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२ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६
उपर्युक्त अर्थों के विश्लेषण से द्वन्द्व के दो रूप स्पष्ट होते हैं। एक तो द्वन्द्र, युद्ध (या कहें, 'द्वन्द्व-युद्ध') के अर्थ में प्रयुक्त होता है और दूसरे, वह परस्पर विरोधी युगल भावों को अभिव्यक्ति देता है।
दो विरोधी व्यक्तियों या दलों के बीच पूर्वनिश्चित या जाने माने नियमों के अनुसार प्रचलित शस्त्रों द्वारा युद्ध को द्वन्द्व (या द्वन्द्व-युद्ध) कहते हैं। ऐसे युद्ध प्राचीन काल में बहत से देशों में प्रचलित थे। भारत में वैदिक काल में भी द्वन्द्व युद्धों का प्रचलन मिलता है। उत्तर वैदिक काल में इनके सम्बन्ध में नये नियम बनाकर पूर्व प्रचलित प्रथा में सुधार किया गया। रामायण और महाभारत में द्वन्द्व-युद्धों के अनेक उल्लेख हैं। राम-रावण, बालि-सुग्रीव तथा दुर्योधन-भीम के युद्ध इसके उदाहरण हैं। जो बातें अन्य प्रकार से नहीं सुलझाई जा सकती थीं, उनके निर्णय के लिए यह नीति अपनाई जाती थी। इसके मूल में यह विश्वास था कि इन युद्धों में ईश्वर उसी को जिताता है जिसके पक्ष में न्याय होता है।
द्वन्द्व-युद्धों का युग अब समाप्त हो चुका है। अब दो पक्षों (व्यक्ति नहीं) के बीच शस्त्र या शीत-युद्ध होते/चलते हैं।
युद्ध के अतिरिक्त 'द्वन्द्व' परस्पर विरोधी युगल भावों को अभिव्यक्ति देता है। 'द्वन्द्र' के इस अर्थ में कई बातें निहित हैं
१.द्वन्द्व बिना 'युग्म' के सम्भव नहीं है। शीत-उष्ण, सुख-दुःख, इष्ट-अनिष्ट, संयोग-वियोग, ऐसे ही युगल भाव हैं जो द्वन्द्व के लिए अनिवार्य हैं। ये युग्म विभिन्न क्षेत्रों से उठाए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए 'शीत-उष्ण' भौतिक परिवेश सम्बन्धी युग्म है जबकि संयोग-वियोग का क्षेत्र सामाजिक है। इष्ट-अनिष्ट, सुख-दु:ख आदि व्यक्ति की मनोदशाओं से सम्बन्धित हैं। जैनदर्शन में मनोवैज्ञानिक या आन्तरवैयक्तिक युग्मों का विशेषकर उल्लेख हुआ है। उदाहरण के लिए एक गाथा लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा और मान-अपमान के प्रति समानभाव विकसित करने के लिए कहती है।
२.युग्म में विरोधी-भाव होना आवश्यक है। जिस युग्म में विरोधी-भाव नहीं होता, वह द्वन्द्व की स्थिति का निर्माण नहीं कर सकता। ऐसे तमाम युग्म गिनाए जा सकते हैं जो एक -दूसरे के पूरक होते हैं, विरोधी नहीं। ऐसे 'युग्म' द्वन्द्व को जन्म नहीं देते। द्वन्द्व के लिए युग्म का एक दूसरे का पूरक होना अनावश्यक है। उनका परस्पर विरोध में होना जरूरी है। सुख और शान्ति का युग्म एक दूसरे का विरोधी नहीं है, अत: इसमें द्वन्द्व असम्भव है। जैनदर्शन में कई स्थलों पर 'सुख और शान्ति' जैसे युग्मों का उल्लेख हुआ है लेकिन उन्हें कभी द्वन्द्वात्मक स्थिति में प्रदर्शित नहीं किया गया है क्योंकि वे एक दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं।
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