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श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६
प्रकार के आचरण के लिए प्रेरित करता है और द्वन्द्व में उपस्थित इस उद्वेग का स्वरूप सामान्यत: नकारात्मक ही होता है। अत: द्वन्द्व के निराकरण के लिए इन नकारात्मक उद्वेगों को समाप्त करना अत्यन्त आवश्यक है। जैन दर्शन में न केवल ऐसे चार उग्र उद्वेगों (कषायों) का वर्णन किया गया है बल्कि उनसे मुक्ति के लिए कषायों की विपरीत भावनाओं को विकसित करने के लिए भी कहा गया है।
द्वन्द्व के प्रकार
द्वन्द्व का यदि हम क्षेत्रानुसार वर्गीकरण करें तो इसे कई स्तरों पर समझा जा सकता है।
आन्तरवैयक्तिक द्वन्द्व मानसिक या मनोवैज्ञानिक द्वन्द्व है। इस प्रकार के द्वन्द्व को व्यक्ति अपनी दो परस्पर विरोधी या असंगत इच्छाओं/वृत्तियों के बीच अनुभव करता है। उदाहरण के लिए जब व्यक्ति अपनी किसी इच्छा की सन्तुष्टि चाहता है और इतर कारणों से यदि इसे सन्तुष्ट नहीं कर पाता तो वह ऐसे ही द्वन्द्व में फँसता है। 'चाहूँ' या 'न चाहूँ' का यह द्वन्द्व उसे नकारात्मक भावों से भर देता है। इस प्रकार मानसिक या मनोवैज्ञानिक द्वन्द्व विपरीत कामनाओं का और उनकी सन्तुष्टि-असन्तुष्टि का द्वन्द्व है।
लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, निन्दा-प्रशंसा, मान-अपमान आदि भावनाओं से सम्बन्धित द्वन्द्व, जिनका जैन दार्शनिक साहित्य में यथेष्ठ उल्लेख हुआ है- इसी प्रकार के मानसिक द्वन्द्वों की ओर संकेत है। इस प्रकार के द्वन्द्व में व्यक्ति आन्तरिक रूप से टूट जाता है और समझ नहीं पाता कि वह क्या करे।
आन्तरवैयक्तिक द्वन्द्व, व्यक्ति और व्यक्ति के बीच निर्मित होने वाले द्वन्द्व हैं। इस प्रकार के द्वन्द्व में दो व्यक्तियों के बीच अपने-अपने वास्तविक या कल्पित हित को लेकर विरोध होता है। इसमें एक व्यक्ति का हित दूसरे के अहित के रूप में देखा जाता है।
सामुदायिक द्वन्द्व, व्यक्ति और समूह (समुदायों) के बीच का द्वन्द्व है। आन्तरसामुदायिक द्वन्द्व, दो समूहों (समुदायों) के बीच की द्वन्द्व है। संगठनात्मक द्वन्द्व, व्यक्ति और जिस संगठन में वह कार्य करता है उसके बीच का संघर्ष है। आन्तरसंगठनात्मक द्वन्द्व, दो संगठनों के बीच का द्वन्द्व है। साम्प्रदायिक द्वन्द्व, दो सम्प्रदायों के बीच का द्वन्द्व है। ज़ाहिर है द्वन्द्व के उपरोक्त सभी स्तर (प्ररूप) दो पक्षों के विपरीत हित-अहित के विरोध से उत्पन्न द्वन्द्व है।
जैन दार्शनिक साहित्य में हमें द्वन्द्व के इन सभी स्तरों का क्रमिक विवेचन नहीं मिलता। लेकिन यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि जैनदर्शन द्वन्द्व के इन सभी प्ररूपों में आन्तरवैयक्तिक Jain Education International For Private & Personal Use Only
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