress is hampered and comes to a standstill. Though the person may seem to be putting in a lot of harrd-work all his efforts go unrewarded. Like the (alce a oct) one toiling whole day and thinks that he has travelled a long distance evening, finds in the in the same place. Similarly we too are working hard day in and day out. but in the real sense we fail to acquire true happiness and perfection. Hence it is important that the aspirant gives up obstinacy and makes his mind and self crystal clear like a river. Imkgine life to be a laboratory and when you are subjected to a novel idea, analyse its usefulness before blindly accepting it or rejecting it. If the possibilities of its being fruitful are bright, experiment it in life. If it is useful, adopt it, otherwise, give it up. Whosoever experiments in life, he alone can realize the ultimate reality. Lord Mahāvīra too weighed the pros and cons of all matters and if they proved to be beneficiary and complimented his spiritual practices, He accepted them. This attitude of Lord Mahāvīra enabled him to progress steadily on the pathway of perfection. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/ १९९६ X. OTHER SPIRITUAL PRACTICES (PENANCES) Observing the external penances (like fasting) undertaken by Lord Mahāvīra, very often people say that Lord Mahāvīra performed these penances only to torture his body. But when we observe the vigilance, self-contemplation and other practices of Lord Mahāvīra the above doubt is cleared. His body was not an hindrance to his spiritual practices, so why should he have tortured his body? He was so engrossed in meditation that the requirements of the body became secondary. Only a person whose conscious is unawakened, experiences the external pains and afflictions. But Lord Mahāvīra had risen above it and his concentration was fixed on the inner-self and not on the external body. When the mind is deeply engrossed in contemplation it does not yield to temptation. So Lord Mahāvīra never experienced what his body was subjected to due to deep-rooted meditation and other spiritual practices. The body of Lord Mahāvīra was subjected to hunger, thirst, heat, cold and other hardships, but the mind that experiences them was engrossed in self contemplation and so he never experienced these afflictions. In the absence of the mind even the senses fail to reach out to those experiences on their own. Thus, two aspects of the spiritual practices of Lord Mahāvīra are brought to light (1) Samadhi Preksā i.e. self analysis and (2) Apratigya i.e. he could do as much penances as was possible but alongwith that he would constantly review the progress in his spiritual practices and was always alert and watchful. Such was the Sādhanā Mārga (spiritual Path) shown by Lord Mahāvīra which will bring light and enlightenment to the Humanity for centuries to come. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण RELEVANCE OF NON-VIOLENCE IN MODERN LIFE Dulichand Jain. * The image of Jaina community as champions of peace and goodwill and committed to vegetarianism is strongly imprinted on the Indian mind. Mahatma Gandhi, perhaps the greatest advocate of non-violence in our age, had been deeply influenced by non-violence as a political instrument, by the revered Jaina scholar Raichandabhai Mehta, through intimate personal contact. To abstain from violence is the vow of Jainism around which the other vows ---to abstain from falsehood, theft, non-continence and possessiveness, revolve. Great importance has been ascribed to non-violence by every Indian school of thought yet none have carried it to the extreme as the Jainas have. However, the concept of Ahiṁsā, which is the supreme Dharma "Ahiṁsā paramo dharmaḥ" has not been properly understood and there are many misgivings about it. What is meant by "Ahimsā"? Generally it is taken to mean nonharming or non-violence to any living creature but really speaking it is an attitude by which a person identifies himself with all living beings. Ahiṁsā is equanimity. It is the holy law of compassion in body, mind and spirit. The term "Ahimsā" has both a negative as well as positive connotation. It is generally undrstood by its negative reference, i.e. refraining from causing any injury or harm towards any one. However, positively it has a very sublime and profound aspect and it stands for the practice of love towards all beings. * Secretary, Research Foundation for Jainology, 70, Sembudoss Street, Chennai - 600 001. