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अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता
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अत: निश्चय नय से वस्तु के वास्तविक स्वरूप का परिज्ञान होता है और व्यवहार नय से बाह्य स्वरूप का। इस तरह वस्तु के अनन्त धर्म होते हैं। इसलिए किसी भी वस्तु के एक धर्म को सर्वथा सत्य मान लेना और दूसरे धर्म को सर्वथा मिथ्या कहना दोषयुक्त है। ऐसा कहना वस्तु-पूर्णता को खंडित करना है। परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले धर्म एक-दूसरे के विरोधी अवश्य हैं, परन्तु सम्पूर्ण वस्तु के विरोधी नहीं हैं। वस्तु में दोनों समान रूप से आश्रित होते हैं।
दुनियाँ का कोई भी पदार्थ या कोई भी व्यक्ति अपने आप में भला या बुरा नहीं होता है। बदमाश, गुण्डा या दुराचारी मनुष्य का अन्तरात्मा भी अनन्त-अनन्त गुणों से युक्त होता है क्योंकि प्रत्येक आत्मा अनन्त-अनन्त गुणों से युक्त है। दुनियाँ में जड़ पदार्थ भी अनन्त है। सत्य भी अनन्त है। असत्य भी अनन्त है। धर्म भी अनन्त है और अधर्म भी अनन्त है। प्रकाश भी अनन्त है और अंधकार भी अनन्त है। एक छोटा सा जलकण भी अनन्त गुणसम्पन्न है और महासागर भी अनन्त गुणसम्पन्न है। उपाध्याय अमरमुनिजी ने वस्तु की अनन्तधर्मता को एक लघु कथा के माध्यम से बड़े ही सरल एवं सहज ढंग से प्रस्तुत किया है- एक राजा अपने नगर के आस-पास पर्यटन कर रहा था। साथ में मन्त्री भी था। घूमते-घूमते दोनों उस ओर निकल पड़े जिस ओर शहर का गंदा पानी एक खाई में भरा हुआ था, सड़ रहा था, कीड़े बिल-बिला रहे थे। उसे देखते ही राजा का मन ग्लानि से भर गया। वह नाक-भौं सिकोड़ने लगा। पास ही खड़े राजा के सुबुद्धि नामक मंत्री ने कहा_ “महाराज इस जलराशि से घृणा क्यों कर रहे हैं? यह तो पदार्थों का स्वभाव है कि वे प्रतिक्षण बदलते रहते हैं। जिनसे आज आप घृणा कर रहे हैं, वे ही पदार्थ एक दिन मनोमुग्धकारी भी बन सकते हैं।" इस तरह बातचीत करते हुए दोनों राजभवन में लौट आये और अपने-अपने कार्य में लग गए।
कुछ दिनों के उपरान्त राजा के मन्त्री सुबुद्धि ने राजा के सम्मान में एक भोज का आयोजन किया। अपने घर बुलाकर सुन्दर एवं स्वादिष्ट भोजन कराया और पात्र में पीने के लिए पानी दिया। वह पानी इतना स्वादिष्ट एवं सरस था कि राजा पानी पीता ही गया, फिर भी उसके मन में पानी पीने की लालसा बनी रही। अंतत: राजा ने मन्त्री से पूछा"तुमने मुझे आज जो पानी पिलाया, ऐसा स्वच्छ, सुवासित एवं स्वादिष्ट जल मैंने आज तक नहीं पिया। तुमने यह जल किस कुएँ से मंगवाया था, मुझे भी बताओ? मंत्री ने कहा- राजन् यह पानी तो सर्वत्र सुलभ है। यही निकट जलाशय से मँगवाया है। महाराज ने जब जलाशय का नाम बताने का आग्रह किया तो मन्त्री ने कहा- महाराज यह मधुर एवं सुवासित जल उसी गंदी खाई का है जिसकी दुर्गन्ध से आप व्याकुल हो गये थे और नाक को बन्द कर लिया था।११
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