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________________ द्वन्द्व और द्वन्द्व निवारण (जैन-दर्शन के विशेष प्रसंग में) : ७ सापेक्ष माना है, किसी एक दृष्टि या सीमा के अधीन है और किसी भी तरह निरपेक्ष नहीं हैं। ऐसा कोई कथन नहीं है जो पूर्णत: सत्य या पूर्णत: मिथ्या हो। सभी कथन एक दृष्टि से सत्य हैं तो दूसरी दृष्टि से मिथ्या हैं। इस प्रकार अनेकान्तवाद हमें स्याद्वाद की ओर स्वत: ले जाता है। यदि वस्तुस्थिति वास्तव में अनेकांतिक है तो यह आवश्यक है कि हम वस्तु से सम्बन्धित अपने कथन में 'स्यात् ' शब्द जोड़ दें। वस्तुओं की अनन्त जटिलता के कारण कुछ भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। बेशक इसका यह अर्थ नहीं है कि हम कोई कथन कर ही नहीं सकते। हाँ, निरपेक्ष या एकान्तिक कथन असम्भव है। वस्तु का गत्यात्मक चरित्र हमें केवल सापेक्षिक या सोपाधिक कथन करने के लिए ही बाध्य करता है। __ जैन दर्शनिकों ने अपने इस सिद्धान्त को उस हाथी के द्वारा समझाना चाहा है जिसके बारे में कई अन्धे व्यक्ति अपना-अपना कथन कर रहे होते हैं और वे अलग-अलग निष्कर्षों पर पहुंचते हैं। उनमें से हर कोई हाथी का अपने सीमित अनुभव द्वारा, ज्ञान प्राप्त कर पाता है। हर कोई हाथी के किसी एक हिस्से को छूता है और तदनुसार उसका वर्णन करता है जो उसका कान पकड़ लेता है वह हाथी को 'सूप' की तरह बताता है। जो उसके पैर पकड़ता है, वह उसे खम्भे की तरह बताता है, इत्यादि। सच यह है कि हाथी को अपनी सम्पूर्णता में किसी ने भी नहीं देखा है। हरेक ने केवल उसके किसी एक ही अङ्ग का स्पर्श किया है। इसलिए वस्तुत: कोई नहीं कह सकता कि सम्पूर्ण हाथी कैसा है। अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है 'हो सकता है हाथी सूप की तरह हो', अथवा हो सकता है वह खम्भे की तरह हो। ____ हो सकता है'; 'कदाचित् ', 'स्यात्', ये वे शब्द हैं जो बार-बार हमें याद दिलाते हैं कि हम यथार्थ को केवल आंशिक रूप से ही जान पाते हैं। स्याद्वाद इस प्रकार हमें अपने निर्णयों में अत्यन्त सावधानी के लिए आमन्त्रित करता है। वह वास्तविकता को परिभाषित करते समय हमें सभी प्रकार के मताग्रहों से बचने के लिए सावधान करता है। जैनदर्शन में स्याद्वाद के साथ दार्शनिक सूक्ष्मता और सुकुमारता मानों अपने चरम पर पहुँच जाती है। द्वन्द्व की स्थिति में प्रत्येक पक्ष एकान्तिक दृष्टिकोण अपनाता है और यही उसके निराकरण में सबसे बड़ी कठिनाई है। जब तक हम एकांतिक दृष्टि को अपनाये रहेंगे और दूसरे पक्ष के दृष्टिकोण को अनदेखा करते रहेंगे, हम द्वन्द्व को समाप्त करने की बात सोच ही नहीं सकते। इसलिए जैनदर्शन हमें सर्वप्रथम उस वैचारिक-मानसिक गठन को विकसित करने के लिए आमन्त्रित करता है जो अनेकान्त और स्याद्वाद की धारणाओं के अनुरूप हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525028
Book TitleSramana 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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