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________________ ६ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ ऐसे अवसर के रूप में देखा जा सकता है जो व्यक्ति/समाज के विकास और सृजनात्मकता के लिए सहायक है। द्वन्द्व व्यक्ति को कर्म के लिए प्रेरित करने वाला एक तत्त्व बन सकता है। ११ लेकिन, क्योंकि जैनों का समस्त दर्शन कर्म के क्षय पर टिका है इसलिए कर्म को प्रेरित करने वाले तत्त्व जैनदर्शन में शुभ नहीं माने जा सकते। द्वन्द्व इस प्रकार यदि कर्म को प्रेरित करता भी है तो भी शुभ नहीं है और यदि नकारात्मक उद्वेगों को सक्रिय करता है तो ऐसे में वह अशुभ ही है। अत: जैनदर्शन कुल मिलाकर विरोधी द्वन्द्व भावों से व्यक्ति को ऊपर उठ जाने के लिए प्रेरित करता है। वह द्वन्द्व-भावों के अतिक्रमण को ही श्रेष्ठ मानता है। किन्तु द्वन्द्व का यह अतिक्रमण कैसे किया जाए। इसके लिए कई (प्रविधियाँ) हो सकती हैं। किन्तु इन प्रविधियों का उपयोग मनुष्य तभी कर सकता है जब वह एक ऐसे उदार मनोगठन को स्वीकार करे जिसमें पक्षधरता न हो। द्वन्द्व में सदैव दो पक्ष होते हैं और हर पक्ष अपने विरोधी पक्ष को नकारता है, परपक्ष दृष्टि से वह द्वन्द्व की स्थिति को 'देख' ही नहीं पाता। एकांगी दृष्टि अपनाकर वह दूसरे पक्ष की दृष्टि को पूरी तरह ख़ारिज कर देता है। परन्तु जैनदर्शन का वैचारिक-गठन एकांगी नहीं है। वह अनेक आयामी है। जैनदर्शन मानता है कि हर वस्तु के अनन्त गुण होते हैं-अनन्तधर्मकं वस्तु'। सत्ता बहुरूपधारी है। आम तौर पर हर वस्तु को धर्मों (गुणों) के दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है। ये हैं, स्वपर्याय और परपर्याय। स्वपर्याय किसी भी वस्तु के वे गुण हैं जो उसके अपने स्वरूप के परिचायक हैं। ये भावात्मक धर्म हैं। परपर्याय वस्तु के अपने गुण न होकर दूसरी वस्तु के गुण होते हैं जिनसे किसी वस्तु की भित्रता को रेखांकित किया जाता है। हम मनुष्य का ही उदाहरण लें। उसका आकार, रूप, रंग, कुल, गोत्र, जाति, व्यवसाय, जन्मस्थान, निवासस्थान, जन्मदिन, आय, स्वास्थ्य आदि उसके भावात्मक धर्म हैं। इनसे उस व्यक्ति विशेष का परिचय और उसकी पहचान मिलती है। किन्तु किसी मनुष्य को पूर्णरूप से जानने के लिए यह भी जानना होगा कि वह क्या नहीं है। अन्य वस्तुओं और अन्य मनुष्यों से उसकी भिन्नता में भी उसे समझना होगा। ये उसके अभावात्मक लक्षण (पर पर्याय) होंगे। अत: एक वस्तु के बारे में अनन्त गणों और दृष्टिकोणों को लेकर अनन्त कथन किये जा सकते है। इस प्रकार किसी भी विषय के बारे में कोई भी कथन एकान्तिक या निरपेक्ष नहीं हो सकता। सारे कथन कुछ विशिष्ट स्थितियों और सीमाओं के अधीन होते हैं। अत: एक ही वस्तु के बारे में, जो दो भित्र दृष्टिकोणों से कथन किए जाते हैं वे एक दूसरे के विपरीत भी हो सकते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रत्येक कथन का सत्य सापेक्षिक है। यदि सही रूप से देखना है तो, जैन दर्शन के अनुसार, हमें प्रत्येक कथन के पहले 'स्यात्' अथवा 'कदाचित्' लगा देना चाहिए। इससे यह सङ्केतित हो सकेगा कि यह कथन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525028
Book TitleSramana 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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