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अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता : २९
ऊँच-नीच, अमीर-गरीब के भेद-भाव निवास करते हैं। यह सत्य है कि समाज में विभिन्न विचारधारा के व्यक्ति रहते हैं। उनके रहन-सहन, खान-पान, बोल-चाल आदि अलग-अलग होते हैं, लेकिन इनका मतलब यह तो नहीं है कि मानव, मानव से अलग है। दोनों ही मनुष्य हैं, दोनों में मनुष्यता का वास है, फिर ये भेद-भाव कैसा ? मनुष्य- समुदाय का नाम ही तो समाज है। जमीन के टुकड़े को समाज नहीं कहते, मकानों का, ईंटों का या पत्थरों का ढेर भी समाज नहीं कहलाता और न ही गली-कूचे, दुकान या सड़क आदि का नाम समाज है। यदि हम इलाहाबाद का समाज या वाराणसी का समाज कहते हैं तो इसका अभिप्राय होता है इलाहाबाद या वाराणसी में रहने वाला मानव समुदाय । फिर एक जाति का दूसरी जाति के साथ, एक वर्ग का दूसरे वर्ग के साथ और एक मुहल्ले का दूसरे मुहल्ले के साथ घृणा और द्वेष क्यों ? एक प्रान्त का दूसरे प्रान्त से, एक देश का दूसरे देश से युद्ध क्यों ?
आज जातीयता कम करने का जितना ही प्रयास किया जा रहा है वह उतनी ही बढ़ती जा रही है। प्रायः यह सुनने में आता है कि यह ब्राह्मण वर्ग है, यह क्षत्रिय वर्ग है, यह वैश्य वर्ग है तो यह शूद्र वर्ग है। लोग अपना परिचय देते समय भी अपनी जाति का परिचय देने में भी नहीं चूकते। ब्राह्मण यह कहने में गौरव की अनुभूति करता है कि हम ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुए हैं इसलिए हम सर्वश्रेष्ठ हैं । किन्तु ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से निकल पड़े हों बल्कि आप जो चिन्तन और मनन करते हैं उसका प्रयोग मुख से कीजिए । अपनी पवित्र वाणी से मानव समाज को लाभान्वित कीजिए । क्षत्रिय वर्ग, जिसकी उत्पत्ति ब्रह्मा की भुजाओं से मानी जाती है, का यह अर्थ है कि क्षत्रिय वर्ग अपनी भुजाओं के बल पर निर्बलों की रक्षा करे। वैश्य वर्ग की उत्पत्ति इसलिए हुई कि वह कृषि के द्वारा जीवनोपयोगी वस्तुएँ उत्पन्न कर वाणिज्य के द्वारा उन्हें स्थानान्तरित करके सम्पूर्ण समाज को भोजन दे, शक्ति पहुँचाए, लोगों को जीवित रखे। किन्तु यह हमारे समाज का दुर्भाग्य है कि वैश्यवर्ग अपनी प्रतिष्ठा को सुरक्षित नहीं रख सका । अर्थ- पिपासा की लालसा ने उन्हें अन्धा बना दिया है। चौथा वर्ण शूद्र जिसकी उत्पत्ति ब्रह्मा के पैरों से मानी जाती है, आज घृणा एवं तिरस्कार का पात्र बन गया है। शूद्र या अछूत का नाम आते ही लोगों के नाक-भौं सिकुड़ने लगते हैं। ऐसा क्यों? सभी मनुष्य समान हैं। जैन धर्म की मान्यता है कि विश्व के जितने भी मनुष्य हैं, वे सभी मूलतः एक ही हैं। कोई भी जाति अथवा कोई भी वर्ग मनुष्य जाति की मौलिक एकता को भंग नहीं कर सकता। मनुष्य जाति में जो अलग-अलग वर्ग दिखलाई देते हैं; वस्तुतः कार्यों के भेद से या धन्धों के भेद से दिखलाई पड़ते हैं। जैन धर्म में स्पष्ट कहा गया है कि मनुष्य जन्म से ऊँचा या नीचा नहीं होता बल्कि कर्म से होता है। जैन मुनि हरिकेशबल जन्म से चाण्डाल कुल के थे जिसके कारण उन्हें चारों ओर से भर्त्सना और घृणा के सिवा कुछ न मिला। वे
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