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ Aim of Human Life Lord Mahāvīra says, "Dharma (righteousness) is supremely auspicious. Non-violence, self-restraint and austerity are its essentials. Even the celestials revere him who is rooted in Dharma".! The aim of human life is to achieve Nirvāṇa or liberation. How to achieve this? Ācārya Umāswāti says that it can be achieved by right faith, right knowledge and right conduct together.” Jainism takes an integral view of life. Only faith or knowledge or conduct alone cannot take us to the path of Nirvāṇa. Without right faith, there cannot be right knowledge, without right knowledge, there cannot be right conduct and without right conduct man can never achieve Nirvāņa or emancipation. Conduct of a Monk and a Householder Jaina texts describe the conduct expected from a monk as well as a householder, elaborately. A monk is expected to follow five great vows (Mahāvratas), while a householder five primary or minor vows (Aņuvratas). Abstinence from violence, falsehood, stealing, carnality and possessiveness are the vows. Violence, falsehood and the like, influence behaviour so deeply that they are seen as entrenched habits which require vows to root out. Non-violence is mentioned first, because it is the principal vow, the basis of all other vows. Just as a fence is meant to protect a field, the last four vows are meant to protect the primary vow of non-violence. A vow is a self-imposed obligation as to what one ought to do and what not. It must be practiced in thought, word and deed with full commitment of its careful observance and at all times. Vows may generate the positive activities which result in beneficial karmas as Lord Mahāvīra said that the result of good karmas is beneficial and that of evil karmas is harmful. The Principle of Non-violence The rationale behind the principle of non-violence is the equality of all living beings. Lord Mahāvīra said. "Not to kill any Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RELEVANCE OF NON-VIOLENCE IN MORDEN LIFE : 803 living being is the quintessence of all wisdom. One has to understand that non-violence and equality of all living beings are the essentials of Dharma".} He further says, "O man! think that the being whom you want to kill is just like you, he too experiences happiness and sorrow just like you. The being whom you want to hurt and harm is just like you, the being whom you want to punish and drive away is also just like you. A noble aspirant lives upto these sentiments and neither harms nor kills any living being nor does he cause them to be harmed and killed by others. One has to bear the consequences of one's actions." Equality of Living Beings Jainism believes that all living beings are equal and life in every creature has to be respected. They believe that not only human beings but animals, birds, plants and even the tiniest creatures have souls. Not only that, but even creatures in air, water and fire, though invisible, have souls. Lord Mahāvīra said, "All living beings desire to live. They detest sorrow and death and desire a long and happy life". Therefore, he gave the famous slogan "live and let live". The world to-day is passing through a serious crisis. Violence has increased tremendously in society. Advanced countries are producing weapons and most dangerous bombs on such a mass scale that the whole humanity can be wiped out within a few days. During the bomb attacks in Hiroshima and Nagasaki 50 years ago, lacs of people were killed but to-day if unfortunately another world war breaks out, it will be most disastrous for the whole Humanity. Besides the dangers of war, there is too much suspicion in the minds of the people. Since last few years, terrorism has spread in many countries and societies, thus tension has increased and there is no real peace in the world. The principle of non-violence embraces not only human or the animal kingdom but also trees, vegetables, air and water as all these are considered as living beings with souls. As such they also feel Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर / १९९६ pain when injured or destroyed and one commits violence when indulging in such acts as cutting of trees, excavating the earth recklessly, over-exploiting the rivers etc. Incidentally, all ecologists, environmentalists and preservationists are coming to the same conclusion as a result of the latest advances in science. There is a movement for preservation of animals, realising that every creature, tiniest or widest, has its place in the scheme of nature. Tree cuttings, pollution of rivers and oceans and needless unplanned excavation of earth is raising protests. The world is coming to the same path as preached by Jainism thousands of years ago. Living in Harmony with Nature All the living beings have to live in co-existence with each other. Acārya Umāswāti writes that "all souls render service to one another. They cannot live independently. They have to share their pleasure and pain with others."5 Unfortunately the modern man thinks that he is the master and controller of nature and all agencies should serve him, hence he over exploits natural resources. All the agencies of nature, rivers, mountains etc. have their own role to play and Man, if he wants peace must co-exist with them. According to the theory of Karma, violence leads to bondage and defilement of the soul thus. The injurer soul suffers from