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________________ अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता : २७ करने से मनुष्य अपना तथा सम्पूर्ण विश्व का कल्याण कर सकता है। तात्पर्य यह है कि हमारा सम्पूर्ण जीवन ही धर्म है, सारा विश्व धर्म है। हम जो भी कर्म करते हैं, वे धर्म के अन्तर्गत आ जाते हैं। सब धर्म प्रगतिशील साधनों और अनुभवों से उत्पन्न एक विमल विभूति है जिसके आलिङ्गन से ही मानव उन्नति के पथ पर अग्रसर होने लगता है। धर्म का कार्य एकता, समानता, पुरुषार्थ आदि गुणों से मनुष्यों को दीक्षित करना है, न कि परस्पर विरोधी उपदेशों से समाज में भेद-भाव उत्पन्न करना, किन्तु आज आधिभौतिक सभ्यता की क्रूरता से जितना मन अशांत है उससे भी कहीं अधिक रूढ़ि और वासनाओं की पूजा ने मन को व्यथित कर रखा है। यह सत्य है कि जीवन की यात्रा अतीत को साथ लेकर ही तय की जा सकती है, उसका सर्वथा त्याग करके नहीं । अतीत जीवन को लेकर ही मनुष्य भविष्य की योजनाएँ निर्धारित करता है । किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि हम लौटकर अतीत में ही पहुँच जाएँ । अतीत तो भविष्य की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है। अतः मनुष्य का कल्याण इसी में है कि वह अतीत और वर्तमान के बीच समन्वय स्थापित कर सुन्दर भविष्य का निर्माण करे। जब तक हम प्राचीन आडम्बर एवं आचार-विचारों से चिपके रहेंगे तब तक हमारा वर्तमान भविष्य के निर्माण में समर्थ नहीं होगा। समाज में प्रचलित अंधविश्वासों की विभिन्न भावनाएँ न तो प्राचीन हैं और न अर्वाचीन, बल्कि इनकी जड़ तो समाज में धर्मगुरुओं के सम्प्रदाय व स्वार्थ की लोलुपता से फैली है। प्राचीनकाल में साम्प्रदायिक कट्टरता बहुत बलवती थी । इतिहास इस बात का साक्षी है कि भिन्न-भिन्न युगों में जिन समाजों में लोगों का ध्यान धर्म केन्द्रित रहा है और धर्म का लोगों के जीवन में आधिपत्य रहा है उनके सभी प्रकार के संघर्षों, नृशंसताओं, यंत्रणाओं आदि का मूल कारण केवल भ्रान्ति रही है। धर्म के ठेकेदारों के मस्तिष्क में यह बात घुस गयी कि केवल उन्हीं का धर्म, विश्वास एवं उपासना पद्धति एकमात्र सत्य है, और दूसरे का गलत । केवल वे ही ईमानदार हैं, शेष सभी 'विधर्मी' एवं 'काफिर' हैं। केवल उन्हीं की जीवनपद्धति मोक्षदायिनी है, केवल उन्हीं का ईश्वर सम्पूर्ण विश्व का ईश्वर है, अन्य लोगों के देवगण मिथ्या हैं अथवा उनके ईश्वर के अधीन हैं। इस प्रकार की बातों से मानव स्वभाव का इतिहास भरा पड़ा है। धर्मांधता के पीछे अनेक अमूल्य जाने गयीं, रक्त की नदियाँ बहायी गयीं तथा मानव जीवन को कष्टमय एवं दुःखमय बना दिया गया। आज पुनः वही स्थिति दृष्टिगोचर हो रही है। परस्पर सम्प्रदायों में राग-द्वेष की भावना, खण्डन-मण्डन की बहुलता, खून-खराबा, तीव्र संघर्ष की सम्भावना बहुत अधिक बलवती होती जा रही है। इसका मुख्य कारण है धर्म के यथार्थ स्वरूप को न समझना। सभी धर्मों के अपने मूल सिद्धान्त होते हैं, जिन्हें आदर्श रूप में जाना जाता है। साथ ही उनकी अभिव्यक्ति के लिए विभिन्न प्रतीक भी स्वीकृत होते हैं। यथा- मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा, जिनालय आदि। आदर्श जब पुराना हो जाता है तो प्रतीक प्रबल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525028
Book TitleSramana 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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