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१८ :
श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६
राजा ने साश्चर्य मुद्रा में मन्त्री से कहा- तुम मजाक तो नहीं कर रहे हो। मन्त्री ने विनम्र भाव से कहा- नहीं, मैं मजाक नहीं कर रहा हूँ, जो कुछ भी कह रहा हूँ वह सत्य है। यह कहते हुए मन्त्री ने इस गन्दे पानी को साफ करने की प्रक्रिया भी बतायी। अब राजा को विश्वास हो गया कि संसार का हर पदार्थ अत्यन्त गुण सम्पन्न है। यही अनेकान्तवाद है। अनेकान्तवाद के मौलिक आधार
अनेकान्तवाद जैन दर्शन की आधारशिला है। जैन तत्त्वज्ञान का महल इसी अनेकान्त के सिद्धान्त पर टिका है। वस्तु के अनन्त धर्म होते हैं। इन अनन्त धर्मों में से व्यक्ति अपने इच्छित धर्मों का समय-समय पर कथन करता है। वस्तु के जितने धर्मों का कथन हो सकता है वे सब वस्तु के अन्दर होते हैं। व्यक्ति अपनी इच्छा से उन धर्मों का पदार्थ में आरोपण नहीं कर देता है। अनन्त या अनेक धर्मों के कारण ही वस्तु अनन्तधर्मात्मक कही जाती है। वस्तु के इन अनन्त धर्मों के दो प्रकार होते हैं- गुण और पर्याय। जो धर्म वस्तु के स्वरूप का निर्धारण करते हैं अर्थात् जिनके बिना वस्तु का अस्तित्व कायम नहीं रह सकता उन्हें गुण कहते हैं। यथा-मनुष्य में 'मनुष्यत्व', सोना में 'सोनापन'। मनुष्य में यदि 'मनुष्यत्व' न हो तो वह और कुछ हो सकता है, मनुष्य नहीं। वैसे ही यदि सोना में 'सोनापन' न हो तो वह अन्य कोई द्रव्य होगा, सोना नहीं। गुण वस्तु में स्थायी रूप से रहता है। वह कभी नष्ट नहीं होता और न बदलता ही है। क्योंकि उसके नष्ट हो जाने से वस्तु नष्ट हो जायेगी। गुण वस्तु का आन्तरिक धर्म होता है। जो धर्म वस्तु के बाह्याकृतियों अर्थात् रूप-रंग को निर्धारित करते हैं, जो बदलते रहते हैं, उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं, उन्हें पर्याय कहते हैं। जैसे- मनुष्य कभी बच्चा, कभी युवा और कभी बूढ़ा रहता है। गुण जो वस्तु में स्थायी रहता है जैसेमनुष्य बच्चा हो या बूढ़ा, स्त्री हो या पुरुष, मोटा हो या पतला, उसमें मनुष्यत्व रहेगा ही। किन्तु जब कोई व्यक्ति बालक से युवा होता है तो उसका बालपन नष्ट हो जाता है
और युवापन उत्पन्न होता है। ठीक इसी प्रकार सोना कभी अंगूठी, कभी माला, कभी कर्णफूल के रूप में देखा जाता है जिसमें सोना का अंगूठी वाला रूप नष्ट होता है तो माला का रूप बनता है, माला का रूप जब नष्ट होता है तो कर्णफूल का रूप बनता है। ये बदलने वाले धर्म हमेशा उत्पन्न एवं नष्ट होते रहते हैं और गुण स्थिर रहता है। अत: जगत् के सभी पदार्थ उत्पत्ति, स्थिति और विनाश इन तीन धर्मों से युक्त होते हैं। एक ही साथ एक ही वस्तु में तीनों धर्मों को देखा जा सकता है। मिशाल के तौर पर, एक स्वर्णकार स्वर्णकलश तोड़कर मुकुट बना रहा है। उसके पास तीन ग्राहक पहुँचते हैं। जिनमें से एक को स्वर्ण घट चाहिए, दूसरे को स्वर्ण मुकुट चाहिए और तीसरे को केवल सोना। लेकिन स्वर्णकार की प्रवृत्ति देखकर पहले ग्राहक को दुःख होता है, दूसरे को हर्ष और तीसरे को न तो दुःख ही होता है और न ही हर्ष अर्थात् वह मध्यस्थ भाव
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