the passions accompanying the act of causing injury and the injured person forms a sense of enmity and hatred towards the injurer. This perpetuates the cycle of birth and death by defilement of both of the souls. In more simple and direct terms, one cannot visualise a world full of violence or without non-violence. Indeed, inspite of age-long emphasis on non-violence, love and kindness by all spiritual leaders, the world is still not a fully peaceful place to live in. Can you imagine the prospects of a world where only violence prevails? That is the rule of the jungle. There are some who hold the view that life survives by destroying life "jivo jīvasya bhojanam" but what is forgotten is that life survives more with the help of life. It is the Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RELEVANCE OF NON-VIOLENCEIN MORDEN LIFE : mutual help, love, kindness and compassion shown by one living being for another that makes the world a fit place to live. Nonviolence is, therefore, a practical necessity in the world to-day. Nature of Violence Violence is caused by injuring vitalities (prāņa) by reckless or passionate activity. There are in all ten vitalities with which living beings are blessed, the number depending upon the evolution of soul due to its past karmas. These are five sense organs (touch, taste, smell, sight and hearing), respiration, life-duration, energy or body, organ of speech and mind. The number of vitalities vary from class to class i.e. one sensed beings have only four vitalities while the five sensed beings have ten vitalities. In the same manner, the quantum of violence involved in causing pain or injury to different classes of creatures also vary. Thus the infringement of non-violence and defilement of soul is greater in killing an animal than in cutting a tree. Violence is caused by passions and carelessness. Lord Mahāvīra said, "Anger, conceit, deceit and greed are four powerful enemies which stimulate sinful deeds. One who desires his well-being should renounce these four faults"6 The activities are of three types --- activity of mind, speech and body called as yoga. Thus we observe that violence is any activity caused by carelessness and which results in injuring any of the ten vitalities of living beings. Abjuring such activity is observation of non-violence. Let us examine four states of conduct of a person. 1. There is no carelessness and also no injury to vitalities of a living being There is no carelessness but there is injury to vitalities of a living being There is carelessness but no injury to vitalities of a living being. 4. . There is carelessness as well as injury to vitalities of a living being. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ : The first state is a perfect example of non-violence as there is neither negligence nor passion nor injury. The second example is also of non-violence. As Pravancansāra' maintains "A tiny insect may be trampled to death under the foot of an ascetic of restrained movement. However, since there is no attachment or hatred, no bondage is caused". In the third example though there is no injury or damage to vitality of the victim the person engaged is full of carelessness. Hence it is called Bhava Himsā or mental violence. The last or fourth category is the worst example of violence. Hence we come to the conclusion that careless conduct is violence and careful conduct is non-violence. श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर / १९९६ Himsă or violence has been generally understood as harm done to others; for Jains, however, it refers primarily to injuring oneselfor, behaviour which prevents the soul's ability to attain Nirvāṇa or emancipation. Thus the killing of animals, for example is reprehensible not only for the suffering produced in the victim, but even more so because it involves intense passions on the part of the killer, passions which bind him more firmly in the grip of Samsāra (transmigration). The Jaina concept of violence then is very broad in terms of the actions to which it refers, and the need for abandonment of such action becomes of permanent importance to the spiritual aspirant. Non-Violence in Practical Life Recognising that total adherence to non-violence is impossible for a householder, Jaina teachers have drawn a distinction between, injurious activities totally forbidden and those which may be tolerated within strict guidelines. From this standpoint violence has been classified in following four categories. 1. 2. Saṁkalpī Himsā - involving deliberately and purposefully injuring the living beings like organising bull fights etc. Ārambhi Himsā - involving unintentional but indirect injury to living beings from acts necessary for normal life like cooking or cleaning. