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________________ १० : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ भावों—प्रीति, विनय, मैत्री आदि को- जो द्वन्द्व निराकरण में सहयोगी हो सकते हैंनष्ट कर देते हैं। कषायों पर विजय प्राप्त करना इसीलिए बहुत आवश्यक है। इन पर विजय किस प्रकार प्राप्त की जाए। आगम कहता है कि हम क्रोध का हनन क्षमा से करें, मार्दव से मान को जीतें, आर्जव से माया को और सन्तोष से लोभ को जीतें।१७ तात्पर्य यह है कि यदि हम कषायों पर विजय प्राप्त करना चाहते हैं तो यह आवश्यक है कि हम उन भावनाओं को, जागरूक होकर, अपने में विकसित करें जो कषायों का हनन करती हैं। इस प्रसंग में यहाँ जैनदर्शन की तुलना यदि योगदर्शन से की जाए तो वह दिलचस्प हो सकती है। जैनदर्शन के अनुसार कषायों पर-अर्थात् नकारात्मक आवेगों पर विजय प्राप्त करने के लिए हमें सृजनात्मक भावनाओं पर ध्यान देना चाहिए और उन्हें विकसित करना चाहिए। इस प्रकार यदि हम क्षमा, मार्दव, आर्जव और सन्तोष जैसे चारित्रिक गुणों का विकास करेंगे तो क्रमश: क्रोध, मान, माया और लोभ पर स्वत: विजय प्राप्त कर सकते हैं। इसके ठीक विपरीत योगदर्शन चारित्रिक गुणों के विकास के लिए उनकी प्रतिपक्ष भावनाओं पर ध्यान देने के लिए कहता है जो मनुष्य के लिए दुःख का कारण बनती हैं। यदि हम उन प्रतिपक्षी भावनाओं पर दु:ख के कारकों के रूप में ध्यान दें तो हम स्वत: चारित्रिक गुणों का विकास कर सकते हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि चारित्रिक गणों के विकास के लिए दोनों दर्शनों में भिन्न वृत्तियाँ अपनाई गई हैं। जैनदर्शन जबकि एक स्वीकारात्मक दृष्टिकोण को अपनाकर सर्जनात्मक भावनाओं के विकास पर बल देता है ताकि कषायों का हनन किया जा सके। योगदर्शन प्रतिपक्षी भावनाओं पर ध्यान देने के लिए प्रेरित करता है ताकि उनके दुःखद परिणामों को जानकर हम उनसे बाज आ सकें और सद्गुणों का विकास कर सकें। जो भी हो, भाव-शुद्धि आवश्यक है क्योंकि मान, माया, लोभ और क्रोध की उद्दाम भावनाएं द्वन्द्व की स्थिति को न केवल प्रश्रय देती हैं बल्कि बद से बदतर भी बनाती हैं। स्वयं को इन कषायों से मुक्त करने के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने में इनके विपरीत मधुर भावों को-मार्दव, आर्जव, सन्तोष और क्षमा को विकसित करें। मार्दव का अर्थ है, कुल, रूप, जाति, ज्ञान, तप, श्रुत और शील का व्यक्ति तनिक भी गर्व न करे। अपने अभिमान में मनुष्य दूसरों को अपमानित करता है और द्वन्द्व-स्थिति में दूसरे पक्ष को अपमानित करना बड़ा आसान होता है। इससे बचने के लिए मार्दव का विकास होना चाहिए। आर्जव कुटिल विचार, कुटिल वचन से अपने को बचाए रखना है। १९ सन्तोष लोभ को समाप्त करता है। जब सन्तोष होगा तो लोभ के लिए कोई स्थान रहेगा ही नहीं। क्षमा वस्तुत: मैत्री भाव का विकास है। यदि आपमें मैत्री भाव नहीं है तो आप क्षमा भी नहीं कर सकते। भले ही दूसरे का व्यवहार आपके दृष्टिकोण से कितना ही गलत क्यों न हो, किन्तु यदि आप उससे मैत्री बनाए रखते हैं और उसे क्षमा दे सकते हैं तो देर-सबेर वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525028
Book TitleSramana 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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