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________________ अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता : २३ मनुष्यत्व के बिना किसी मनुष्य विशेष का बोध नहीं हो सकता और मनुष्य विशेष के बिना मनुष्यत्व (सामान्य) कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। अत: सामान्य और विशेष दोनों ही सापेक्ष हैं, एक दूसरे पर आधारित हैं। इस तरह सामान्य और विशेष दोनों सापेक्षतः देखे जाते हैं। यही जैन दर्शन का अनेकान्तभाव है। अस्ति और नास्ति अस्ति-नास्ति दो एकान्तवादी पक्ष हैं। एक पक्ष कहता है कि सर्व अस्ति तो दूसरा पक्ष कहता है कि सर्व नास्ति। इस तरह दोनों पक्षों में संघर्ष होता है, क्योंकि दोनों ही एकान्तवादी हैं। अनेकान्तवाद ही सही अर्थों में इस संघर्ष का एक मात्र समाधान है। भगवान् महावीर ने सर्व अस्ति एवं सर्व नास्ति दोनों पक्षों का अनेकान्त द्वारा समर्थन किया है। उन्होंने कहा है कि जो अस्ति है, वही नास्ति है। 'भगवतीसूत्र' में२५ कहा गया है- हम जो अस्ति है उसे अस्ति कहते हैं, जो नास्ति है, उसे नास्ति कहते हैं। प्रत्येक पदार्थ है भी और नहीं भी है। अपने निज स्वरूप से है और परस्वरूप से नहीं। अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता, पितारूप में सत है और पर रूप की अपेक्षा से पिता, पितारूप में असत् है। यदि पर-पुत्र की अपेक्षा से पिता ही है तो वह सारे संसार का पिता हो जायेगा, जो असम्भव है। इसे और भी सरल भाषा में हम इस तरह कह सकते हैं- गुड़िया चौराहे पर खड़ी है। एक ओर से छोटा बालक आता है, वह उसे माँ कहता है। दूसरी ओर से एक वृद्ध आता है, वह उसे पुत्री कहता है। तीसरी ओर से एक युवक आता है, वह उसे पत्नी कहता है। इसी तरह कोई ताई, कोई मामी, तो कोई फूफी और कोई दीदी कहता है। सभी एक ही व्यक्ति को विभिन्न नामों से सम्बोधित करते हैं तथा परस्पर संघर्ष करते हैं कि यह तो माँ ही है, पुत्री ही है, पत्नी ही है, दीदी ही है आदि.....। अब प्रश्न उठता है कि आखिर गुड़िया है क्या? इस समस्या का समाधान एक ही है और वह हैअनेकान्तवाद। अनेकान्तवाद का कहना है कि यह तुम्हारे लिए माँ है क्योंकि तुम इसके पुत्र हो पर अन्य लोगों के लिए यह माँ नहीं है। वृद्ध से कहता है कि यह पुत्री भी है, आपकी अपनी अपेक्षा से, सब लोगों की अपेक्षा से नहीं। येन-प्रकारेण अपनी-अपनी अपेक्षा से ताई, मामी, दीदी आदि सब कुछ है। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रत्येक वस्तु के दो पहलू हैं-है भी, नहीं भी। दर्शन की भाषा में यही अनेकान्तवाद है। 'ही' वाद और 'भी' वाद संसार में दो वाद पाये जाते हैं- 'ही' वाद और 'भी' वाद। 'ही' वाद कहता है'मैं ही सच्चा हँ' अर्थात् मेरा कथन सत्य है और मेरे सिवा सभी सम्प्रदायों का कथन असत्य हैं। ठीक इसके विपरीत 'भी' वाद वाला कहता है- 'मैं भी सच्चा हूँ' अर्थात् मेरे सिवा दूसरे सम्प्रदायों का कथन भी सत्य है। वह भी किसी एक दृष्टि से सत्यवादी है। दूसरे शब्दों में-ही मत के अनुयायी का कहना है कि दिन ही है और भी मत के समर्थकों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525028
Book TitleSramana 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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