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RELEVANCE OF NON-VIOLENCE IN MORDEN LIFE : 20 3. Udyogi Himsă : resulting from industrial or agricultural activity of the individuals for earning their livelihood. Virodhi Hiṁsā: resulting from opposing attack on one's life, property or country. The saints or nuns abjure all the four types but the layman can renounce only the first type, while later has to indulge in the other three categories, but after observing vigilance. The positive side of non-violence is as important as negative side. This side sometimes is not fully appreciated. The positive aspect implies forgiveness, kindness, compassion, charity and service. Ācārya Amitagati, writer of the famous "Srāvakācāra" (code of conduct for householders) writes: - "Friendliness towards all creatures, respect for the virtuous, compassion (kindness) towards all creatures in distress and neutrality towards those who are not well disposed to me. I pray those qualities be bestowed in me". The Jaina community has responded well by adopting the above virtues preached by the spiritual teachers. This one crore strong community has taken lot of interest in practicing and propagating teachings of non-violence, animal welfare, animal protection and service to the community as a whole. They provide food to the hungry, clothing to the unclad and medical & educational services to the needy. They have opened many gośālas and shelters for the animals. Observance of Vows Jainism provides complete guidance for observation of nonviolence in day to day life. The practicing of the major and minor vows like truthfulness, non-theft, continence, non-possession etc. make it easy to serve non-violence. Again there are five observations which strengthens the conduct of non-violence viz. 1. control of speech, 2. control of thoughts, 3. regulation of movement, 4. care in planning and upkeep of things and 5. examining food and drinks before use. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ A non-violent person should be full of benevolence towards all living beings. Also he should avoid food and clothing and other requirements which involve the slaughter of animals, fish, birds etc. All kinds of intoxicating drinks are to be avoided. Similarly, for earning a living it is necessary to avoid trades like brewing, fishing, and butchering etc. Above all, the origin of non-violence is in the attitude of the mind as explained earlier. The mind should be constantly vigilant, careful and considerate. This would help in eschewing the four passions-anger, conceit, deceit, and greed. All acts performed by such persons will be free from violence. This has been authoritatively stated in the Daśavaikālika Sūtra. Realising that no space is free from life and any moment in the form of thought, speech and physical action involves some injury to some form of life, the questions was asked to Lord Mahāvīra :- "How should one walk, stand, sit, sleep, eat and speak so that the sinful karmic bondage may not accrue (to the soul)". Lord Mahāvīra replied "With vigilance one should walk, stand, sit, sleep, eat and talk (thus) sinful karmic bondage shall not accrue to the soul". Such a vigilant conduct avoids defilement of the soul by karmas or sins leading ultimately to freedom from bondage. Apart from future or life hereafter, practice of non-violence makes for a better existence in this life itself. It can ensure peace between nature and man, man and man, man and society and between nation and nation. All the conflicts are desolved through non-violent methods once its principles are put to practice at different levels. Non-violence in the conduct of man and society is the greatest need in the present times. Faced with the danger of ecological disaster and nuclear holocaust on the one hand and unrestrained materialistic pursuit on the other, humanity is groping in the dark for a ray of light which can save its very existence. Such light is provided by shunning violence at all levels by practicing non-violence. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VIDYAPEETH'S LATEST IMPORTANT PUBLICATION १०२ No wonder Lord Mahāvīra called non-violence as goddess - "bhagwati ahiṁsā". References : 1. 2. 3. dhammo mangalamukkittham ahiṁsā saṁjamo tavo / devā vi taṁ namansanti jassadhamme sayā maņo // Daśavaikālika sūtra-ed. yuvacharya Mahaprajna, Jaina Vishva Bharati, Ladnun (Raj.) Gāthā. 1/1. samyagdarśanagņñānacāritrani moksamärgash // Tattvärthasūstra, Parshvanatha Vidyapeeth Varansi-5. Adhyya Sutral/1. eyami khu ņāņiņo sārań, jaṁ na hissati, kaṁcanaṁ / ahirnsä samayam ceva, etāvaṁtaṁ vijāniyā / Sūtrakstānga I chapter, ed Madhukar Muni, Agama Prakashana Samiti, Byavara, (Raj.) ed. Ist 1982, 1/1/10. Ācārānga Sūtra. ed. Madhukara Muni Agama Prakashana samiti, Byavara, (Raj.) 1980, 1/5/5/5. Tattvārtha Sūtra - 5/21. Daśavaikälika - 8/37. Pravacanasāra - 3/16. Srāvakācāra - 13/99. Daśavaikālika - 8/37. 4. 8. 9. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण BOOK-REVIEW VIDYAPEETH'S LATEST IMPORTANT PUBLICATION Scientific contents in Prāksta canons : by : Dr. N.L. Jain, Price Rs. 200/- (Paperback) and Rs. 300/- (Hard Bound), pp. 584, 1996. 