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________________ २८ 40 श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर / १९९६ हो उठता है और समाज में प्रतीकों की ही प्रधानता देखी जाती है। आदर्श के निर्बल और प्रतीक के सबल हो जाने पर धर्मान्धता अपना प्रभाव जमाती है जो समाज के लिए अत्यन्त ही घातक सिद्ध होती है। इसका ज्वलन्त उदाहरण है— मन्दिर - मस्जिद विवाद | यहाँ राम और मुहम्मद के आदर्शों की बात कोई नहीं करता, परन्तु मन्दिर के घण्टे -घड़ियाल तथा मस्जिद के गुम्बद की चर्चा प्रायः सभी लोग करते हैं, जिसका नतीजा हम लोगों के सामने है। इन सारी समस्याओं का समाधान अनेकान्तवाद के पास है। उसके अनुसार महावीर भी हैं, राम भी हैं, मुहम्मद भी हैं, ईसा भी हैं, गुरुनानक भी हैं। एक ओर हम धर्म निरपेक्ष राष्ट्र की बात करते हैं, वहीं दूसरी ओर धर्मान्धता का परिचय देते हैं। राष्ट्र धर्म निरपेक्ष तो तब होगा जब सभी धर्मों को समान आदर प्राप्त होगा। सभी धर्मों को समानता का अधिकार तब मिलेगा जब हम भावात्मक एकता और सहिष्णुता की भावना को अपने अन्दर स्थान देंगे। भावात्मक एकता एवं सहिष्णुता की भावना से हम बड़े प्रेम एवं शान्ति के साथ रह सकते हैं। यदि इस भावना पर हम चलें, दूसरों के वक्तव्य में जो सत्य दबा पड़ा है, उसे स्वीकार करें, अपनी ही बात को सत्य मानकर उसे दूसरों पर दुराग्रहपूर्वक थोपने का दुष्प्रयास न करें तो सम्भवत: व्यावहारिक जीवन में सहिष्णुता जागृत होगी और रोज-रोज के अनेक संकट टाले जा सकेंगे। धर्म निरपेक्षता का सिद्धान्त भी इसी बात पर बल देता है कि मानव को अपनी-अपनी भावना के अनुकूल किसी भी धर्म के अनुपालन की स्वतन्त्रता है। किन्तु सुरसा के मुँह की तरह वर्तमान में फैल रही अशांति और समस्याएँ मानव की मानवता को निगलती जा रही हैं जिसके फलस्वरूप आए दिन होने वाले साम्प्रदायिक संघर्ष, कलह आदि उभर कर सामने आ रहे हैं। आखिर इन समस्याओं का समाधान क्या है ? समाधान यदि कोई है तो वह है- अनेकान्त का मार्ग । अनेकान्त ही एक ऐसा मूलमन्त्र है जो आज की सभी धार्मिक उलझनों को सुलझा सकता है। • सामाजिक सन्दर्भ में सामान्यतः समाज शब्द का विभिन्न अर्थों में प्रयोग है। यथा— मानव समाज, धर्मसेवा समाज, शिक्षक समाज, विद्यार्थी समाज, ब्राह्मण समाज आदि । मानव समाज प्राणियों के एक प्रकार को बताता है। धर्म सेवा समाज, शिक्षक समाज आदि से एक विशेष प्रकार के काम करने वालों का ज्ञान कराता है। इसी तरह ब्राह्मण समाज से एक विशेष वर्ग अथवा विशेष प्रकार की संस्कृति में पले हुए लोगों का बोध होता है । यद्यपि समाज शब्द में प्रस्तुत प्रयोग अलग-अलग अर्थों को इंगित करते हैं किन्तु इनसे इतना स्पष्ट होता है कि 'समाज' शब्द एक प्रकार से रहने वाले अथवा एक तरह का कार्य करने वाले लोगों के लिए व्यवहार में आता है । किन्तु आज समाज शब्द का अर्थ ही बदल गया है। आज का समाज वह समाज है जिसमें घृणा, द्वेष, छुआ-छूत, जाति-पांति, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525028
Book TitleSramana 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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