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________________ स्थानाङ्ग एवं समवायाङ्ग में पुनरावृत्ति की समस्या : ४१ इसी प्रकार शरीर के चार और पाँच प्रकार, क्षुद्रप्राणी के द्वीन्द्रियादि चार और छः२५, जम्बूद्वीप में मेरुपर्वत के समीप चार और छ; अकर्मभूमियाँ,२६ संज्ञा के आहारादि चार और दस प्रकार२७, इन्द्रियों के श्रोत्रेन्द्रियादि पाँच और छ: विषय२८, ऋद्धियुक्त मनुष्यों के पाँच और छ: भेद२९, जम्बूद्वीप में मेरुपर्वत के समीप वर्षों की संख्या और वर्षधर पर्वतों की संख्या छः और सात बतायी गयी है।३१ समस्त जीवों के आभिनिबोधिकादि छ: और आठ प्रकार२२, पृथ्वीकायिक की अप्कायिकादि में गति-आगति छ: और नौ प्रकार की है।३३ दर्शन परिणाम के सम्यग्दर्शनादि,३४ योनिसंग्रह के अण्डजादि, ३५ अण्डज की गति-आगति,३६ एवं पृथ्वी के रत्नप्रभादि, सात और आठ प्रकार के वर्णित हैं।२७ सुषमा के अकाल में वर्षादि न का होना३८ एवं दुषमा के अकालवर्षादि सात और दस लक्षण, जम्बूद्वीप में भारतवर्ष के अतीत उत्सर्पिणी२९ एवं आगामी उत्सर्पिणी में सात और दस कुलकर बताये गये हैं। 'आलोचना देने योग्य साध के आचारादि स्थान १, अपने दोषों की आलोचना करने योग्य साध के स्थानों४२, तण-वनस्पति के मूलादि अवयवों४३ और सूक्ष्मजीवों के प्राणसूक्ष्मादि भेदों की संख्या आठ और दस प्रतिपादित है। समवायांग में प्रयोग५ के तेरह और पन्द्रह भेद वर्णित हैं। इसीप्रकार कुछ विषय तीन स्थलों पर संगृहीत हैं जैसे उपघात के उद्गमोपघातादि,४६ विशोधि के उद्गमविशोधि७ आदि तीन, पाँच और दस प्रकार, तृणवनस्पति के अग्रबीजादि चार, पाँच और छ: प्रकार, जीव के पृथ्वीकायिक आदि, छ:, सात और नौ प्रकार,४८ लोकान्तिक विमान के सारस्वतादि लोकान्तिक देवों के सात, आठ और नौ प्रकार,४९ पृथ्वीकायिकादि विषयक संयम और असंयम* दोनों के सात, दस और सत्रह प्रकार वर्णित हैं।५१ कुछ तथ्य चार स्थलों पर संगृहीत हैं। जैसे लोकस्थिति की आकाश पर वायु आदि तीन, चार, छ: और आठ स्थितियाँ, संसार समापनक जीवों के चार, पाँच, सात और आठ प्रकार५२, संवर के श्रोतेन्द्रिय संवरादि५३ और असंवर* के श्रोत्रेन्द्रिय असंवरादि पाँच, छ:, आठ और दस प्रकार वर्णित हैं। ५४ प्रायश्चित्त के आलोचनादि तीन, छ:, आठ, नौ और दस भेद पाँच स्थलों पर वर्णित हैं। जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि पुद्गलों से सम्बन्धित विवरण सभी दस स्थानों के अन्त में संगृहीत है। इस प्रकार उक्त तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में पुनरावृत्ति के कारण ग्रन्थ की अनावश्यक वृद्धि पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि जिन तथ्यों का विवेचन लगभग ९० सूत्रों या सूत्रांशों में हो सकता था उनके लिए दो सौ से ऊपर लगभग २१० सूत्रों का प्रयोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525028
Book TitleSramana 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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