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श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६
में नवजीवन का सञ्चार करने वाला समझता है। प्रत्येक दल या गुट यह समझता है कि केवल उसके अनुयायी और सदस्य ही देश के प्रशासनिक पदों के योग्य हैं। उसमें इतना धैर्य नहीं कि वह दूसरे दलों के सुझावों एवं गुणों को देख सके। यह एक घातक प्रवृत्ति है। प्रत्येक व्यक्ति यह सोचता है कि वही एकमात्र ऐसा व्यक्ति है जिसके लिए सम्पूर्ण विश्व की सत्ता है और दूसरे लोग उसकी दयालुता, सहानुभूति, स्नेहशीलता आदि के पात्र हैं। लेकिन संघर्ष का कारण यह है कि विश्व में अनगिनत दूसरे लोग भी हैं जो उसी विश्वास और दावे की इच्छा रखते हैं। यहीं से संघर्ष का सूत्रपात होता है।
यदि हम सब इस एकान्तवाद के दुष्परिणाम का अनुभव कर सकें और "भी' का प्रयोग कर सकें तथा यह समझें कि प्रत्येक को दूसरों की इच्छाओं, आशाओं और आकांक्षाओं की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, दूसरों के गुणों को खोजना, पहचानना और सराहना चाहिए तथा उनके साथ मित्रता और शान्तिपूर्वक रहना चाहिए, तो विश्व आज जिस रूप में दिखाई दे रहा है, उससे बिल्कुल भिन्न होगा। अनेकान्त की छाया में विकसित सह-अस्तित्व का सिद्धान्त ही विश्व शान्ति का सबसे सुगम एवं श्रेष्ठ उपाय है। सन्दर्भ१. अनेकश्चासो अन्तश्च इति अनेकान्तः। रत्नाकरावतारिका, संपा०पं० दलसुख भाई
मालवणिया, लालभाई दलपत भाई ग्रन्थमाला-१६, अहमदाबाद १९६८, पृष्ठ-८९। अनेके अन्ता धर्माः सामान्यविशेषपर्याया: गुणाः यस्येति सिद्धोऽनेकान्तः । न्यायदीपिका, सम्पा०पं० दरबारीलाल कोठिया, वीर सेवा मंदिर ग्रंथमाला-४, सहारनपुर १९४५, अ० ३, श्लो० ७६। यदेव तत्तदेवातत्, यदेवैकं तदेवानेकं, यदेव सत्तदेवासत्, यदेव नित्यं तदेवानित्यसित्येकवस्तुनि वस्तुत्वनिष्पादपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः । समयसार टीका (अमृतचन्द्र) उद्धृत-डॉ० सागरमल जैन, अनेकान्तवाद, स्याद्वाद
और सप्तभंगी-एक चिन्तन, पार्श्वनाथ विद्याश्रम ग्रंथमाला-५२, वाराणसी
१९९०, पृष्ठ-८। ४. चिन्तन की मनोभूमि, संपा०-डॉ०बी०एन०सिन्हा, आगरा, १९७०, पृष्ठ-१०६। ५. ऋग्वेद, दयानन्द सरस्वती, दयानन्द संस्थान, नई दिल्ली, म० १०अ०९१सू०१४। ६. वही, १/३२/१५ तथा बृहदारण्यकोपनिषद्, संपा०, काशीनाथ आगाशे,
आनन्दाश्रम संस्कृत ग्रन्थावली ग्रंथांक-१५, अ०२, ब्रा०५ श्लो०१५। ७. एगं च णं महं चित्तविचित्तपक्खगं पुंसकोइलगं सुविणे पसित्ता णं पडिबुद्धे .....
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