'Scientific contents in Prāksta canons' is the latest publicaton of the Vidyapeeth, under the series of its Research Oriented Publications. This volume is a materalised form of the project entitled 'Scientific contents in Prāksta literature, approved by the University Grants Commission, New Delhi. There has always been two catagories of the scholar traditionalists and moderates. It is the latter who carry the torch of knowledge, ahead. The scientific age has resulted in increase of moderate scholars with scientific outlook presuming knowledge as ever flowing river. The early Jaina canons contain about one third of their contents related with physical world. The above approach directs to treat these contents as specific to those periods and as amile stone in development of thought process. This book is an attempt to induce this approach to cover the contents in the areas of Chemistry, Physics, Botany, Zoology, Food Sciences and Medical Sciences. This contribution of the author will convince the reader that religious themes have also been undergoing changes like scientific concepts and therefore, Science should not be degraded on this score. It also leads us to presume that the Jainas have had better intellect in the contemporary theorisation. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 989: VIDYAPEETH'S LATEST IMPORTANT PUBLICATION All these have been presented by the author in a non-traditional format covering the past and present. It has many informative and comparative tables. The volume contains 17 Chapters, 129 tables, 880 references and 5 diagrams. This non traditional book has a point to sthrengthen faith in moral and spiritual values and no doubt will prove a land mark in the study of the history of science; particularly in the Jaina context. Vidyapeeth congratulates the author for this excellent contribution. Dr. S.P. Pandey Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण पुस्तक समीक्षा भारतीय जीवन मूल्य, लेखक-डॉ० सुरेन्द्र वर्मा, प्रकाशक-पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, पृष्ठसंख्या-२१७, मूल्य ७५ रु०, प्रकाशन वर्ष १९९६। यह ग्रन्थ दश अध्यायों में विभक्त है, प्रथम अध्याय में मूल्यों के स्वरूपनिर्धारण के प्रसंग में दर्शन के क्षेत्र में मूल्य मीमांसा करने की अपेक्षा उसकी अर्वाचीनता, पाश्चात्य दर्शन में उसका सूत्रपात, प्लेटो, नीत्शे, अरस्तू, स्टोइक, एपीक्यूरियन, कांट तथा हीगल आदि दार्शनिकों में मूल्यबोध आदि महत्त्वपूर्ण इतिहास की खोज की गई है। उन्नीसवीं शताब्दी में ही मूल्यमीमांसा एक स्वतन्त्र शास्त्ररूप से उभरने लगा - इस तथ्य का ग्रन्थकार ने संकेत कर अनेक मूल्यमीमांसा विषयक ग्रन्थों का विवरण दिया है। भारतीय दर्शन में मूल्यबोध का सूत्रपात वेद से होता है। इस तथ्य को प्रमाणित करते हुए सत् श्रेयस, ऋत, धर्म-इन शब्दों को मूल्यबोध का प्रतीक मानकर उनकी व्याख्या की गई है। मूल्यों की आरोपणविषयता, नियोजकता, प्राप्य आदर्शरूपता तथा अनेकता आदि विषयों की सम्यक् विवेचना कर मूल्य का अधिष्ठान क्या है विषय अथवा विषयी इस महत्त्वपूर्ण विषय का ऊहापोहपूर्वक तर्कशुद्ध विवेचना की गई है। द्वितीय अध्याय में मूल्यार्थक विभिन्न पदों की विवेचना तथा धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्ग की विस्तृत मीमांसा की गई है, काम अर्थ और अर्थ के सम्बन्ध में इस तथ्य की ओर विशेष रूप से इंगित किया गया है कि इन दोनों (काम और अर्थ) की मूल्यवत्ता इनके धर्म से संयुक्त होने पर ही है। तृतीय अध्याय में धर्म तथा अर्थ पुरुषार्थों का सविस्तार विवेचन किया गया है। इसी के अन्तर्गत ऋत, धर्म, नित्यधर्म, काम्यधर्म, नैमित्तिक धर्म, आपद्धर्म, धर्मस्रोत, अभ्युदय, नि:श्रेयस, अर्थ और धर्म का सम्बन्ध, अर्थ और अपरिग्रह आदि महत्त्वपूर्ण विषयों पर गम्भीर विवेचन प्रस्तुत किया गया है। चतुर्थ अध्याय में काम पुरुषार्थ का विस्तार से प्रतिपादन किया गया है और इसी सन्दर्भ में वात्स्यायन तथा चार्वाक के सुखवाद का सूक्ष्म अन्तर सुस्पष्ट किया गया है। इसी अध्याय में सौन्दर्य बोध मूलक सुख की तथा विभिन्न काव्यशास्त्रियों द्वारा प्रतिपादित रसास्वाद की भी सक्ष्म मीमांसा की गई है। पञ्चम अध्याय में मोक्षनामक चतुर्थ पुरुषार्थ का जिसका उद्भव उपनिषद्काल में हुआ था, विशद प्रतिपादन किया गया है। मोक्ष के स्वरूप के सम्बन्ध में दार्शनिक Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ : पुस्तक समीक्षा सम्प्रदायों के विभिन्न मतों को प्रस्तुत कर उनकी तात्त्विक विवेचना की गई है। मूल्यों की दृष्टि से पुरुषार्थ चतुष्टय पद्धति और पञ्चकोषीय पद्धति दोनों में मोक्ष की चरम आदर्श के रूप में मान्यता का प्रस्तुतीकरण सुव्यवस्थित ढंग से किया गया है। ग्रन्थ के छठे अध्याय में तमिल भाषा के कवि वल्लुवर के कुरल नामक ग्रन्थ में प्रतिपादित त्रिवर्ग की समुचित उद्धरणों सहित सुस्पष्ट मीमांसा की गई है। जीवन के नैतिक मूल्य-न्यायनिष्ठता, अहिंसा तथा परस्त्री त्याग, आदि विषयों पर अर्थगाम्भीर्यपूर्ण सुन्दर उक्तियाँ भी उद्धत की गई हैं। सप्तम अध्याय में जैनधर्म में पुरुषार्थचतुष्टय का सविस्तार प्रतिपादन किया गया है, जैन दर्शन का अनेकान्तवाद एक सर्वव्यापी विचार है जिसके कारण धर्म और मोक्ष केवल इन्हीं दो पुरुषार्थों का जैनदर्शन प्रतिपादन करता है ऐसी मान्यता को ग्रन्थकार ने उचित नहीं बताया है क्योंकि जैनदर्शन अर्थ और काम पुरुषार्थों को सर्वथा हेय न मानकर उनकी मोक्षपरता स्वीकार करता है- इस तथ्य का सुचारु रूप से