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________________ ३० : श्रमण / अक्टूबर-दिसम्बर / १९९६ जहाँ कहीं भी गए, वहाँ उन्हें अपमान रूप विष का प्याला ही मिला, लेकिन जब उन्होंने जीवन की पवित्रता का सही मार्ग अपना लिया तो वही वन्दनीय और पूजनीय हो गये । हिन्दू-मुसलमान का झगड़ा सदियों से चला आ रहा है और वर्तमान में भी विद्यमान है । सवाल होता है कि हिन्दू कौन है? मुसलमान कौन है ? क्या मनुष्य की भी कोई जाति होती है? मनुष्यों की कोई जाति नहीं होती । जिस प्रकार पानी की कोई जाति नहीं होती, उसी प्रकार मानव की भी कोई जाति नहीं होती, सभी एक समान हैं। मनुष्यों की दो जातियाँ हो ही नहीं सकतीं। फिर भी मन की संकीर्णतावश उसमें ऊँचता-नीचता खोजी जाती है। इस प्रगतिवादी युग में भी शक्तिशाली लोग अशक्तों एवं असमर्थों का शोषण उसी प्रकार कर रहे हैं जिस प्रकार छोटी मछली को बड़ी मछली निगल जाती है। इसका मुख्य कारण है- आर्थिक विषमता। आर्थिक विषमता मानो भारतीय समाज का अंग बन गयी है । पूँजीपति और मजदूर, धनी-मानी, खेत मालिक और खेतों में काम करने वाले गरीब लोग आज भी हैं। गरीबी हटाओ अभियान चलता आ रहा है, विभिन्न आंकड़े तैयार होते आ रहे हैं, किन्तु हल कुछ भी सामने नहीं आ रहा है, क्योंकि न्यायकर्त्ता जब न्याय करने बैठता है तो तराजूरूपी बुद्धि पर उसका अपना स्वार्थरूपी बाट होता है । अतः वह न्याय कैसे करेगा ? माना कि जीवन में बुराइयाँ होती हैं, भूलें होती हैं और उनका परिमार्जन भी किया जाता है, उन्हें सुधारने का प्रयास भी किया जाता है। यदि रोग है तो उसका उपचार भी होगा । बुराई के साथ संघर्ष करने का मनुष्य का अधिकार है। मानव ने इस संसार में एक महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व तथा कर्तव्य लेकर जन्म लिया है। अतः व्यक्ति को बुराइयों से संघर्ष करना ही पड़ेगा। बुराइयों से इस संघर्ष में अनेकान्तवाद से ज्यादा शक्तिशाली अन्य कोई अस्त्र नहीं होगा। सामाजिक विभिन्नताओं के बीच सामञ्जस्य एवं पारस्परिक स्नेह को कायम रखने में अनेकान्तवाद की अहम भूमिका होगी। राजनीतिक सन्दर्भ में आज के भारतीय समाज एवं प्रजातंत्र को देखने से यह कहावत चरितार्थ होती है — “बंदर के हाथ में नारियल" बंदर के हाथ में नारियल पड़ने से उसकी दुर्दशा होती है। नारियल टूटने का डर रहता है। वही स्थिति आज भारतीय समाज की है। भारतीय प्रजातंत्र को देखते हुए ऐसा ही प्रतीत होता है। प्रजातंत्र के प्रधानतः दो अंग होते हैंअधिकार और कर्तव्य । प्रजातंत्र का वहीं पर समुचित विकास होता है जहाँ लोग अधिकार के साथ-साथ अपना कर्तव्य भी समझते हैं। लेकिन हमारे भारतीय समाज का दुर्भाग्य यह है कि यहाँ के लोग अपने अधिकार तो समझते हैं, परन्तु अपने कर्तव्य को नहीं समझते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525028
Book TitleSramana 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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