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________________ श्रमण द्वन्द्व और द्वन्द्व निवारण (जैन दर्शन के विशेष प्रसंग में) - द्वन्द्व का अर्थ और स्वरूप आधुनिक मनोविज्ञान और समाज शास्त्र में द्वन्द्व (कंफ्लिक्ट) एक बहुत महत्त्वपूर्ण अवधारणा है किन्तु द्वन्द्व का स्वरूप, उसका स्तर और प्रारूप तथा द्वन्द्व का निराकरण आज भी बहुत कुछ एक समस्या बना हुआ है। प्रत्येक शास्त्र ने द्वन्द्व को अपनी-अपनी दृष्टि से देखा है। मनोविज्ञान जहाँ द्वन्द्व को मूलतः दो वृत्तियों के बीच संघर्ष की स्थिति के रूप में स्वीकार करता है, वहीं समाजशास्त्र द्वन्द्व में निहित दो पक्षों के बीच 'विरोध' पर बल देता है। राजनीति में द्वन्द्व को सशस्त्र युद्ध या / और शीत युद्ध के रूप में देखा गया है। डॉ॰ सुरेन्द्र वर्मा * फादर कामिल बुल्के ने अंग्रेजी - हिन्दी कोश' में 'कंफ्लिक्ट' के तीन अर्थ दिये हैं- युद्ध, संघर्ष या द्वन्द्व तथा विरोध । यह स्पष्ट है कि आज राजनीतिशास्त्र, मनोविज्ञान तथा समाजशास्त्र ने मोटे तौर पर इन तीनों ही अर्थों को क्रमशः स्वीकार कर लिया है। Jain Education International क्या प्राचीन भारतीय दर्शन में हमें द्वन्द्व की अवधारणा मिलती है ? हम इस प्रश्न को विशेषकर जैनदर्शन के प्रसंग में देखना चाहेंगे। महावीर की शिक्षाएँ हमें मुख्यत: प्राकृत भाषा में उपलब्ध हैं। प्राकृत में द्वन्द्व को 'दंद' कहा गया है। प्राकृत-हिन्दी कोश में दंद का एक अर्थ तो व्याकरण- प्रसिद्ध उभय पद- प्रधान समास से है। किन्तु स्पष्ट ही यह अर्थ हमारी द्वन्द्व-चर्चा में अप्रासंगिक है। अन्य अर्थ हैं - १. परस्पर विरुद्ध शीत - उष्ण, सुख-दुःख, आदि युग्म; २. कलह, क्लेश; और ३. युद्ध । समणसुत्तं के अन्त में जोड़े गए पारिभाषिक शब्द कोश में भी द्वन्द्व को इष्ट-अनिष्ट, दुःख-सुख, जन्म-मरण, संयोग-वियोग आदि परस्पर विरोधी युगल-भाव द्वारा परिभाषित किया गया है। *. प्रोफेसर - पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525028
Book TitleSramana 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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