विवेचन किया गया है। अष्टम अध्याय में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह इन पञ्च व्रतों पर विचार करते हुए ग्रन्थकार का आशय है कि यद्यपि ये व्रत मूल्यों की कोटि में तो नहीं आते किन्तु वे जीवनपद्धति के मूल्यों को चरितार्थ करने के लिये आचरण सम्बन्धी सद्गुण रूप से एषणीय हैं। इस सन्दर्भ में जैनदर्शन, बौद्धदर्शन तथा वैदिक दर्शन में व्रतसम्बन्धी अवधारणा तथा व्रतसंख्या का साङ्गोपाङ्ग विवेचन किया गया है। नवम अध्याय में साधना पक्ष का प्रतिपादन करते हए योगशास्त्र का मूल्यवत्ता के सन्दर्भ में मूल्याङ्कन किया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता के कर्मयोग के साथ-साथ भक्तियोग और ज्ञानयोग की विस्तृत मीमांसा की गई है। जैनदर्शन में अभिप्रेत समत्वयोग (सामायिक) तथा पातञ्जल योग का तुलनात्मक विवेचन भी सुस्पष्ट शैली में किया गया है। समग्र ग्रन्थ प्रसाद गुण युक्त शैली में लिखा गया है इसलिये गम्भीर विषय के भी अवबोध में कठिनाई नहीं होती, प्रतिपाद्य विषय का उपस्थापन सुरुचिपूर्ण है। तात्पर्यावगति में कहीं भी अवरोध न हो इसलिये ग्रन्थकार बेशक, बावजूद, जाहिर आदि उर्दू के शब्द प्रयोग भी नि:संकोच रूप से करता है। भारतीय दार्शनिक जगत् में मूल्यों के दो प्रतिमान-त्रिवर्ग और पुरुषार्थ चतुष्टय का साङ्गोपाङ्ग विवेचन किया गया है। मोक्ष नामक तुरीय पुरुषार्थ तो निरपेक्षरूप से स्वतन्त्र मूल्य है किन्तु अर्थ और काम की मूल्यवत्ता सापेक्ष है क्योंकि ये दोनों धर्मनियमित होने पर ही मूल्यता की कोटि तक पहँच पाते हैं-- इस सिद्धान्त का सम्यक्तया प्रतिपादन किया गया है। मूल्यों की वस्तुनिष्ठता अथवा आत्मनिष्ठता पर भी पर्याप्त चिन्तन किया गया है। कलानुभूति के क्षेत्र में मूल्यबोध का विवेचन भी बड़ी सूक्ष्मता से किया गया है। इसी सन्दर्भ में आचार्य अभिनवगुप्त की सौन्दर्यानुभूति को विशुद्ध आनन्दानुभूति भूमि तक का सुस्पष्ट प्रतिपादन ग्रन्थकार की प्रतिभा का भव्य-विलास है। यद्यपि मूल्य शब्द के विभिन्न पर्यायों तथा उसकी विभिन्न परिभाषाओं पर ऊहापोहपूर्वक विचार किया गया है। तथापि ऐसा लगता है कि ग्रन्थकार Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ : ११४ को ई०सी० ईविंग की परिभाषा “मूल्य अनुकूलवृत्ति का एक उचित विषय है" (Fitting object of a proattitude) सर्वाधिक मनोग्राही लगी इसी का उसने विशेष रूप से पल्लवन किया है। धर्म साधनमूल्य है अथवा साध्यमूल्य अथवा उभयरूप है इसका विवेचन भी मूल्यवान् है। ग्रन्थ के कतिपय वाक्य चिन्त्य भी प्रतीत होते हैं। जैसे पृष्ठ ७८ में भरत के द्वारा स्वीकृत चार स्थायिभावों में रति, रुद्र, उत्साह और जुगुप्सा को बताया गया है। वस्तुतः यहाँ 'रुद्र' के स्थान पर 'क्रोध' होना चाहिये क्योंकि किसी भी रसशास्त्र के आचार्य ने 'रुद्र' को स्थायिभाव नहीं कहा है। पृष्ठ १८५ में ग्रन्थकार ने योग शब्द के अर्थ का निर्वचन करते हुए 'मिलना' या 'संयुक्त होना' भी कहा है और लगभग सर्वत्र इस शब्द की इसी रूप से अन्विति की है। वस्तुत: युज् धातु का समाधिपरक अर्थ भी होता है और इसी रूप में प्राय: योगशास्त्र में उसका प्रयोग भी हुआ है, पृष्ठ ७८में आचार्य मम्मट के मत को उद्धृत करते हुए ग्रन्थकार ने कहा है कि वहाँ (मम्मट में) सौन्दर्यानुभूति को ब्रह्मानन्द का आस्वादन भी बताया गया है। वस्तुत: मम्मट ने रस को ब्रह्मानन्द के समान बताया है। ब्रह्मास्वाद नहीं कहा है, सादृश्य होने के कारण ही रस की ब्रह्मानन्द से भिन्नता स्वत:सिद्ध है। इसके अतिरिक्त कुछ वाक्यों में भी आपाततः विसंगति प्रतीत होती है जैसे पृष्ठ-१५ में “मूल्य जो मूल्यवान् है अनिवार्यत: अस्तित्ववान भी हो जरूरी नहीं' इस वाक्य में 'मूल्यवान् है' में 'है' शब्द मूल्य के अनिवार्यत: अस्तित्व का ही तो द्योतक है, पृष्ठ १७ में कहा गया है कि “मूल्यबोध आत्मांश और विषयांश दोनों का ही सामरस्य है।" इस वाक्यं की संगति हम मोक्ष नामक स्वत: सिद्ध मूल्य में कैसे घटित करेंगे वहाँ आत्मांश के अतिरिक्त विषयांश क्या बनेगा? पुन: उक्त वाक्य का पृष्ठ ८९ के इस वाक्य से कैसे सामञ्जस्य हो पाएगा-- “अन्ततोगत्वा मूल्य का स्वरूप आत्म संकेत के अतिरिक्त और कुछ नहीं-आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति'। अस्तु यह सभी बातें नगण्य हैं क्योंकि ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय और शैली दोनों ही इतने आकर्षक हैं कि इसकी मूल्यवत्ता अथवा गुणवत्ता के सम्बन्ध में जो भी कहा जाय थोड़ा ही है, ग्रन्थकार और प्रकाशक दोनों ही इस उत्तम लेखन और प्रकाशन के लिये बधाई के पात्र हैं। प्रो० सुरेशचन्द्र पाण्डे प्राकृत भाषा विभाग Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण जैन जगत् 'श्रमण' पाठकों की दृष्टि में पहला श्रमण का स्तर सराहनीय है। संस्था के प्रकाशनों की शृङ्खला और उनका स्तर अनुकरणीय है। कृपया इसे बनाये रखें। Indology और Jainology के क्षेत्र में आप का योगदान चिरस्मरणीय रहेगा। प्रो० राजकुमार शर्मा अवकाशप्राप्त अध्यक्ष प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व विभाग रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर - मध्यप्रदेश अंग साहित्य : अध्ययन एवं समीक्षा संगोष्ठी सम्पन्न समता विभूति आचार्य प्रवर श्री नानालाल जी म० सा० के सुशिष्य युवाचार्य प्रवर श्री रामलाल जी०म०सा० के सानिध्य में समता शिक्षा सेवा संस्थान, देशनोक एवं आगम संस्थान, उदयपुर के अकादमीय सहयोग से निम्बाहेडा (राजस्थान) में दिनांक २४-२५ नवम्बर को 'अंग साहित्य : अध्ययन एवं समीक्षा संगोष्ठी सम्पन्न हुई। इस द्विदिवसीय संगोष्ठी का उद्घाटन युवाचार्य श्री रामलाल जी म० सा० ने किया। दिनांक २४/११/९६ संगोष्ठी के प्रथम सत्र की सत्राध्यक्षता प्रो० प्रेमसुमन जैन, डीन, कला संकाय सुखाडिया विश्वविद्यालय, उदयपुर एवं संयोजन डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय, प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी