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________________ २४ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ का कहना है कि दिन भी है अर्थात जहाँ सर्य नहीं है. वहाँ रात भी है। 'ही' और 'भी' के अभिप्रायों में बहुत ही अंतर है। 'ही' के प्रयोग में एकान्तता का आग्रह समाया हुआ है। वह एक पक्ष के विचारों के समक्ष दूसरे के विचारों की अवहेलना करता है। अपूर्ण ज्ञान को पूर्ण मानकर मनुष्य को दिग्भ्रमित करता है जबकि 'भी' पक्ष अपने विचारों के साथ-साथ दूसरे के विचारों का भी स्वागत करने के लिए सतत् समुद्यत रहता है। यदि हम आम के विषय में कहते हैं कि आम में केवल रूप ही है, रस ही है, गंध ही है, स्पर्श ही है, तब हम मिथ्या एकान्तवाद का प्रयोग करते हैं। यदि इसी को हम इस रूप में कहते हैं कि आम में रूप भी है, रस भी है, गंध भी है, स्पर्श भी है, तब हम अनेकान्तवादी दृष्टिकोण का प्रतिपादन करते है। इस प्रकार 'ही' वाद विचार-वैषम्य एवं संघर्ष की स्थिति उत्पन्न करता है जबकि 'भी' वाद विचार-वैषम्यता एवं संघर्ष को मिटाता है। अनेकान्तवाद और विभज्यवाद विभज्यवाद अनेकान्तवाद का ही एक रूप है। विभज्यवाद का अर्थ होता हैकिसी भी तथ्य को विभाजनपूर्वक कहना या प्रस्तुत करना। सूत्रकृतांग में एक जगह प्रसङ्ग आया है कि भिक्षु को कैसी भाषा का प्रयोग करना चाहिए? इसके उत्तर में कहा गया है कि भिक्षु विभज्यवाद का प्रयोग करे। २६ भगवतीसूत्र में गौतम और जयन्ती के साथ हई भगवान महावीर की बातचीत का उल्लेख है जो अनेकान्तवाद और विभज्यवाद को प्रकाशित करता है, वह निम्नप्रकार हैगौतम - यदि कोई कहे कि मैं सर्वप्राण, सर्वभूत, सर्वजीव, सर्वसत्व की हिंसा का प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूँ तो क्या उसका यह प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है या दुष्प्रत्याख्यान? महावीर - जो व्यक्ति यह नहीं जानता कि ये जीव और ये अजीव हैं और ये त्रस हैं, ये स्थावर हैं, उसका प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है, जो यह जानता है कि ये जीव हैं और ये अजीव हैं, ये त्रस हैं, ये स्थावर हैं उसका प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है, क्योंकि उसका कथन सत्य है। २७ जयन्ती - भगवन्! सोना अच्छा है या जागना? महावीर - जयन्ती! कुछ जीवों के लिए सोना अच्छा है और कुछ जीवों के लिए जागना अच्छा है। जयन्ती - वह किस प्रकार? महावीर - जो अधर्मी हैं, अधर्मानुग हैं, अधर्मिष्ठ हैं, अधर्माख्यायी हैं, अधर्मप्रलोकी हैं, अधर्मप्ररंजन हैं, अधर्म समाचार हैं, अधार्मिक वृत्ति युक्त हैं, उनके लिए सोना अच्छा है क्योंकि वे सोते रहेंगे तो अनेक जीवों को पीड़ा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525028
Book TitleSramana 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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