ने किया। प्रथम सत्र में निम्न चार पत्रों का वाचन हुआज्ञाताधर्मकथा का समीक्षात्मक अध्ययन : प्रो०प्रेमसुमन जैन, उदयपुर आचारांग का हार्द : प्रो० सागरमल जैन, निदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ : ११६ उपासकदशांग का समीक्षात्मक अध्ययन : डॉ० रज्जन कुमार, प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी। प्रथम सत्र की समाप्ति के बाद सायं ७ बजे स्थानीय मोहित विद्या मंदिर में संस्कार निर्माण व्याख्यानमाला के अन्तर्गत प्रो०सागरमल जैन ने 'धर्म का मर्म' विषय पर अपना सारगर्भित व्याख्यान प्रस्तुत किया। प्रो० जैन ने इस अवसर पर धर्म के मर्म को समझाकर उसे अपने जीवन में उतारने के लिए समाज के हर वर्ग खासकर युवकों का आह्वान किया। आपने बताया कि आज जबकि समाज में धर्म के यथार्थरूप - समत्व को न पहचानकर केवल उसके बाह्य रूपों के आधार पर अलगाववादी ताकतें समाज के विखंडन के लिए आमादा हैं, युवकों का विशेष दायित्व बनता है कि वे धर्म के यथार्थ रूप को जन-जन में प्रचारित एवं प्रसारित करें। संगोष्ठी का द्वितीय सत्र २५ नवम्बर को प्रारम्भ हआ। इस सत्र की अध्यक्षता प्रो०सागरमल जैन एवं संयोजन श्री मानमल कुदाल, उदयपुर ने किया। इस सत्र में निम्न पत्रों का वाचन हुआ। अंग आगम : एक भाषा वैज्ञानिक अध्ययन : डॉ जगतराम, भट्टाचार्य, प्रवक्ता, जैन विश्वभारती, लाडनूं। दृष्टिवाद का समीक्षात्मक अध्ययन डॉ० उदयचन्द जैन, रीडर, प्राकृत विभाग, सुखड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर। प्रश्नव्याकरणसूत्र का समीक्षात्मक अध्ययन : प्रो० सागरमल जैन, वाराणसी। संगोष्ठी के तृतीय एवं अंतिम सत्र की अध्यक्षता डॉ० उदयचन्द्र जैन एवं संयोजन डॉ० रज्जनकुमार ने किया। इस सत्र में जिन तीन पत्रों का वाचन हुआ वे हैंसूत्रकृतांगसूत्र का समीक्षात्मक अध्ययन : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय, वाराणसी। विपाकसूत्र का समीक्षात्मक अध्ययन : डॉ० सुरेश सिसोदिया, शोधाधिकारी, आगम, अहिंसा एवं समता संस्थान, उदयपुर। अनुत्तरोपपातिकसूत्र का समीक्षात्मक अध्ययन : श्री अतुल कुमार, वाराणसी। संगोष्ठी का समापन युवाचार्यप्रवर श्री रामलाल जी म०सा० के आशीर्वचनों एवं संगोष्ठी संयोजक डॉ० सुरेश सिसोदिया के धन्यवाद ज्ञापन के साथ हुआ। संगोष्ठी के सूत्रधार श्री इन्दरचन्द जी वैद ने आगन्तुकों का योग्य सम्मान किया। संगोष्ठी के सफल आयोजन के लिए डॉ० सुरेश सिसोदिया, श्री इन्दरचंद जी वैद एवं श्री सागरमल जी चपलोत निश्चय ही बधाई के पात्र हैं।te & Personal use DRIN चप Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ : जैन जगत् कनड़ ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियों के बारे में प्रशिक्षण कार्यशाला सम्पन्न ___ कुन्दकुन्द भारती, नई दिल्ली द्वारा पिछले दिनों आचार्य विद्यानन्द जी की प्रेरणा से कन्नड़ ताडपत्रीय पाण्डुलिपियों के अध्ययन एवं पाठ-सम्पादन के लिये आयोजित तीसदिवसीय प्रशिक्षण कार्यशाला में चुने हुए ५ प्रतिभावान छात्रों को आधुनिक एवं प्राचीन कनड़ लिपि का ज्ञान, पाठ सम्पादन की विधि एवं प्राचीन कन्नड़ ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियों के लिप्यान्तरण का गहन प्रशिक्षण दिया गया। देश की इस बहुमूल्य सम्पदा की रक्षा एवं उसके प्रकाशन के लिये ऐसी कार्यशालाओं का आयोजन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ में प्राकृत पाठ्यक्रम प्रारम्भ आचार्य विद्यानन्द की प्रेरणा एवं आशीर्वाद तथा प्रो० मण्डन मिश्र एवं प्रो० वाचस्पति उपाध्याय के उदार सहयोग से लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ नई दिल्ली में प्राकृत भाषा का सर्टिफिकेट कोर्स एवं डिप्लोमाकोर्स इसी शैक्षणिक सत्र से प्रारम्भ हो गया। प्रो०के०आर०चन्द्र हेमचन्द्राचार्य सुवर्ण पदक से सम्मानित दिनांक २२-९-९६ को भावनगर (सौराष्ट्र, गुजरात) में कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्म शताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षण निधि, अहमदाबाद द्वारा पू० आचार्य श्री विजयसूर्योदयसूरीश्वर जी एवं उनके शिष्य पू० आचार्य श्री विजयशीलचन्द्रसूरि जी की निश्रा में एवं शिल्प-स्थापत्य शास्त्र के अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के विद्वान् डॉ०मधुसूदन ढाकी के सभापतित्व में श्री भावनगर जैन श्वे० मू० तपा० संघ के दादा साहेब जैन उपाश्रय में आयोजित एक भव्य समारोह में प्राकृत एवं पालि विभाग (भाषा साहित्य भवन, गुजरात युनिवर्सिटी) के निवृत्त अध्यक्ष डॉ०के० ऋषभचन्द्र (के० आर० चन्द्रा) को उनके द्वारा प्राकृत भाषा विषयक किये गये बहुमूल्य संशोधन कार्य एवं जैन आगम साहित्य की अर्धमागधी (प्राचीनतम प्राकृत) भाषा के विषय में उनके विशिष्ट अवदान के लिए शाल और श्री हेमचन्द्राचार्य सुवर्णचन्द्रक (पदक) प्रदान कर उनका सम्मान किया गया। श्रीमती किरण वेदी अहिंसा एवं सद्भावना पुरस्कार से सम्मानित दिल्ली १० अक्टूबर : जैन महासभा, दिल्ली द्वारा देश की प्रथम महिला आई०पी०एस० अधिकारी श्रीमती किरण वेदी को विश्वमैत्री एवं क्षमापना दिवस के Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर / १९९६ : ११८ अवसर पर अहिंसा एवं सद्भावना पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस समारोह में आचार्य देवेन्द्रमुनि शास्त्री, श्री किशन लाल जी महाराज आदि भी उपस्थित थे। दिल्ली १० अक्टूबर : जैन महासभा, दिल्ली के तत्त्वावधान में विश्वमैत्री एवं क्षमापना दिवस के राष्ट्रीय समारोह का दिनांक २८ सितम्बर को राष्ट्रपति भवन में आयोजन किया गया। इस समारोह में श्री मणिक भाई, श्री दीपचन्द्र गार्डी, श्री किशोर वर्धन, श्री वैंकट लाल कोठारी, श्री उम्मेदमल पांडया, श्री मांगीलाल सेठिया आदि ने महामहिम राष्ट्रपति जी का अभिनन्दन किया। इस अवसर पर महासभा द्वारा भगवान् महावीर के २६००वें जन्मोत्सव को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाने की भी घोषणा की गयी । श्रीमती डॉ० मुन्नी जैन उत्कृष्ट शोधकार्य के लिए सम्मानित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से पी-एच०डी० उपाधि के लिए १९९६ के प्रारम्भ में स्वीकृत "हिन्दी गद्य के विकास में जैन मनीषी पं० सदासुखदास जी का योगदान” विषयक शोधकार्य के लिए डॉ० (श्रीमती) मुन्नी जैन (धर्मपत्नी डॉ० फूलचन्द्र जी प्रेमी) पुस्तकालयाधिकारी पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी को पिछले दिनों जयपुर में आयोजित विशेष सम्मान समारोह में आचार्य कुन्दकुन्द शिक्षण संस्थान ट्रस्ट बम्बई की ओर से रजत शील्ड एवं वीतराग - विज्ञान, अजमेर की ओर से २१ हजार रुपयों की नगद राशि द्वारा सम्मानित किया गया। इस समारोह में अनेक गणमान्य विद्वान् एवं समाज के प्रमुख व्यक्ति उपस्थित थे। जैनधर्म एवं साहित्य सेवा के क्षेत्र में जयपुर में लगभग २०० वर्ष पूर्व जन्मे पं० सदासुखदास जी कासलीवाल का बहुमूल्य योगदान रहा है । उनके द्वारा भगवती आराधना, रत्नकरण्डक श्रावकाचार आदि प्राचीन ग्रन्थों पर लिखित भाषावचनिकाएँ प्रकाशित हैं, किन्तु अभी भी उनके अनेक ग्रन्थ अप्रकाशित हैं। उनके इस महान् कृतित्व एवं व्यक्तित्त्व पर लगभग ३-४ वर्षों तक श्रम करके डॉ० मुन्नी जैन ने यह अनुसंधान कार्य किया है। इसमें हिन्दी भाषा तथा उसके गद्य के विकास पर लगभग शताधिक जैन गद्यकारों के परिचय के साथ-साथ पं० सदासुखदास जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। श्रीमती डॉ० जैन को इस सम्मान के लिए पार्श्वनाथ विद्यापीठ परिवार की ओर से हार्दिक बधाई । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ : जैन जगत् संबोधिध्यान मंदिर का शिलान्यास समारोह सम्पन्न १२ दिसम्बर १९९६, जोधपुर। साधना, सेवा और स्वाध्याय को लक्ष्यकर गणिवर श्री महिमाप्रभ सागर जी म० सा० की पावन सनिधि में ‘सम्बोधि ध्यान मंदिर' का निर्माण सूर्यनगरी जोधपुर में हो रहा है। इसके शिलान्यास समारोह का भव्य आयोजन जोधपुर में किया गया। शिलान्यास श्री भैरोसिंह शेखावत, माननीय मुख्यमन्त्री राजस्थान ने किया। इस अवसर पर अनेक गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे। शोक समाचार श्री प्रेमचन्द्रजी डागा दिवंगत जयपुर निवासी सुश्रावक श्री प्रेमचन्द्र जी डागा का ८५ वर्ष की आयु में दिनांक १६ दिसम्बर १९९६ को निधन हो गया। श्री डागा अपने पीछे तीन पुत्रों, पौत्रों और प्रपौत्रों सहित भरा परिवार छोड़ गये हैं। स्व० श्री डागा की स्मृति में उनके पुत्रोंश्री प्रकाशचन्द डागा, श्री कैलाशचन्द डागा और श्री विमलचन्द जी डागा से श्रमण के लिये एक सौ रुपये की सहयोग राशि प्राप्त हुई है। विद्यापीठ परिवार श्री प्रेमचन्द्र जी डागा के प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके परिजनों से प्राप्त उक्त सहयोग के लिये आभार व्यक्त करता है। श्री रमेश मालवणिया का असामयिक निधन पार्श्वनाथ विद्यापीठ के मार्गदर्शक तथा जैन धर्म दर्शन के विश्वविख्यात विद्वान् पं०दलसुख भाई मालवणिया के एकमात्र पुत्र श्री रमेश मालवणिया का पचपन वर्ष की आयु में दि० २४/१२/९६ को हृदयाघात से देहान्त हो गया। स्व० रमेश भाई का सम्पूर्ण बाल्यकाल पार्श्वनाथ विद्यापीठ के प्रांगण में ही व्यतीत हुआ था। फोटोग्राफी में उनकी विशेष रुचि रही। विद्यापीठ के लिये उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण फोटोग्राफ्स भी तैयार किये थे। पार्श्वनाथ विद्यापीठ परिवार श्री रमेश भाई के असामयिक निधन पर शोकाकुल है और ईश्वर से प्रार्थना करता है कि दिवंगत आत्मा को शान्ति प्राप्त हो तथा पंडित जी और उनके परिजनों को इस महान् कष्ट को सहन करने की शक्ति मिले। साभार स्वीकार श्रीवर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, छोटी सादडी, राजस्थान से पार्श्वनाथ विद्यापीठ को निम्नलिखित पुस्तके भेंटस्वरूप प्राप्त हुई हैं : Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ : १२० रचनाकार १. श्री सत्यबोध रचयिता - श्री तिलोक ऋषि जी महाराज २. श्री तिलोकछन्दसंग्रह रचनाकार - पूज्यपाद तिलोकऋषि जी महाराज ३. श्री तिलोककाव्यसंग्रह विवेचक - आचार्य आनन्द ऋषि जी ४. श्री तिलोकछन्दसंग्रह रचनाकार - तिलोकऋषि जी महाराज (सामूहिक प्रार्थना सह) ५. श्रावकधर्महितशिक्षा रचनाकार - तिलोकऋषि जी महाराज ६. पंचपरमेष्ठीवन्दना - तिलोकऋषि जी महाराज ७. चौबीसहितशिक्षायें रचनाकार ___ . तिलोकऋषि जी महाराज ८. श्रीमहावीरसन्देश अनुवादक - श्री रामचन्द्र केशव गर्ने ९. श्रीतिलोकद्वात्रिंशिका रचयिता . श्री माधवानन्दशास्त्री १०. सातवारों से हितशिक्षा रचनाकार - श्री तिलोकऋषि जी महाराज हिन्दी रूपान्तरकार आचार्य आनन्दऋषि जी महाराज। ११. कल्याणमंदिर स्तोत्र . रचनाकार - आचार्य सिद्धसेन दिवाकर। १२. श्री कल्याणक चौबीसी प्रस्तुतकर्ता - मुनि श्री कन्हैयालाल जी कमल आचार्य श्री रत्नाकर सूरि जी म०सा०, C/o श्री झवेरी पार्क, आदीश्वर जैन संघ झवेरी पार्क, नारणपुरा रेलवे क्रासिंग, नारणपुरा, अहमदाबाद ३८००१२, द्वारा निम्नलिखित ४ पुस्तकें ३१/१०/९६ को विद्यापीठ के पुस्तकालय के लिये प्राप्त हुई हैं। इनका नाम इस प्रकार है : दीर्घतपस्वी आचार्यप्रवर श्रीमद् रंगविमलसूरिश्वर जी जीवनप्रभा (गुजराती)। २. महान क्रियोद्धारक श्रीमद्आनन्दविमलसूरीश्वर जी महाराजनुं विशिष्ट जीवनचरित्र (गुजराती), लेखक-पन्यास श्री रंगविमल जी गणि के शिष्य मुनि कनकविमलजी। श्रीमद् पंन्यासप्रवर श्री मुक्तिविमल जी गणिवांसु संक्षिप्त जीवन चरित्र। ४. श्री रंगविमलसूरीश्वर जी महाराज, संक्षिप्त जीवनचरित्र, लेखक-आचार्य श्री कनकविमल सूरीश्वर जी महाराज। पार्श्वनाथ विद्यापीठ परिवार उक्त सहयोग के लिए आचार्य श्री के प्रति आभार प्रकट करता है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Our latest Publications 1. 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